आशीष
आशीष
समर भूमि गमन पूर्व मां का आशीष लो तुम कंत
लहराये यह धर्म ध्वजा तुम्हारी सभी दिग दिगंत
विस्तृत हो त्रिलोक तक जो आवेष्टित करे अनंत
फैले सुयश जग ऐसा जिसका कोई आदि न अंत
रहे अभेद्य कवच तुम्हारा निष्कंटक हो यह पंथ
न हो व्यथित प्रजा जन, और सुखी रहें सब संत
आनंदित हों बाल बुजुर्ग सभी, वनिता रहें स्वछंद
खेलें कूदें नाचे गायें लिए मधुर मुस्कान मंद मंद
भरे उड़ान मधुकर,सुमनों से पीकर मधु मकरंद
हो सबका मन निर्मल निश्छल, रहे न अंतर्द्वंद्व
कवियों की लेखनी विरचित करें नित नव छंद
यह सब अटल सत्य है , ध्यान धरो तुम कंत
कर देते प्राणों का उत्सर्ग जीवन का वो अंत
वतन की रक्षा में रत हैं ,देशभक्त और संत
पर सबकी रगों में अनुराग देश का नहीं होता
लेते हैं जन्म हर युग में कुछ न कुछ जयचन्द।
