निवाला
निवाला
सबको खाना खिलाते खिलाते दो बज गये। आज कुछ ज्यादा ही देर हो गई, पेट और पीठ एक हो रहे थे। उसे बचपन से ही नाश्ता करने की आदत नहीं थी। रेखा ने पहला निवाला मुँह में डाला पर गले से नीचे ही नहीं उतर रहा था। रोज की तरह सभी खाना खा कर आराम करने चले गए। किसी ने उससे खाने के बारे में पूछा ही नहीं।
आज उसे माँ बहुत याद आ रही थी। पहली रोटी लगते ही माँ उसे खाने के लिए आवाज देतीऔर वह उनकी गरमागरम रोटियों से तृप्त हो जाती।
भाई कई बार माँ से झगड़ता, "तुम रेखा को हमेशा पहले रोटी देती हो मुझे बाद में।
"बेटा, तुझे तो जिन्दगी भर गर्म रोटी मिलेगी, पर इसे कुछ ही दिन, फिर तो यह दूसरों को गर्म रोटी खिलायेगी।"
"मैं खुद ही गर्म रोटी बनाकर खाऊँगी।" माँ मुस्कुरा देती मेरी बात पर।
वैसे ससुराल में खाने पर कोई रोक टोक नहीं थी पर माँ के संस्कार थे सबको खिलाकर खाने के।
थाली एक ओर खिसकाकर माँ को फोन लगाया।
"कैसी हो बेटा ?"
"ठीक हूँ माँ।"
"खाना खाया।"
ये सुनते ही आँखें भर आई रुलाई रोकते हुए, "हाँ खा लिया।"
"माँ हूँ तेरी, आवाज पहचानती हूँ, जा पहले खाना खा ले।"
"खा लूँगी। पहले बात तो कर लूँ।"
"अभी न तू बात कर पायेगी और न मैं। पहले खाना खा।"
अब निवाला गले से फटाफट उतरने लगा।