पल भर का साथ
पल भर का साथ
ये तब की बात है जब हम स्कूल की ओर से पिकनिक मनाने जा रहे थे। लड़कियों की बस जा चुकी थी और लड़कों के बस ने भी होर्न दे दिया था। तब ही एक लड़की की अवाज़ आती है।
वो लेट हो गई थी शायद, तो हमारे सर ने उसे हमारे ही बस में बुला लिया और इत्तेफाक तो तब हुई जब उसने पूरी बस छोड़ मेरी पास वाली सीट चुनी। खुले बाल, शरारती आँखे और थोड़ी मासूम सी थी वो और तब मैंने अपना हाल कुछ यूँ बयां किया-
उसकी आँखें गज़ल की किताब सी लगी मुझे,
उसके वो होठ पुरानी शराब से लगे मुझे,
उसके बाल लहराती चिनाब हो मानो,
वो पास बैठी यूँ जैसे कोई ख्वाब हो मानो।
मैं मंद-मंद मुसकाया था, वो पास बैठी तो न जाने क्यों धड़कन को सुकून आया था। कुछ वक्त तो गुमसुम, चुपचाप सी बैठी रही, तन्हाई में कुछ लम्हे काटने के बाद खामोशी से उबकर न जाने क्या-क्या कहती रही।
प्लीज क्या मैं खिड़की वाली सीट पर बैठ सकती हूँ।
शायद ही इतनी खुबसूरती से किसी ने मुझसे कुछ माँगा होगा। उसे मना करने की न तो कोई गुंजाइश थी और न ही मुझमें हिम्मत। उसे मेरे पास बैठा देख मेरे मन में भी जैसे खुशी की घटाएँ बरसने लगी हो। लहराती उसकी जुल्फ हवाओं से कुछ यूँ गुफ्तगू कर रही थी जैसे उसे अब किसी की जरूरत ही नहीं और हवाओं को भी उसका हमसफर मिल गया हो।
वो उसका चेहरे से बाल हटाते हुए कान के पीछे ले जाना और ठंडी हवा में उसके पलकें का हल्के से बंद हो जाना।
मेरा दिल तो बस इसी बात की गवाही चाहता था कि क्या मैं सपना तो नहीं देख रहा, ये कोई मिराज तो नहीं, मेरे लिए ही बुना हुआ कोई राज़ तो नहीं।
और यूँ ही हसीन मंज़र के बाद हम अपनी मंज़िल पर पहुँचे। दिल दुखी था कि अब उसे वापस गर्लस ग्रुप में जाना होगा। इसे मेरी बदनसीबी कहूँ या पागलपन, तीन घंंटे के सफर के बाद भी मैं उसका नाम ही नहीं पूछ पाया। फेसबुक भी छान मारी और कुछ दोस्तों से भी पता किया पर कुछ खास फायदा नहीं हुआ।
उदास बदहवास वापस लौटने की बारी आई। बस में सब अपने थे पर मानों जैसे किसी एक की कमी खल रही हो। थोड़ी और मशक्कत के बाद उस हसीन चाँद का नाम जान पाया। मैनें तुरंत उसे मैसेज किया, 'हैलो' पर वो शायद अनजान थी मेरे संदेशो से।
अंदर से कुछ चीख आने लगी थी मेरी कि काश मैंने उससे कुछ बात कर ली होती।
कही बाहर मिलने की प्लानिंग उसके साथ कर ली होती।
तो आज यूँ पछताना न पड़ता,
उसे पाने का ख्याल यूँ गँवाना न पड़ता।पर उसका चेहरा मानों मेरी नज़रों से ओझल होना ही नहीं चाहता था। तब भी दिल के किसी कोने में उसकी याद लिए मैं अपने घर की ओर बढ़ चला। रात में बिस्तर पर लेटे-लेटे ही ठानी कि सुबह होते ही बनाऊँगा अपनी नई प्रेम कहानी। सूरज के भी निकलने से पहले मैं घर से निकल गया। रास्ते में चलते-चलते चाँद भी ढल गया।
उसके घर के बाहर कुछ भीड़ जमी सी थी, दिल भारी हो रहा था मेरा और वहाँ किसी की कमी सी थी।
एक जनाजे में लिपटा शरीर मानों मेरी ही राह देख रहा था, और वो भेड़िये न जाने कब से उसे देख अपनी आँखे सेंक रहा था।
सोचा था मैनें कि बताऊँगा उसे कि मेरे दिल में बस एक वही बसती थी।
उन दरिंदों ने उसकी आबरू छीन बड़ी बेरहमी से मार दिया उसे, क्या उसकी जान इतनी सस्ती थी ?
सोचा था कि गर वो नहीं मानी तो उसके एक इंकार से मुझे रातों को चैन की नींद तो आएगी,
पर क्या पता था कि बस वो तीन घंंटे पास बैठने का असर इतना गहरा होगा कि अब वो उम्र भर रुलाएगी।
रुह काँपी थी मेरी उसे जनाजे पर लेटा देख,
अंदर से टूट गया था मैं उसे बिन पाए ही खोता देख।
अब जब भी बात करने का मन होता उससे, तो दिल करता खुदा के पते पर उसे खत हज़ार लिखूँ।
वो अब रही नहीं तो क्या हुआ,
पहली मुलाकात वाली बस खरीद लाया मैं, ताकि उसी सीट पर बैठ उसके एहसासों के साथ कुछ पल गुज़ार सकूँ।