तलाश
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`समझ में आ गया क्या बच्चों ?` मैंने अपने चिर-परिचित अंदाज में दसवी कक्षा के विद्यार्थियों को अंग्रेजी का एक निबन्ध पढ़ाने के बाद पूछा। हालाँकि मैं ये बखूबी जानती थी, की उन्हें यह पाठ समझ में नहीं आया है। क्योंकि जिस स्तर का वो निबन्ध था, शायद उस स्तर के विद्यार्थी कक्षा-कक्ष में नहीं थे।
मेरे सामने एक कठिन चुनौती थी। लेकिन विद्यार्थी होशियार बहुत ज्यादा थे। उन्होंने झट से कह दिया,` हाँ ! मैडम समझ में आ गया।` मैंने नजरे उठाके जब देखा तो ये बात लगभग सभी विद्यार्थी बोल रहे थे। लेकिन एक लड़की शांत थी। वह हमेशा की तरह लड़कियों की पंक्ति में अंतिम छोर पर बैठी थी। भोली सी सूरत, मुश्किल से कभी-कभी मुस्कुराने वाली, वह लड़की दुनियां से कटी- कटी सी लग रही थी। उसे देख कर ऐसा लग रहा था, मानो वह मेरी ही छवि हो। मैं भी तो उसकी तरह मुस्कुराना मानो भूल ही गई थी। बचपन में अध्यापको की डांट से डरने के कारण कम बोलने लगी थी और वो स्वभाव जिन्दगी में कब घुल गया पता ही नहीं चला। जब दुनियादारी की समझ हुई तो नौकरी चाहिए थी। ऐसे में मैं भी शुरू हो गई अन्य युवाओं के साथ दौड़ लगाने। ये जाने बिना ही की जिस दौड़ में मैं शामिल हुई हूँ क्या वो मेरे लायक है ? लेकिन फिर भी जैसे-तैसे कर के नौकरी प्राप्त कर ली। सोचा जैसे ही नौकरी मिल जाएगी तो ख़ुशी के मारे उछ्लूंगी। लेकिन वो तलाश ख़तम नहीं हुई। मुझे ख़ुशी नहीं मिली। आखिर फिर खुशियों को तलाशने की कवायद शुरू हो गई। इस तलाश में कब शादी की उम्र हो गई पता ही नहीं चला। लोग तरह-तरह की बातें करने लगे। माँ ने फिर शुरू कर दी एक ऐसे लड़के की तलाश जो मेरे लायक हो। जो मेरी भावनाओं को समझे। लेकिन जो भी लड़के मुझे दिखाए गए, वो न जाने क्यों मुझे इस लायक नहीं लगे ?
आख़िरकार मेरी माँ ने हार मान ली। उन्होंने सोचा में मानने वाली नहीं हूँ। मेरा मन इन्हीं ख्यालों में गोता लगा रहा था, कि इतने में घंटी बज गई।
उस दिन मैं उस लड़की से बात नहीं कर सकी। लेकिन अगले ही दिन मैं पुन: उसके पास गई। पास जाकर मैंने उससे उसका नाम पुछा। उसने धीमे से बुदबुदाया,` मैडम ! किस्मत।
`वाह ! कितना प्यारा नाम है तेरा।`
मैंने नकली मुस्कराहट मुस्कुराते हुए उससे कहा। जिसका उस पर कोई असर नहीं हुआ। शायद मुस्कुराहटो से उसका नाता टूट गया था। साधारण बातचीत के बाद मैंने उसे कल बताए पाठ के बारे में पूछना शुरू किया। इस दौरान मुझे पता चला की उसे तो अंग्रेजी पढनी तक नहीं आती। मैं आश्चर्यचकित थी। सोचा भला इतनी सालो तक इस पर किसी भी अंग्रेजी के शिक्षक ने ध्यान क्यों नहीं दिया ? लेकिन अगले ही पल मुझे अहसास हो गया की मैंने भी तो शिक्षिका होने का दायित्व पूर्ण निष्ठां और ईमानदारी से नहीं निभाया है। मुझे भी तो इस विद्यालय में आए हुए छ: माह हो गए हैं।
आखिर मुझसे ऐसी भूल हो कैसे गई ? ऐसे अनेको सवाल मेरे दिमाग में कोंध रहे थे। खेर अब आगे बढ़ने का समय था। अब मुझे उसे होशियार करने की कवायद शुरू करनी थी। मैंने शुरू मैं उसे अंग्रेजी के सामान्य शब्दों का परिचय करवाया। वह रोमन के आधार पर मेक को मके बोलती तो कभी फ्यूचर को फुटूरे। इस दौरान कभी-कभी हंसी की फ़व्वार भी छूट पड़ती।
अब मुझे उसके साथ वक्त बिताना अच्छा लगने लगा। मैं जिन मुस्कुराहटो की तलाश कर रही थी, उन्हें अब मुझे तलाशने की कोई जरुरत नहीं थी। वो खुद-ब-खुद लौट आती थीं। वक्त का घोड़ा भी कुलांचे मारकर दौड़ रहा था। बोर्ड परीक्षाओ का टाइम टेबल आ गया और मैंने अपनी और से किस्मत को पूरी तैयारी करवा दी थी। पहला पेपर अंग्रेजी का ही था। मैंने किस्मत को सभी जरुरी सलाह दे दी।
आख़िरकार सभी की परिक्षाएँ सम्पन्न हो गई और मुझे ये जानकर बहुत अच्छा लगा की किस्मत के सभी पेपर अच्छे हुए थे। जब परिणाम का दिन आया तो मेरा कलेजा मुहं में था। मैं उस दिन सभी अध्यापको के साथ हमारे स्कूल के आईटी भवन में थी। कंप्यूटर स्क्रीन पर जैसे ही प्राचार्य महोदय ने किस्मत के नामंक लिखे मेरा दिल धकधक कर रहा था। सर्कल घूमा और परिणाम मेरी आँखों के सामने था। वह पास हो गई थी। मैंने जैसे ही अंग्रेजी के कॉलम के सामने देखा तो उसमें उसके 64 अंक थे। मैं खुशी के मारे उछल पड़ी। ये परवाह किए बिना की मेरे आसपास 15 लोग और भी हैं। लेकीन मुझे इसकी परवाह नहीं थी। क्योंकि आख़िरकार किस्मत की वजह से मैंने जीना सीख लिया था। मेरी खुशियों को तलाश करने की कवायद पूर्ण हो चुकी थी।