जेब को सोखती दोपहर

जेब को सोखती दोपहर

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आज सुबह से ही मन थोडा खिन्न है। यूँ खुश होने का समय है, पर न जाने क्यों मेरे साथ ऐसा ही होता है। चिन्ताएँ इस कदर लदी रहती हैं दिमाग पर कि कोई क्षण खुशी लेकर आता भी है तो उन्हें वे ठेल धकेल कर पीछे कर देती हैं।

                                              

कितना सोचने के बाद कल उस कलकत्ता की साडी वाले को रोक पाई थी और पूरे दो घण्टे तक साडियों को उलटने-पलटने के बाद बारह सौ रुपये खर्च करके दो साड़ियाँ खरीद भी डाली थी। साड़ियाँ खरीदने के बाद तो ऐसा लगा था जैसे मुद्दत बाद इस घर में पायल झनकी हो। खुशी से लबालब मैं अपने घर में उड-सी रही थी। पर यह क्या, आज फिर से पैसे को अनावश्यक खर्च कर देने की उसी चिन्ता ने मुझे धर दबोचा। कहाँ जाना रहता है मुझे ? बाज़ार या फिर कभी किसी के घर मिलने-मिलाने। क्या करूँगी इतनी महगी साड़ियों का ? इससे अच्छा तो घरेलू उपयोग की कोई चीज ले लेती। मैं कोस रही थी उस क्षण को जब मिसेज गोडबोले से मेरी बात-चीत इन फेरीवालों के बारे में हुई थी।

                                               

दरअसल हुआ ये कि इधर कुछ दिनों से मैं महसूस कर रही थी कि हमारे अपार्टमेंट में फेरीवालों की आवक कुछ अधिक बढी है और उसी हिसाब से महिलाओं की लक-दक भी प्रशंसनीय है। जब देखो तब नई साडी में लिपटी दिख जाती हैं सब। एक मैं ही हूँ जो होली, दिवाली में खरीदी गई साडी में ही हर दिन बाहर हो आती हूँ । बाकी सब तो लम्बे अर्से तक एक साडी को दुहरा कर भी नहीं पहनती।

मिसेज गोडबोले कह रहीं थीं कि दोपहर का समय बहुत अच्छे से बीत जाता है इन फेरीवालों के साथ। तरह-तरह की साड़ियाँ देखों, मोल-भाव करो और उधारी में उठा लो|

"उधारी में ?‘‘

"हाँ, फेरीवालों को हमें ग्राहक बनाना रहता है और हमें साड़ियाँ खरीदनी रहती हैं..... दोनों को एक दूसरे की जरूरत... सिर्फ साडीवाले ही नहीं, सभी से खरीदा जा सकता है उधार। वह, जो स्टील के बर्तन लेकर आता है, उससे तो मैं न जाने कितने बर्तन खरीद चुकी हूँ। धीरे-धीरे देती रहती हूँ पैसे|"

मन्द-मन्द मुस्कुराते हुए मिसेज गोडबोले ने अपना गहरा तत्वज्ञान मुझे थमा दिया।

मैं अचम्भित ... कितनी पागल हूँ मैं..... किस दुनिया में रहती हूँ मैं ! गृहस्थी चलाने का यह मन्त्र अब तक मेरे हाथों में क्यों नहीं लग सका। बस पति की कम आमदनी का रोना रो-रोकर हर चीज़ के लिए तरसती रही मैं। अभाव में कुढने से तो यह तरीका कहीं बेहतर है। सच कहते हैं लोग, घर-गृहस्थी चलाना भी एक कला है। मैं मन ही मन मिसेज गोडबोले की समझ-बूझ की कायल हो गई और अगले ही दिन साडी वाले को रोक कर दो साड़ियाँ खरीद भी डाली। महीने का शुरुआती दिन था इसलिए पैसे भी नगद दे दिये। बस यहीं चूक हो गई। क्या करती... दिन-दिन भर मारे-मारे घूमते इन फेरीवालों को तुरन्त पैसा न देकर बदरंग लौटा देना मुझे महाअपराध करने जैसा लगा था। बारह सौ रुपये की साडी बेचकर जो चमक उसके चेहरे पर आई थी उसे मैं पैसा न देकर पोंछना नहीं चाहती थी।

                                               

मैं पति का इन्तज़ार करने लगी। साड़ियों के रंग डिजाइन आदि के बारे में पति की राय जानना चाहती थी। अपनी खुशी में उन्हें शामिल करना चाहती थी। किन्तु शाम को जब पति आफिस से आये तब छलक-छलक पडती अपनी उस खुशी को उनके साथ न बाँट सकी। डर गई। अपनी इच्छाओं का गला घोट-घोट कर मैं पति की नज़रों में सादा जीवन उच्चविचार वाली श्रेष्ठ छवि बना चुकी थी । अब साड़ियाँ दिखाकर कहीं उस छवि को खण्डित न कर दूँ। पति कहीं मुझे साडी, बिन्दी चूडी तक सीमित रहने वाली निहायत सामान्य महिलाओं की श्रेणी में लाकर न खडा कर दें । इसलिए चुप रह गई। मन ही मन बडी कोफ्त हुई। चुरा-चुरा कर ली गई खुशी किस काम की ? मैंने तय कर लिया कि अब कभी किसी फेरीवाले से कुछ नहीं लूँगी। अगर लूँगी भी तो घरेलू उपयोग की चीजें लूँगी, साडी नहीं।

                                               

ट्रीन... टन्न। लो आज फिर बज गई घण्टी । दोपहर के बारह बज रहे हैं, कहीं कोई फेरीवाला ही न हो। मैं आशंकित हूँ- अब शाम चार बजे तक चलता रहेगा इनके आने का सिलसिला। कभी हमारे घर की सेहत के प्रति सजग एक्वागार्ड की वकालत करता कोई, तो कभी घर को कीटाणु रहित करता वैक्यूम-क्लीनर लिए हमारे दरवाजे पर खडा कोई, तो कभी साडी एवं वेडसीट्स आदि लेकर हमें और हमारे घर को सजाता कोई। किस-किस से बचूँ ? बाजारवाद के इस युग में व्यापारियों में बढी इस प्रतिस्पर्धा का प्रभाव घर में सतुष्ट बैठी हम महिलाओं पर भी पड रहा है। सामान अच्छा एवं उपयोगी है तो उसे न खरीद सकने की अपनी क्षमता पर भी कोफ्त होती है और अपने पास कम पैसा होने का एहसास अधिक गहरा जाता है, जिससे स्वयं को ही अपना व्यक्तित्व बौना जान पडता है।

                                               

मैंने उठकर दरवाजा खोल दिया। सामने बाइस से पचीस साल का एक लडका, आत्मविश्वास से लबालब भरा हुआ, मुझे देखते ही झुककर अभिवादन किया। मैं उससे कुछ पूछती उसके पहले ही वह बोल पडा,

"बधाई हो मैम, आप बडी किस्मत वाली है।"

मैं आश्चर्य से उसे देखने लगी यह कौन-सा शुभ समाचार लेकर आया है। किसी ज्योतिषी या साधु-सन्त जैसा भी तो नहीं दिख रहा है कि मेरा भविष्य पढ लिया हो। वह बोल रहा है,

"आपका घर हमारी गणना में तीसरा घर निकला। हर तीसरे घर को हम, यानी हमारी कम्पनी दो सौ पचास रुपये का गिफ्ट आइटम दे रही है। आप उस गिफ्ट आइटम को पाने वाली सौभाग्यशाली महिला हैं।"

मुझे लगा, वह अब तुरन्त गिफ्ट आइटम निकाल कर मुझे पकडा देगा। खुद के सौभाग्यशाली होने की एक हल्की-सी खुशी मन में तैर गई। उसने एक पैकेट निकालते हुए आगे कहना शुरू किया,

"ये देखिए हमारी कम्पनी का यह प्रोडेक्ट जो बाज़ार में साढे सात सौ रुपये का है, वह आपको मात्र पाँच सौ रुपये का मिल जायेगा, और इसके साथ यह ‘नाइफ सेट, जिसकी कीमत बाज़ार में ढाई सौ रुपये है, आपको इस सेट को खरीदने के बाद गिफ्ट में दे दिया जायेगा।"

                                               

मैंने डिब्बे को ध्यान से देखा-स्टेनलेस स्टील के छोटे-बडे सभी तरह के लगभग दो दर्जन चम्मचों का सेट। रंग-बिरंगे प्लास्टिक कोटेड हैंडल। यूँ तो अब मुझे समझ में आ गया कि यह व्यक्ति ढाई सौ रुपये के गिफ्ट की बात करके सीधा हमें बेवकूफ बना रहा है। सामान बेचने का यह इसका नया तरीका है। किन्तु मेरा ग्राहक मन इन चमचमाते चम्मचों को देखकर लडखडाने लगा । सही तो कह रहा है यह। बाज़ार में पाँच सौ रुपये में तो कभी भी नहीं मिलेंगे इतने चम्मच। अगर मिल भी जाएँ तो भी बाज़ार जाने-आने में जो किराया और समय खर्च होता है उसकी तुलना में तो घर बैठे ये चम्मच सस्ते ही पड रहे हैं| उसे मेरी दुविधा समझ में आ गई। बोला-

'मैम, मना मत करिए। घर आये ऑफर को ठुकराना समझदारी नहीं है.....एक सेट रख लीजिए.... सिर्फ पाँच सौ रुपये में इतने चम्मच और ये नाइफसेट... घाटे का सौदा नहीं है मैंम |"

"लेकिन मुझे..."

"नहीं मैम, आप जरा सोचिए... वैसे मेरे पास इसके अलावा भी बहुत-सी उपयोगी चीजें हैं, पर गिफ्ट इसी पर है इसलिए मैंने पहले इसे ही दिखाया। अब लीजिए, दूसरे आइटम भी दिखाता हूँ।"

वह अपना बैग खोलने लगा। मैं घबरा गई। कहीं आज फिर न पैसे पर चूना लग जाए। मैंने पूरी ताकत से अपनी नकार दर्ज की-

"मुझे कुछ भी नहीं लेना है। तुम यहाँ से जाओ|"

"देख तो लीजिए, लेना न लेना तो बाद की बात है।.... देखने में क्या लगता है मैम|"

"नहीं, मेरे पास अभी समय भी नहीं है... तुम समझते क्यों नहीं ? मुझे कुछ नही लेना है। प्लीज जाओ।"

- कहते हुए मैं दरवाजा बन्द करने लगी।

                                               

"प्लीज मैम, दरवाजा मत बन्द करिए... बस पाँच मिनट, पाँच मिनट दे दीजिए बस। देखिए आज दिन भर में कम से कम ऐसे पाँच सेट बेंचने हैं मुझे। सब कमीशन का मामला है, प्लीज मैम, मना मत करिए... जो दूसरी चीजें मेरे पास हैं वे इस स्पून सेट से अधिक अच्छी हैं। यह मेरी रोजी है, इसलिए आपके पीछे पड रहा हूँ... दरअसल इन दिनों पैसे की सख्त जरूरत है मुझे|"

उसके चेहरे का आत्मविश्वास डगमगाने लगा तथा आवाज दयनीय हो गई- मैं कुछ द्रवित होने लगी। बेचारे ये श्रम साधक, दिन भर इस दरवाजे से उस दरवाजे तक भटकते हुए, मिन्नतें करते हुए, झिडकियाँ खाते हुए- बस दो पैसा कमाने की ही खातिर तो- मेरे मन में उथल-पुथल मची है। लडके का मासूम-सा चेहरा मुझे चम्मचों को लेने के लिए बाध्य कर रहा है।

                                               

सहसा मैं चौंकी- अभी एक महीने पहले वह बारह-तेरह साल का लडका मुझे, मेरी इसी कमजोरी के कारण ठग गया था। फिनायल बेचने आया था। कह रहा था कि अपनी पढाई जारी रखना चाहता हूँ इसलिए अगली कक्षा की किताबों के लिए फिनायल बेंच कर पैसे इकट्ठा कर रहा हूँ। विपरीत परिस्थितियों में भी पढने की उसकी ललक ने मुझे द्रवित कर दिया था। मैंने सोचा, आखिर तो घर में फिनायल लगता ही है, क्यों न इसी से खरीद लिया जाये। चालीस रुपये में एक बोतल खरीद लिया था मैंने। लडका खुश हुआ। पैसे लेकर नीचे उतर गया। घर में पति मौजूद थे। उन्होंने पूछा तो मैंने उस फिनायल का दाम और लडके की मजबूरी दोनों बता दी। सुनकर पति मुस्कराये-

"पन्द्रह रुपये की बोतल तुम्हें चालीस में थमा गया है वह।"

पति की बातें सुनकर मेरे चेहरे का रंग उड गया। बित्ता भर का लडका इतनी चालाकी ! मैं झट बालकनी में आई । लडका नीचे उतर कर कैम्पस से बाहर निकलने के लिए गेट खोल रहा था। मैंने उसे आवाज देकर ऊपर बुलाया और पूछा,

"तुम्हें एक बोतल फिनायल बेंच लेने पर कितना कमीशन मिलता है ?"

न जाने मेरा प्रश्न अधिक धारदार था या मेरे चेहरे को पढ लेने की उसकी दृष्टि अधिक सशक्त थी, वह मेरे इस प्रश्न का कारण समझ गया तथा रुआसी आवाज में जवाब दिया - "पाँच रुपये|"

मैंने उससे चालीस रुपये में से पाँच रुपये काट कर पैंतीस रुपये लौटाने को कहा तथा फिनायल की बोतल भी उसे लौटा दी। वह सहमा-सा फिनायल की बोतल पकड लिया। मैंने अपना रोष व्यक्त किया-

"तुम पढाई के नाम पर बेईमानी करते हो ? अभी से इतना झूठ ? मुझे तुम्हारा फिनायल नहीं लेना है। पाँच रुपये तो मैं इसलिए तुम्हें दे दे रही हूँ कि तुमने मुझसे पुस्तक खरीदने की बात कर दी थी।"

                                               

दूसरी घटना जो मेरे साथ घटी उसने तो मेरी संवेदना को पूरा का पूरा ठग लिया था। हुआ यूँ कि एक दिन सुबह ग्यारह बजे के करीब, दो लडके, जो दिखने में सभ्य, सुसंस्कृत लग रहे थे, मेरे घर का दरवाजा खटखटाए। जब मैंने दरवाजा खोला तो उनमें से एक ने बडी दु:ख भरी आवाज़ में मुझसे कहा,

"दीदी, मेरी बुआ के लडके की किडनी खराब हो गई है। वह मुम्बई में इलाज के लिए एडमिट है। पन्द्रह दिन बाद किडनी का ट्रान्सप्लान्टेशन होगा। ढाई से तीन लाख रुपये की व्यवस्था हम नाते-रिश्तेदारों ने मिलकर कर ली है। बाकी पैसों की व्यवस्था के लिए हम घूम-घूम कर चन्दा माँग कर इकट्ठा कर रहे हैं। यह देखिए इस फाइल में सारी रिपोर्ट है और इस रजिस्टर में दान दाताओं के नाम।"

                                               

उसने हाथ आगे बढाकर मुझे रजिस्टर पकडा दिया। मैं फाइल और रजिस्टर के हर पन्ने को उलट रही थी पर मुझे वहाँ किसी प्रकार की डाक्टरी रिपोर्ट की बजाय अपनी माँ का चेहरा नजर आ रहा था। तेरह साल पहले किडनी खराब होने से ही माँ हमें छोड गर्इं थीं। किडनी खराब होना कोई मामूली बीमारी नहीं होती। मैं काँप गई थी। तेहर साल पहले जैसे काँपी थी ठीक वैसे ही बल्कि उससे अधिक। मैंने रजिस्टर और फाइल उन लडकों को लौटा दिया तथा अपनी ओर से मरीज़ के इलाज में मदद के लिए दो सौ इक्यावन रुपये की छोटी-सी धनराशि उन्हें थमा दी। इस बीच वे दोनों लडके अपना पता भी लिखकर मुझे दे दिये। जाते-जाते उन्होंने इतना और कह दिया कि आपके घर में केबल कनेक्शन हो तो परसों टी.वी. पर देखियेगा। शाम को साढे सात बजे स्थानीय चैनल से यह ख़बर प्रसारित की जायेगी... टी.वी. में देखकर शायद कुछ और हाथ मदद के लिए आगे बढे। मेरे लिए उन्होंने शंका की कोई गुंजाइश नहीं छोडीं थी। किडनी की बीमारी सुन कर मेरे मन में शंका, कुशंका आ भी नहीं सकती थी। मेरा दिमाग कुन्द हो गया। दिल में भाव ऐसे झरने लगे कि अगर मेरी आर्थिक स्थिति मजबूत रही होती तब मैं एक मोटी रकम उन लडकों को दे डाली होती। इतनी बडी बीमारी के इलाज में अपने इस तुच्छ सहयोग से व्यथित मेरा मन एकदम सुन्न हो गया जब शाम को मैंने सुना कि वे दोनों ठग थे। शहर में कई अन्य लोगों को भी उन्होंने ठग लिया था।

                                               

मैं हतप्रभ, मन में बसे उन दोनों लडकों के चेहरे को किसी ठग से जोडने का प्रयास करने लगी किन्तु मेरा मन यह मानने को तैयार नहीं था कि वे पढे-लिखे, सभ्य से दिखने वाले लडके अपने सगे सम्बन्धी के मौत का डर बता कर भिखमंगों की तरह हमें ठग लेंगे। जब तक यह खबर पूरे शहर में फैलती, वे दोनों शहर छोडकर चम्पत हो गये थे। बस, तब से खटका-सा बैठ गया है मन में। चन्दा आदि मागने वाले तो दूर, घर-घर घूमकर प्रोडक्ट बेचने वालों के लिए भी मैं दरवाजा नहीं खोलती थी।

                                               

पर ये चमचमाते चम्मच ! अभी चार दिन पहले की ही तो बात है, मैं पति के साथ उनके एक मित्र के घर रात्रि भोजन पर गर्इं थी। चम्मचों का ऐसा ही सेट उनके डायनिंग टेबल पर सजा था। खाने के एवं परोसने के। सभी एक से बढकर एक। मुझे लुभाते हुए... मुझे कुढाते हुए।

                                               

अपनी तमाम नकार के बाद भी दरवाजे पर खुद आकर खडे उन चमचमाते चम्मचों के प्रति मेरा आकर्षण बढता गया। सेल्समेन का आग्रह जारी है-मैं चम्मचों को उठाकर बार-बार उन्हें देखती हूँ और खरीद लेती हूँ। नाइफ सेट मुझे गिफ्ट में मिल जाता है।

                                               

अब वह लडका मुझे दूसरी बहु उपयोगी चीजें दिखा रहा है- डबल प्लेट का जालीदार तवा, जिस पर पापड आसानी से सेंका जा सकता है और गैस चूल्हे पर दूध गरम करते समय पहले यदि यह तवा रख दिया जाए फिर उसके ऊपर दूध का भगोना रखा जाए तब दूध उफन कर चूल्हे पर नहीं फैलता... कीमत मात्र पचास रुपये। मैं एक-एक सामान देखती जा रही हूँ और महसूस कर रही हूँ कि मुझमें संग्रह की प्रवृत्ति जन्म ले रही है या शायद पहले से ही थी, जिसे आर्थिक दबाव ने अब तक दबाया था। नित नवीन साड़ियों को खरीदने के प्रति विरक्ति या आधुनिक सुविधा देने वाले इन सामानों को दरवाजा बन्द कर-करके पीछे घकेलते हुए मैं इनको बटोरने की ख्वाहिश शायद बडी शिद्दत से रखती थी तभी तो आज मैं इन सामानों को देख मुग्ध हो रही हूँ।

                                              

इस तवे को लेलूँ तो मेरी मुश्किल आसान हो जायेगी। आये दिन मुझे चूल्हे पर दूध फैलने की समस्या का सामना करना पडता है.... तनिक किसी दूसरे काम में लगो कि दूध चूल्हे पर फैला ही मिलता है। नुकसान तो होता ही है साफ-सफाई का झंझट अलग से बढ जाता है।... मैं तवा भी खरीद लेती हूँ। लडका कह रहा है-

‘‘मैम, इस तवे को खरीद कर आपने बडी समझदारी दिखाई है। इसमें आपने पैसा खर्च नहीं किया है बल्कि पैसा बचाया है।.. बैगन तो इस पर ऐसा भुनता है कि बस भुरता खाने का मजा ही आ जाए... अब मैं आपकी पसन्द समझ गया हूँ..देखिये अब एक बहुत उपयोगी चीज़ आपको दिखा रहा हूँ।“

नहीं-नहीं मुझे अब कुछ नहीं लेना है। बस, इतना बहुत हो गया। मैं उसे रोकने का प्रयास करती हूँ।

‘‘कोई बात नहीं, मत लीजिएगा, अब पूरा सामान खोल ही दिया हूँ तो देख तो लीजिए |"

नहीं मुझे अब.... मैं अपना वाक्य पूरा कर पाती उससे पहले ही वह बैग से एक पैकेट निकालकर उसे खोलने लगा देखिए मैम, यह इमरजेंसी लाइट है,... आप इससे रेडियो भी सुन सकती हैं तथा टार्च की तरह भी इस्तेमाल कर सकती है। इसमें एक छोटा-सा पंखा भी है और विशेष बात यह कि आकार में छोटा है, इसलिए इसे कहीं भी रखा जा सकता है।

                                               

मैं इमरजेंसी लाइट को हाथ में ले लेती हूँ... आजकल रोज ही लोडशेडिंग होती है। हर काम तो हो जाता है किन्तु बेटे की पढाई में खासा व्यवधान पडता है। इनवरटर खरीदने में तो सत्रह से बीस हजार का खर्च है.... अपनी सोच से पूरी तरह बाहर, किन्तु यह मेरी पहुँच में है तथा बेटे के लिए बहुत जरूरी भी है। मैंने बडे बेमन से इमरजेन्सी लाइट को हाथ में पकडा था किन्तु अब वापस सेल्समेन को देने का मन नहीं हो रहा था। इमरजेन्सी लाइट ने मेरे अँधेरे दिमाग में प्रकाश फैला दिया था जिसमें उसकी उपयोगिता दिख रही थी अपना पर्स नहीं।

                                               

सेल्समेन का बोलना जारी है-

"सोचिए मत मैम, ले लीजिये । बाज़ार में इसकी कींमत लगभग पाँच सौ रुपये अधिक है। यह मँहगा आइटम है इसलिए सबको नहीं दिखाता हूँ.. महिलाएँ साडी खरीदना अधिक पसन्द करती हैं इन चीजों को तो फालतू समझती हैं। आप समझदार हैं। आपको इसकी उपयोगिता का ज्ञान है इसलिए आप से कह रहा हूँ। ले लीजिये|"

                                               

मैं उसकी बातों से सम्मोहित हो रही हूँ। ऐसी उपयोगी चीजें तो मेरे घर में हैं ही नहीं, ले लेना चाहिए। बडे संकोच में, दबी जुबान से मैं उससे उधार की बात करती हूँ किन्तु वह उधार देने में असमर्थ है। इमरजेन्सी लाइट मेरे दिमाग में छा गई है। मैं नगद पैसा देकर उसे खरीद लेती हूँ। आश्वस्त हूँ, अब घर में कभी अँधेरा नहीं रहेगा।

                                               

कई अन्य बहुउपयोगी चीजें सेल्समेन के पास है, किन्तु अब मैंने पूरी ताकत से अपना हाथ खडा कर लिया। वह भी अब सन्तुष्ट हो चुका है- एक ही दरवाजे पर कई सामान बेच लेने की खुशी से सराबोर वह अपना बैग कन्धे पर लटका अगले दरवाजे की ओर बढ जाता है।

                                               

अब मैं उन निहायत उपयोगी सामानों को सावधानी से समेट कर रख देने का सोच ही रही थी कि मेरा बेटा घर में प्रवेश किया। मैंने उत्साहित होकर उसे उस इमरजेन्सी लाइट के बारे में बताया। वह बडी लापरवाही से एक सरसरी निगाह उस पर डाल, बैठ गया। इमरजेन्सी लाइट खरीद कर मैं जिस खुशी एवं उत्साह में सराबोर थी वह बेटे की बेरुखी से कुछ कम हो गई । मैं उससे कुछ कहती उसके पहले ही वह बोल पडा,

"मम्मी, मुझे एस.सी.वर्मा तथा ओ.पी.टंडन खरीदना है। कल मुझे साढे नौ सौ रुपये दे दीजिएगा।"

"साढे नौ सौ ?"

"हाँ, ओ.पी. टंडन पाँच सौ अठारह की है तथा एस.सी.वर्मा चार सौ रुपये की है... मुझे पेन, रिफिल आदि भी खरीदना है|"

"यह किसी पुस्तक का नाम है ?... इन्सान के नाम-जैसा लग रहा है|"

"पुस्तक का नहीं लेखक का नाम है। ओ पी टंडन केमेस्ट्री के हैं तथा एस.सी.वर्मा फिजिक्स के|"

वह मेरी अज्ञानता पर झुंझलाता है। मैं भी कुढती हूँ-

"तो ऐसे लिया जाता है लेखकों का नाम...? अरे, कहना चाहिए कि मुझे ओ.पी.टंडन द्वारा लिखी केमेस्ट्री की तथा एस.सी. वर्मा द्वारा लिखी फिजिक्स की पुस्तक खरीदनी है|"

पैसे का दबाव झुझलाहट बन कर बेटे पर उतर रहा है। बेटा मेरी नसीहत को नज़रअन्दाज कर दूसरे कमरे में चला जाता है। मैं बडबडाती हूँ, आजकल के लडके लेखकों का सम्मान करना भी नहीं जानते... उन्हें वस्तु समझ बैठे हैं... मेरे भीतर झरता अखण्ड आनन्द का स्रोत अब थम-सा गया है। साढे नौ सौ रुपये ! पढाई का मामला है देना ही पडेगा।... सोफे पर पडी इमरजेन्सी लाइट और चमचमाते चम्मच मुझे चिढा रहे हैं। यूँ सामानों की चमक अभी तनिक भी धूमिल नहीं हुई है किन्तु मेरे मन की खुशी अब धुल चुकी है। दो दिन से घर बैठे वस्तुओं को खरीद-खरीद कर जो सन्तुष्टि मैंने पाई थी वह मेरे लिए सर्वथा नई थी। अर्थशास्त्र में पढे गये तुष्टिगुण के सिद्धान्त को पहली बार महसूस किया था मैंने। ऐसा लगा था मानों ये सामान खरीदते ही मेरे भीतर का खालीपन भर जायेगा और मैं एकदम छलाँग लगा कर अमीरों की श्रेणी में खडी हो जाऊँगी। लेकिन, पर्स का छोटा साइज सब कुछ नहीं खरीद सकता। खरीद भी ले तो बिना मन को सन्तुष्टि दिये ही तृष्टिगुण का ग्राफ नीचे खिसकने लगता है।

कुछ क्षण सरका फिर सुनाई दी बेटे की चिडचिडाती आवाज,

"अभी तक आप कुछ बनाई भी नहीं है, मुझे कितनी भूख लगी है|"

मैं कुढते हुए, बेमन से कमरे में फैले सामान को समेटती हूँ। पर्स खोलकर पैसे गिनती हूँ और हिसाब लगाती हूँ कि महीना बीतने में अभी कितने दिन शेष हैं।

          

           


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