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Asha Pandey

Drama

1.0  

Asha Pandey

Drama

ममता

ममता

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आज अम्मा बेहद खुश हैं । उनके बेटे की चिट्ठी आई है कि वह दादी बनने वाली हैं । कितने वर्षो से ये सुनने के लिए उनके कान तरस रहे थे । कितने पत्थर पूजे थे । कितनी मनौतियाँ मानी थीं, तब कहीं जाकर आज ये दिन आया है । अम्मा दौड़ –दौड़ कर सबको ये समाचार सुना रही हैं- ‘अरे बबुआ, अब तुम जल्दी ही चाचा बनने वाले हो । भतीजे को सुनाने के लिए कुछ कहानी-वहानी सीख लो और मुनिया, तू बुआ बनेगी तो भी क्या ऐसी ही नकचढी जैसी रहेगी । अरे, थोडा शान्त स्वभाव की बन, नहीं तो बाबा, तू तो जरा-जरा सी बात पर भतीजे को मारेगी । अम्मा इतने विश्वास से ‘भतीजे’ शब्द का प्रयोग कर रही हैं जैसे भगवान के यहाँ से सन्देशा आया हो कि बेटा ही होगा ।

आज अम्मा को बहुत काम है । बबुआ की माँ से जिठानी का रिश्ता है, तो पीपल के पेड के पास वाली बूढी अम्मा सास जैसी हैं । गांव में और भी कई घर हैं । जहां अम्मा की सास-ननद, जिठानी मौजूद हैं । सबके पैर छूने जाना है । न जाने किसके आशीर्वाद से आज ये दिन आया है । वैसे, गांव में अम्मा का सगा कोई भी नहीं हैं । उनका खुद का बेटा भी अपनी बीवी के साथ शहर में रहता है । बेटे के शहर जाने के बाद से अम्मा और रामनाथ बाबा दोनों अपने घर में अकेले ही रहते हैं, लेकिन अम्मा का दिल इतना बडा है कि पूरा गांव उसमें अपने नजदीकी रिश्ते के साथ समा सकता है । ममता की ऐसी मूरत कि गांव का हर बच्चा उन्हें अपनी औलाद लगता है । क्या मजाल कि अम्मा के रहते पडोस वाला रामू बिना खाए ही स्कूल चला जाए या फिर शंकर की बेटी बिना तेल-चोटी के गांव में घूमें । सबके लिए उनका दिल खुला है । बदले में किसी से कोई उम्मीद नहीं । किसी ने हंसकर बात की तो भी अपना, नहीं बात की तो भी अपना । वैमनस्य या विरोध शब्द का जैसे उन्हें ज्ञान ही नही है । अम्मा की इतनी भागदौड, हर किसी की सेवा-सहायता रामनाथ बाबा को कम सुहाती है इसलिए रामनाथ बाबा हमेंशा अम्मा को समझाते हैं । कभी-कभी तो दोनों में अच्छी कहा-सुनी भी हो जाती है । अभी कल ही तो बाबा अम्मा से कह रहे थे - ‘श्रीकान्त की अम्मा तुम पूरे गांव का जिम्मा क्यों लिए रहती हो ? अपने घर का काम करके कुछ देर आराम किया करो । इस उमर में इतनी भाग-दौड ठीक नहीं, लेकिन तुम्हें तो कभी किसी का पापड बनाना रहता है तो कभी किसी की बडी । किसी की बहू बीमार है तो किसी का बेटा परदेश से आया है । सारा भार तुम्हारे ही ऊपर है । बस, तुम से तो कोई प्यार से बोल भर दे कि तुम उडेल देती हो अपनी ममता की गागर ।‘

अम्मा कहां सुनने वाली थीं । उनका दिल और दिमाग इतना संकरा नहीं था । अम्मा ने रामनाथ बाबा से कह दिया - ‘देखो जी, हम दो जन के लिए बनाने-खाने में मय ही कितना लगता है ? खाली पडे-पडे घर में कुढते रहने या फिर गांव भर की बेटी -बहुओं की बुराई करने से तो अच्छा है कि सबको अपना समझ कर उनके बीच हंसते-हंसाते दिन बीत जाए । जिन्दगी में रखा ही क्या है ? अपना बेटा भी तो दूर है । वक्त -जरूरत यही लोग हमारे काम आएंगे । कल को जब मरेंगे तो रोने वालों की कमी नहीं रहेगी ।‘

वैसे जानने को तो रामनाथ बाबा भी जानते थे कि मेंरे कहने-सुनने का कुछ असर उन पर नहीं पडेगा । अम्मा भीतर से जितनी भावुक हैं उतनी ही सख्त और सजग भी । किसी के कहने-सुनने से उनकी भावुकता में कोई फर्क नहीं पडता । ऐसा प्रेम,

ऐसा अपनापन किस काम का कि रामनाथ बाबा कुछ बोल दें तो अम्मा पीछे हो जाएं । जब कदम बढाया है तो सख्ती से, सजगता से अंत तक उसका निर्वहन भी करना है । गजब का दिल पाया है अम्मा ने । वैसे अपने घर को बिलखता छोड सिर्फ नाम के लिए समाज सेवा करने वाली समाज सेविकाओं जैसी नहीं हैं अम्मा । अपने घर को बडे यत्न से संभाला है अम्मा ने । कोई कसर नहीं छोडी । इसलिए रामनाथ बाबा भी यद्यपि अम्मा को बाहरी झंझट में न पडने की हिदायत देते थे किन्तु मन ही मन पत्नी के विशाल हृदय को देख गर्वित होते थे । आज उन्ही अम्मा के घर खुशी का इतना बडा पैगाम आया है ।

इधर दस-पन्द्रह दिन से अम्मा कुछ कम दिख रही थीं । कल मैंने पूछ ही लिया - ‘अम्मा , आज कल आप कहां रहती हैं, बहुत कम दिखती हैं ? ‘ अम्मा तुरन्त धोती समेंटते हुए मेंरे पास बैठ गई थीं, जैसे उन्हें इन्तजार ही था कि कोई उनसे उनकी व्यस्तता का कारण पूछे और फिर पूरे पन्द्रह दिन का ब्योरा दे डाला था उन्होंने - ‘क्या करती मुन्ना की बहू, अब ज्यादा समय ही कहाँ है कि बैठकर दिन बिताऊँ ? बहू को बच्चा होने में सिर्फ दो महीने ही तो बचे हैं । अब जब इतने दिन पर हरियाली आई है तो ‘नेग मागने वाले नेग मागेंगे ही । उसकी व्यवस्था तो करनी ही पडेगी । नाऊन कह रही थी कि अम्मा, खाली धोती से काम नहीं चलेगा, एकाध सुनहली चीज पहनूँगी । अब नाऊन को दूँगी तो बनिया जो मेंवे की थाल लाएगा वह भी तो ठनगन करेगा । भले ही हरखू नाडा नहीं काटेगी लेकिन नेग तो उसे भी चाहिए । अब नर्स और अस्पताल का फैशन हो गया तो उसमें हरखू का क्या दोष ?’ एक सुलझे विचारक की मुद्रा में बोल गर्इं थीं अम्मा । फिर थोडा सा रुक कर सोचते हुए आगे बोलीं - ‘बहू के लिए सोंठ के लड्डू की व्यवस्था भी करनी है । कल गनपत के यहाँ गई थी । शुद्ध घी के लिए बोल आई हूँ । कह रहा था कि सबको सौ रुपए किलो देता हूँ, तुम्हें सत्तर लगा दूँगा । मैंने उससे कह दिया कि मैं पैसे की कोई कोर-कसर नहीं रखूँगी, हाँ, माल शुध्द होना चाहिए । अब का खाया –पिया ही काम आता है, नहीं तो शरीर टूट जाता है |”

‘सो तो है अम्मा , अब आप हैं जो बहू की इतनी जतन कर रही हैं, हर सास ऐसी नहीं होती है । श्रीकान्त भइया की बहू किस्मत वाली है जो आपको सास के रूप में पाई है |”

अपनी प्रशंसा सुनकर अम्मा के चेहरे पर गुलाबी रंगत आ गई । फिर मुस्कराते हुए वह अपनी आगे की तैयारी बताने लर्गी - मोती सुनार के यहाँ भी मैं गई थी । वह भी उधारी में दो-चार जोड़ चांदी की पायल देने को तैयार हो गया है । अब मुन्ना की बहू, सबको सुनहले की आशा है तो कम से कम चांदी का तो दे ही दूं । नाती के लिए सोने की चेन बनाने को भी बोल आई हूं । दो-चार जोड़ी कपड़े भी तो लेने पड़ेंगे । आखिर दादी हूं मैं|’

मैने कहा- “अम्मा, इन सब कामों के लिए श्रीकान्त भइया पैसे देंगे ही, तुम क्यों इतनी चिन्ता कर रही हो, सब हो जाएगा |”

अम्मा अपने सिर से खिसकती हुई धोती को ऊपर खींचते हुए बोली थीं - मैं श्रीकान्त के भरोसे थोड़े बैठूँगी बहू, उसकी भी कौन-सी बड़ी नौकरी है । शहर का खर्चा तो जानती ही हो, गांव जैसा कहां कि कोई आया तो गुड़ - पानी देकर फुर्सत मिले । फिर शहर में भी तो उसके यार दोस्त खाने-खिलाने को कहेंगे । दोनों जगह का खर्च वह कैसे कर सकेगा ? यहाँ का तो सब मैं ही संभालूँगी । अपने बाबा को तो जानती ही हो । दुनिया इधर की उधर हो जाए उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता । मै सलाह-मशविरा करती हूं और वो हैं कि हां-हूं कह कर बात को टाल देते हैं |”

अचानक अम्मा का चेहरा कुछ दु;खी हो गया । नम आँखों को पोंछते हुए बताने लर्गी । ‘कल श्रीकान्त की चिट्ठी आई थी । बहू सौर के लिए मायके जाएगी, यहां उसकी देखभाल नहीं हो पाएगी । फिर जैसे खुद को ही समझाते हुए बोलीं - ‘वहाँ उसकी माँ है, देखभाल कुछ अधिक जतन से होगी । श्रीकान्त ने भी सोचा होगा कि हमारे अम्मा - बाबूजी क्यों परेशान हों । दौड़ - धूप अलग से करनी पड़ेगी, पैसा अलग खर्च होगा, इसलिए वह भी उसके मायके जाने पर राज़ी हो गया होगा, और मुन्ना की बहू, ससुराल ससुराल ही होती है, मैं कितना भी उसे काम न करने को कहूँगी लेकिन वह मानेगी नहीं । मेंरा ही लिहाज उसे आराम नहीं करने देगा । अच्छा हुआ जो श्रीकान्त ने उसे मायके भेजने को सोचा । अम्मा के चेहरे पर संतोष झलक रहा था । अचानक अम्मा कुछ याद करते हुए जल्दी से उठ गई - ‘चलूँ बहू, बहुत काम है, बच्चा भले ही उसके मायके में हो बरही तो यहीं होगी, उसका तो सब करना ही है, कह कर तेज कदमों से अम्मा आगे की व्यवस्था करने चली गर्इं ।

इंतजार की घड़ी बीती । श्रीकान्त को सचमुच बेटा ही हुआ । अम्मा के घर में बधाई देने वालों का तांता लग गया । हमेंशा शान्त रहने वाले रामनाथ बाबा भी दौड़ – दौड़ कर सबका स्वागत कर रहे थे । अम्मा के चेहरे पर तो खुशी के हजारों-हजार दीप जगमगा रहे थे । वह दौड़ – दौड़ कर सबको मिठाई खिला रही थीं । कोई बुआ बनने का नेग माग रही थी, तो कोई दीदी बनने का । अम्मा किसी को नेग देने की हामी भर रही थीं तो किसी को यह बता रही थीं कि उनका हक उस बच्चे पर अम्मा से पहले है । बगल वाली हीरा की काकी ने पूछा - ‘बरही कब कर रही हो ? क्या सवा महीने तक बहू मायके में ही रहेगी ?”

अम्मा ने झट उत्तर दिया - “नहीं दीदी, सवा महीने वहाँ रहेगी तो मैं नाती को देखे बगैर कैसे रह पाऊंगी ? कल पहले श्रीकान्त के बाबूजी को भेजूंगी, फिर दस-पंद्रह दिन बाद कोई अच्छी-सी साइत देख कर उसे बुला लूंगी |”

रात हो गई थी, सब अपने-अपने घर जा चुके थे । अम्मा घर का काम निपटा कर सोने की तैयारी करने लगीं । बिस्तर पर लेटीं तो, लेकिन आज अम्मा को नींद नहीं आ रही थी । वर्षो से संजोया हुआ सपना आज साकार हो गया था । चेहरे पर इंतजार ख़त्म होने का तृप्ति भाव था और मन में बरही कार्यक्रम की उधेड़ - बुन । दिल पोते के काल्पनिक चेहरे पर टिका हुआ था-कैसा दिखता होगा वह ? जरूर श्रीकान्त जैसा ही होगा । उन्हें अट्ठाइस साल पहले का नन्हा, प्यारा, गोल-मटोल आँखों वाला श्रीकान्त याद आ गया । कितना प्यारा था श्रीकान्त, सफेद रूई के फाहे जैसा । वह तो लोहबान के धुंए से सेंकते-सेंकते उसका शरीर ललछर पड़ गया था । सिर में नरम –नरम काले बाल । साक्षात कन्हैया दिखता था । अम्मा को लगा श्रीकान्त उनके बगल में लेटा हुआ किहाँ – किहाँ कर रहा है । ठीक अट्ठाइस साल पहले जैसा । समय इतनी जल्दी बीत गया । वही नन्हा श्रीकान्त आज बाप बन गया है - एक सुंदर से बेटे का बाप ! हां, सुंदर ही होगा उनका पोता, आखिर उनकी बहू भी तो लाखों में एक है । वह जिसको भी पड़ा होगा लेकिन होगा सुंदर ही, अम्मा को पूरा भरोसा है ।

उस रोज अम्मा अपने घर के आंगन में कुछ उदास बैठी थीं । मुझे लगा, शायद तबियत ठीक नहीं होगी इसलिए पास जाकर हाल-चाल पूछने लगी । बहुत यत्न से रोके गए उनके आंसू मुझे देखते ही लुढ़क पड़े । आँखों को पोछते हुए बताने लगीं- ‘आज श्रीकान्त की चिट्ठी आई है । बहू के मायके वाले बरही अपने ही घर में करना चाहते हैं । लिखा है कि इतने दिन से सेवा-सहायता कर रहे हैं, अगर बरही के लिए अपने यहाँ बुला लूँगी तो उन लोगों का मन टूट जाएगा । सरोज की माँ को नाती की बड़ी आस थी । अब जब वह पूरी हो गई तो उनसे बरही का हक मैं कैसे छीनूँ ? उसने आगे लिखा है कि वह शहर से सीधे वहीं चला जाएगा और यहाँ से बाबूजी को भेज देना । श्रीकान्त के बाबूजी तो चिट्ठी पढ़ते ही नाराज हो गए लेकिन मैंने उन्हें समझाया । मन तो मेंरा भी बहुत दु;खी हुआ लेकिन बहू, श्रीकान्त ने ठीक ही लिखा है कि आखिर परेशानी तो उन लोगों ने उठाई फिर खुशी मनाने का हक उनसे क्यों छीने ? तुम्हारे बाबा के हाथों बच्चे का कपड़ा और चेन भेज दूँगी । फिर बहू शहर जाने से पहले तो यहाँ आएगी ही, तब गाना बजाना करके मैं भी अपना शौक पूरा कर लूँगी |” अम्मा मन्त्रवत कह गई थीं । उनकी आवाज में न तो कोई जोश था न उत्साह । दिल की लाचारी तथा पीड़ा के भाव स्पष्ट झलक रहे थे । मैं अम्मा के अब तक के उत्साह तथा इस हताशा का मन ही मन आकलन करने लगी । अम्मा की ममता धोखा खा गई ।

कई दिनों से अम्मा को देखा नहीं, उनसे मिलने जाने की सोच ही रही थी कि रामनाथ बाबा आ गए । मुझे लगा, श्रीकान्त भइया की बहू घर आई हैं, यह संदेशा देने आए होंगे लेकिन आते ही वह क्षीण आवाज में बोले - मुन्ना की बहू, अपनी अम्मा को समझाओ, कल से खाना नहीं खाई हैं |” ‘

मैंने कारण पूछा तो बाबा ने बताया - ‘कल श्रीकान्त ससुराल से ही अपनी बहू तथा बच्चे को लेकर शहर चला गया । कह रहा था कि छुट्टी नहीं है । यहाँ आने पर चार-पाँच दिन बेकार चले जाते, सो फिर कभी लम्बी छुट्टी लेकर आराम से आएगा ।

मैं अम्मा के पास आ तो गई लेकिन समझ नहीं पा रही थी कि पेड़ से टूटे हुए सूखे पत्ते को भला कैसे सहारा दे पाऊँगी । मैंने अम्मा की तरफ एक दर्द भरी दृष्टि डाली, उनके चेहरे पर की अव्यक्त पीड़ा मुझे साफ दिख रही थी । वह लगभग कराहती हुई आवाज में बोलीं - ‘श्रीकान्त दो-चार दिन के लिए आकर मुझे मोह में नहीं डालना चाहता था इसलिए फिर कभी लम्बी छुट्टी लेकर आएगा ।

. . .बहुत प्यार करता है मुझे । वह तो बच्चे को देखने का बहुत मन था इसलिए मैं दुःखी हो गई थी |”

मैं हतप्रभ थी । ममता की इस मूरत को भला मैं क्या समझाऊँ । समझना तो श्रीकान्त जैसे बेटों और सरोज जैसी बहू को चाहिए जो माँ की निश्छल ममता को ठग लेते हैं । वैसे मन ही मन समझ अम्मा भी रही थीं बेटे के प्यार को और समझ मैं भी रही थी अम्मा की विवशता को ।


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