कफारा
कफारा
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मुझे आज सुबह ही फवाद मियाँ से मालूम हुआ कि वो जिस ड्रामे की हिकायत लिख रहे थे, किसी कारण से उसे बंद कर दिया गया है।
हमारे घर में सभी उनकी इस महारत के कायल थे। जब उन्होंने बताया कि वो एक ड्रामा लिख रहे हैं और उसे एक चैनेल ने मंज़ूर कर लिया है, हम सब बहुत खुश हुए। घर के सभी बच्चे तो फवाद से ज़िद करने लगे कि उन्हें कहानी सुननी है। पर फवाद तो ठहरे फवाद। उन्होंने तो मुझे सुनाने तक से मना कर दिया।
यही कहा कि जब टी वी पर ड्रामा आएगा तभी देखना सभी। हम सब की उत्सुकता सातवें आसमान पर थी।
वो पहला एपिसोड 17 नवंबर , 2014 को आया था। हम सभी ने साथ मिलकर देखा। पहली तनख्वाह से इन्होंने सभी घर वालों के लिए तोहफे लिए थे।
आज सुबह से ही फवाद का चेहरा उतरा हुआ है। मुझे सबब मालूम था पर फिर भी कुछ नहीं कर पाई। मैने उन्हें समझाने की बहुत कोशिश की मगर सब बेनतीजा।
वो कहने लगे कि ," फातिमा बेगम, तुम जानती हो , ये किरदार मैं अपनी असल जिंदगी में जीने लगा था। पिछले कई सालों से ये मेरे ज़ेहन में है। अब एक दम से कैसे छोड़ दूँ।अभी तो इस कहानी के कितने पहलू उभरना बाकी था। इस कहानी की तरह , इनके किरदार भी अधूरे रह गए।"
जिन कहानियों को खत्म करना मुश्किल लगे
उन्हें अधूरा छोड़ देना बेहतर है
क्योंकि वो मुकम्मल तो हो जाएँगी
मगर तब उनकी वुक़त खत्म हो जाएगी
मैने आगे बोलना चाहा पर वो फिर से अपनी बात रखने लगे," मेरी जगह तुम होती, तो शायद तुम वही दर्द महसूस कर पाती, मगर अफसोस, तुम नहीं हो मेरी जगह।"
उनकी ये बात मुझे चुभ गयी और इसको टीस तो उससे भी बुरी।
मैने जब साफ सफाई की तो कुछ पन्ने बिखरे मिले। इन पर फवाद ने कहानी लिखी हुई थी। 'ज़ारा' और 'इक़बाल' की। मैं खुद को रोक न सकी और आगे की कहानी पढ़ बैठी। कहानी दिल को छू गयी। मुझे फवाद की बातें अब कम दर्द कर रही थी क्योंकि मैं उनके दर्द को कुछ हद तक महसूस कर पा रही थी।
तभी मुझे एक ख्याल आया। मैने तय किया कि अब कहानी फवाद की होगी...मगर अल्फ़ाज़ मेरे होंगे।
सही सोचा आपने..मैं फवाद की ही कहानी को नए सिरे से लिखूँगी।
तो फवाद की ज़ारा बन गई मेरी ज़ोया और उनके इक़बाल बन गए मेरे सलीम।
मुझे लगा कि सबसे पहले तो एक नए नाम की ज़रूरत होगी, हमारी कहानी को।उसी वक्त टी वी पर गाना चल रहा था-
' बोल कफारा क्या होगा'
कहीं न कहीं ये कफारा लफ्ज़ मेरे ध्यान में रहा...और मैने अपनी कहानी को यही नाम देने का फैसला किया।
मैने फवाद की पूरी कहानी का जायज़ा लिया और फिर लिखना शुरू किया।
मैने ये बात सबसे छुपाये रखी। क्योंकि मैं फवाद की तरह तो लिखती नहीं थी। हाँ , मगर आज़माने में क्या हर्ज़ है।जिस दिन उन्हें मालूम होगा, खुदा जाने वो कैसे इस बात पर कैसे प्रतिक्रिया देंगे।
फिर हौले हौले ज़ोया और सलीम मुझमें समाने लगे।
और हमारा सफर बनता गया।
उन्हीं दिनों, सादिया , मेरी सहेली का मेरे घर आना हुआ। नजाने कैसे मेरी डायरी उसके हाथ लग गई। उसने मुझसे पूछा तो मैंने बात टाल दी। बस शोंक का नाम देकर बात वहीं खत्म करना मुनासिब समझा।
सादिया ने मुझे उस कहानी को किसी के पास भेजने को कहा जो इस पर बखूबी ड्रामा तैयार कर सके।
मैने उसे तो इनकार कर दिया। मगर दिल हामी भर रहा था।
ये खूबसूरत ऐतफाक ही था कि मेरी पहली कोशिश मुकम्मल साबित हुई। उन चैनल वालो को मेरा काम पसंद आया और उन्होंने तो इस पर एक ड्रामा बनाने के लिए मुझसे मंज़ूरी माँगी।
फिर थोड़ा गौर फरमाने के बाद मैंने उनकी बात मान ली , मगर मेरी शर्तें थी।एक ये कि फवाद को इस बारे में कोई खबर नहीं होगी और लेखक का नाम फातिमा बी की जगह नफीसा बानो होगा।
मैं यही सोचती कि जब फवाद को मालूम पड़ेगा कि मैंने उनकी ही सोच को आगे बढ़ाया, वो कितने खुश होंगे, उन्हें मुझ पर फख्र होगा।
फिर लेखिका नफीसा का लिखा हुआ ड्रामा कफारा बहुत मशहूर हुआ।
हम सब साथ में देखा करते। फवाद को और बच्चों को भी वो बहुत पसंद आया। नजाने कैसे वो समय बीता।
फिर एक दिन मैने हौंसला करके फवाद को बता दिया कि नफीसा कोई और नहीं , बल्कि मैं ही हूँ।
पहले तो उन्होंने कुछ न कहा। मगर घर आकर मेरे लिए एक सरप्राइज़ रखा।
मैं खुश भी थी और हैरान भी ।
फवाद ने बताया कि उन्हें पहले दिन से मालूम था कि नफीसा ही फातिमा है।
ये दूसरी बारी थी जब उन्होंने मुझे हैरान किया।
मैंने पूछा तो उन्होंने बताने से इंकार कर दिया।
आखिर फवाद मियाँ जो ठहरे।
वक्त ने यूँ करवट ली और 2 साल बीत गए। और हमारी ज़िन्दगियों ने भी करवटें लेना शुरू कर दिया।
' कफारा' की कामयाबी के साथ साथ फवाद को काम मिलना कम हो गया। अब इसके कारण से तो हम दोनों ही अंजान थे। कहीं न कहीं वो मुझे इसका जिम्मेदार ठहराने लगे।
उनकी यही सोच हमारे रिश्ते में खलल डालने लगी।नफीसा की कामयाबी से फवाद कहीं पीछे छूट रहा था। उनकी अपनी महत्वकांक्षाएँ हम पर भारी पड़ने लगी। चीज़ों को देखने का हमारा नज़रिया बहुत बदलने लगा।रोज़ हमारे झगड़े होने लगे। उन्होंने मुझसे एक चीज़ माँगी, जो मैं उन्हें न दे सकी। वो थी आज के बाद दोबारा न लिखने की कसम।
एक दिन दोपहर को मुझे एक खत मिला।
उस दिन ही मेरा और फवाद का बहुत झगड़ा हुआ था। मुझे लगा कि कोई काम का खत होगा।
उसे पढ़ने के बाद तो जैसे मेरी दुनिया उसी कागज़ के टुकड़े में सिमट सी गई। वो खत किसी और ने नहीं बल्कि फवाद का था।
मुझे बिल्कुल अंदाज़ा नहीं था कि फवाद ऐसा कदम भी उठाएंगे कभी। मेरी आँखों से मुसलसल आँसू बहने लगे।
'तुम्हारे उस "कफारा" का कफारा
तुम्हें आज़ाद किया'