@पटेल चेस्ट
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वो जब दिल्ली आया तो सीधे रेलवे स्टेशन से 901 नंबर की बस में ठूंस कर कैंप उतर गया। दोस्तों ने बताया था कि क्रिश्चियन कॉलोनी में, सस्ते में कमरे मिल जाते हैं। खाने पीने की भी दिक्कत नहीं होती। बस एक एयर बैग, कुछ किताबें और एक पानी बोतल लेकर मामू चाय दुकान पर बैठा नरेंद्र का इंतजार कर रहा था। आंखें मीचते हुए सुबह के आठ बजे मामू की चाय दुकान पर दोनों मिले। हाथ में सिगरेट और चाय के साथ आगे कहां रहना है, कहां दाखिला लेना है की योजनाएं बनीं और प्रकाश नरेंद्र के साथ उसके कमरे पर चला गया। यार! इस कमरे में रहतो हो? कैसे रह लेते हो? इतना अंधेरा, दम घोंटू हवा। नरेंद्र चुपचाप सुन रहा था। उसने कहा, पास में हडसन लेन है, वहां रह लो। कमरे खुले खुले हैं। किराया यही कोई दस से पंद्रह हजार। अब प्रकाश की आंखें चौंधिया गईं। इतना तो नहीं दे हो पाएगा।
क्रिश्चियन कॉलोनी के गेट के अंदर एक नई दुनिया में प्रकाश का प्रवेश हुआ। जहां हर घर में हर मकान में एक छोटा ढाबा और एक छोटी चाय की दुकान चला करती है। गेट के अंदर घुसते ही एक आंख भी रहा करती है जिसकी दुकान पर अकसर भीड़ रहती है। दूध, चाय, सिगरेट आदि मिल जाया करती है। नए नए आने वाले लड़के अकसर उसी की दुकान पर भिन्न्- भिनाया करते हैं। उसे भी मालूम है लड़के क्यों उसकी दुकान में आते हैं। इसे बहाने बिक्री भी हो ही जाया करती है। प्रकाश उसी दुकान में आने जाने लगा। कॉलेज में दाखिला हो चुका। रात से लेकर सुबह आंख खुलते ही उसकी दुकान पर मिला करता। धीरे-धीरे उसकी दोस्ती सी हो गई। उस आंख से। हालांकि उस आंख में दोस्ती का कोई खास मायने तो था नहीं। इसलिए उसके लिए कोई नई बात नहीं थी। नरेंद्र को लगा प्रकाश कुछ ठीक नहीं चल रहा। इसलिए समझाने की कोशिश। मगर प्रकाश को उसका प्रवचन बहुत खला। तुम तो कुछ कर नहीं पाए। इस उम्र में भी तैयारी में लगे हो। न परीक्षा पास की और न किसी की आंख में बस पाए। सीधे क्यों नहीं कहते जल रहे हो।
...और प्रकाश ने कॉलोनी ही छोड़ दी। आ गए साहब ए-5 में। किराया दो सौ ज्यादा था लेकिन एक खुलापन था। मेन रोड, चारों ओर चहलपहल। नरेंद्र की चौकीदारी से भी निजात मिल गई। साल ही गुजरे होंगे कि उन आंखों में प्यार तो क्या होना था, हां रजामंदी जरूर हो गई थी। अब वो उसके कमरे में आने लगी थी। कमरे में आने लगी थी मतलब कॉलेज जाने लगी थी। समझ रहे होंगे। सुबह से शाम तक। सड़ी गरमी में भी दोनों कमरे में बंद रहते। दूसरे कमरे वाले आंखों ही आंखों में मजे लेते। कमरा क्या था, बस यूं समझ लें कि अपने कमरे में करवट लें तो उसकी अंगड़ाई दूसरे कमरे में सुनी जा सकती थी। तो उसके कमरे से भी आवाजें आने लगीं। जैसा कि दूसरे कमरों से आया करती थीं। दिन में तो लड़के कमरों की दीवार में कान लगा कर कमरे की कहानी देखा करते। अमूमन हर कमरे की अपनी कहानी थी। हर कमरा गुलजार था।
एक कमरे की कहानी कुछ और ही थी। रात रात भर तो कभी कभी दिन में भी रोने की आवाजें आया करती थीं। कभी लड़के की तो कभी लड़की की। सब के सब हैरान। यह क्या इस आवाज़ की कहान तो कुछ और ही इशारा कर रही है। लड़के बताते हैं कि लड़का कोई और नहीं प्रकाश था। यह दूसरा साल था। उस आंख के साथ अब कमरे में बंद होना और मौसमों से बेख़बर, शाम बाहर आना सभी के लिए अब आम बात थी। बस यदि आम घटना नहीं थी तो वह उस शाम कमरे से रोने और लगातार रोने की आवाज़।
शर्मा जी बताते हैं कि वह अपने घर का इकलौता लड़का था। लड़की को शादी वादी से कोई लेना देना नहीं था। लेकिन प्रकाश शादी पर अड़ा रहा। अंतिम दिनों में रोना गाना ही मचा करता। कमरे के बाहर कान लगाने वाले बताते हैं कि आनंद वाली आवाज़ खत्म हो गई थी। काफी समय से रोने की, सुबकने की ही आवाज़ आया करती थी। अब यह भी कोई सुनना है? सुनते तो तब थे जब मस्ती वाली आवाजें आया करती थीं। जैसे और कमरों से आया करती थी। गर्मी की छुट्टी के बाद प्रकाश आया ही था कि एक पत्रिका में एक ख़बर फोटो के साथ पढ़ा। वो आंख देहरादून में हाई प्रोफाइल रैकेट में रंगे हाथ पकड़ी गई। अब उसे काटो तो खून नहीं।
मामू की चाय दुकान वैसे ही लगी। उस सुबह भी मामू ने आमलेट बनाया चाय बनाई। वो रात दो बजे आमलेट और चाय के पैसे उधार कर कमरे में वापस चला गया। मामू बताता है कि सुबह उसके कमरे के बाहर मजमा लगा था। हालांकि एक गलियारा ही था। जहां लोग ठूंसे हुए थे। किसी को भी भनक नहीं लगी कि उनके बगल के कमरे में आधी रात में कैसे आवाज़ आई। तकरीबन नौ दस का समय रहा होगा। कमरे का दरवाजा सटा था। कई आवाज़ देने के बाद भी जब कोई जवाब नहीं आया तब रूम नंबर 11 वाले ने अंदर जाने की हिम्मत की।
आंखें बंद। घड़ी बस चल रही थी। नब्ज का पता नहीं चल पाया। आनन-फानन में बड़ा हिन्दूराव ले जाया गया जहां उसे डॉक्टरों ने मृत का ठप्पा लगा दिया। घर वाले आए। मां आई। बाप आया। बस नहीं मिला उन्हें उनका प्रकाश। पीछे एक अंधेरा छोड़ कर जा चुका था उस आंख के पीछे।
सपने तो थे ही प्रकाश के। कहता था कि लाल बत्ती लिए बिना वापस नहीं जाना। एक कोना था उसके पास भी जहां एक पनीलापन था। जहां वो आंख गड़ गई। जहां उसके सपने में एक पंख सा लगा। उड़ाने तो उसने भरी। लेकिन शायद उस सफर में अकेला था। उस आंख के लिए यह सब कोई नई चीज नहीं थी। सब कुछ जैसे पूर्व घटित घटना सी उसकी जिंदगी में घट सी रही थी। लेकिन प्रकाश! वो तो उसकी मुस्कान में ही अपने सपने को बेच आया। मामू बताता है कि कैसे वह चाय दुकान में लड़कों के बीच बहसें किया करता। सब के सब उसकी बात ध्यान से सुनते रहते। लगता कितना पढ़ा लिखा और समझदार है। लेकिन उसने यह कदम उठाकर सब को सन्न कर दिया।
जब प्रकाश आया तब नरेंद्र बताता है कि दोनों एक ही गांव के हैं। वह जरा अच्छे खानदान और पैसे वाला है। तब कंधे से कंधे नहीं टकराया करता था। क्रिश्चियन कॉलोनी में घर भी कम थे और रहने वाले सपने भी। खाना देना वाला पूरन और जोगेंदर के अलावा तीसरा कोई नहीं था। दो ही टेलिफोन बूथ हुआ करते थे। जहां शाम में भीड़ लग जाया करती थी। नरेंद्र और प्रकाश तभी से दूर होते चले गए जब से वो प्रकाश के करीब आई। नरेंद्र ने कई बार उससे बात करनी चाही। मगर प्रकाश झिड़क देता।
‘नरेंद्र माना कि तुम मेरे से पहले दिल्ली आए। लेकिन इसका अर्थ यह तो नहीं कि तुम्हारी आंखों से दुनिया देखूं।’
‘मेरी अपनी आंखें हैं। तर्जुबा है।’
‘तुम इतने ही काबिल थे तो अब तक स्टेट भी क्यों नहीं निकला?’
‘अपनी बबंगई आपने पास ही रखो।’
‘चूके हुए इंसान से मिल कर हताशा और निराशा ही होती है।’
नरेंद्र ने आपनी ओर से बातचीत का रास्ता हमेशा ही खुला रखा। लेकिन उसकी आंखो में बस एक ही आंख थी। और उसी आंख में डूब भी गया।
लोग बताते हैं, वो आज कल नए के साथ घूमा करती है। अचम्भा हुआ नरेंद्र को कि वो अंतिम समय में भी देखने नहीं आई। कहने वाले तो खूब बातें बना रहे थे। अब आ कर क्या करेगी? अब क्या मिलने वाला है। जो था सो चला गया।
सपनों का आना नहीं रूका। क्रिश्चियन गेट वहीं हैं। बजबजाती गलियां वहीं हैं। चाय की दुकानें वहीं हैं। फर्क सिर्फ यह आया है कि सपने खरीदने और बेचने का व्यापार बदल गया। कभी वे भी दिन हुआ करते थे कि कॉलोनी में एक लड़की दिखी नहीं कि लड़कों की आंखें पूरी ख़्वाब देख लिया करती थीं। अब तो हर घर में पराठें, हर कमरे में लड़कियां आया जाया करती हैं। कंधे से कंधा टकराना मुहावरा इस कॉलोनी में सच साबित होता है।