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Rinki Gupta

Abstract

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Rinki Gupta

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आईना

आईना

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अब कुछ उदास है मेरे कमरे का आईना

वो उदास है कि अब कोई उसके आगे बैठकर

नग्मे नहीं गुनगुनाता।


कि अब कोई उसे वो गजलें नहीं सुनाता

और ना ही बैठ कर संवरता

कोई घंटो उसके आगे।


तो शायद उदास है वो

और उदास है मेरे वो माथे की बिंदिया

कि अब वो किसी माथे की शोभा नहीं बनती।


जो ना जाने कब से लगी उस आईने पर

मुझे निहार रही है

और ये दास्ताँ मेरे आईने की

मेरी बिंदिया से ये गुफ़्तगू कर रही है

कि शायद उदास हूँ मैं।


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