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Mahavir Uttranchali

Abstract

5.0  

Mahavir Uttranchali

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आदि सृष्टि से

आदि सृष्टि से

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157


एक कण से दूसरे कण तक

एक प्राण से दूसरे प्राण तक

पुरातन चेतन से नवचेतन तक

न टूटने वाली निरन्तर सतत

प्रक्रिया है

आदि सृष्टि से भविष्य के गर्त तक


आत्मा रूपी अंश व्याप्त है

विलीन है तल्लीन है

उस परमपिता के अंश में


इस समस्त प्रयोजन में

जिसने कहीं न कहीं

पिरो रखा है

समस्त प्राण को एक सूत्र में

अर्थात

वह आत्मा रूपी अंश

जो सम्प्रेषित करता है

हमारे हृदय के तारों को

मनोभावों को


जो युगों-युगों से

बाँधे हुए है

हमारे मृत्यु चक्र को

एक शरीर से दूसरे

शरीर तक

एक प्राण से दूसरे

प्राण तक

जैसे भगवद्गीता में

केशव का कथन

“अजर-अमर आत्मा,

शरीर रूपी चादर को,

निरन्तर बदलती रहती है”


जैसे काशी के जुलाहे

कबीर का अविस्मरणीय कथन

“चदरिया झीनी रे झीनी “

भजन स्वरुप गूंज रहा है

अनेक सदियों से वसुंधरा पर

विचित्र अलौकिक शांति के साथ।


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