Prapanna Kaushlendra

Drama Tragedy

2.0  

Prapanna Kaushlendra

Drama Tragedy

नियोग

नियोग

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‘‘सृजन दिमाग तो कहता है कर लूं। लेकिन एक मन है जो मना कर रहा है।’’

‘‘एक मन कह रहा है और दिमाग कह रहा है कर लो तो कर लो। तुम कोई नया नहीं करने वाली। महाभारत में भी यह घटना घटी है।’’

‘‘सृजन प्लीज!!!’’

‘‘मैं कोई महाभारत की पात्र नहीं हूं और न ही मुझमें हिम्मत है वो सब करने का।’’

‘‘मेरी मानो इसमें कोई हर्ज़ नहीं।’’

‘‘हां यह अश्लील या अभद्र व्यवहार तब होता जब तुम मेरी गै़र जानकारी में करती।’’

‘‘जब मैं ख़ुद इसके लिए तैयार हूं और तुम्हें मौका दे रहा हूं फिर तुम्हें ज्यादा नहीं सोचना चाहिए।’’

‘‘सृजन यह तुम नहीं बल्कि तुम्हारा परिवार और यार दोस्त बोल रहे हैं।’’ 

‘‘प्रोग्रेसिव का मतलब यह नहीं जो तुम कह रहे हो।’’

‘‘लेकिन तुम्हें रात-रात भर नींद नहीं आती। रातों में उठकर बैठ जाती हो।’’

‘‘तुम्हें लोग सुनाते हैं तो तुम मुझे सुनाया करती हो।’’

‘‘मैंने तो कहा था कि और भी रास्ते हैं।’’

‘‘लेकिन मेरी मां जो है, उन्हें कबूल नहीं कि कोई और उनका पोता,पोती हो’’

‘‘पिछले साल इतने भाग-दौड़कर का़ग़ज़ के पेट भरे थे। चार सीएल लग गए तब जाकर एक उम्मीद जगी थी। लेकिन नहीं उन्हें तो बस...’’

‘‘ गुस्सा करने या उदास होने से समस्या का हल नहीं होगा बल्कि कुछ करना होगा।’’

धीरे से कथ्या ने कहा।

मगर सृजन कहीं और था। कथ्या की बातें कहीं हवा में टंगी रह गईं। 

‘‘सुन रहे हो!!!’’

‘‘तुम्हारा आइडिया मुझे नहीं क्लिक कर रहा है।’’

‘‘तुम्हारा दिगाम ख़राब हो गया है।’’

‘‘मैं बिल्कुल दुरुस्त हूं। और मेरा दिमाग भी।’’

‘‘मेरा मानना है कि नियोग प्रथा में क्या ख़राबी है।’’

‘‘यह सारा मामला हमारे बीच रहेगा। कोई अपरिचित और दूर का सर्च करूंगा।’’

‘‘सृजन मुझे अच्छा नहीं लग रहा है। तुम्हारी बातें किसी और दुनिया की लग रही है। कम से कम इस दुनिया की बातें तो कतई नहीं।’’

‘‘मैं कोई नई और अनूठी बात नहीं कह रहा हूं। मैं वही कह रहा हूं जो संभव है।’’

इन बातों का अंत ज़रा मुश्किल था। कई रातें कट गईं। आंसू भी खूब बहे। लेकिन सृजन और कथ्या के बीच सहमति बनने में काफी वक्त लगा। कथ्या को लगता सृजन का दिमाग ठीक नहीं। कहीं मनोरोगी तो नहीं हो गया। ऐसा कोई भी पति कैसे सोच सकता है। ठीक है कि मैंने ही कभी कहां था। लेकिन झुंझलाहट में कही बात कोई सच होती है? वह एक मानसिक तनाव में मैंने सृजन से कहा था।

 

‘‘अगर तुम से नहीं हो पाता तो मैं किसी और के साथ...’’

‘‘और उस बात को सृजन ने गांठ बांध ली। कितना प्यार करता है मुझसे।’’

‘‘तब सृजन इतना पोसेसिव था कि किसी से बात कर लूं या किसी के साथ घूमने चली जाउं तो आसमान सिर पर उठा लेता था। और आज वही सृजन है जो कह रहा है...’’

दोनों की मुलाकात भी इत्तेफाक ही कहना चाहिए। एक जलसा था। तीन दिन चलने वाला। वहीं सृजन आया था। बोलने के लिए सृजन को बुलाया गया था। कार्यक्रम के बाद दोनों के बीच बातचीत हुई। मालूम दोनों को ही नहीं था कि यह मुलाकात को कहां तक लेकर जाएंगे। फिर उनकी मुलाकात होगी या नहीं या भी तय नहीं था। 

लेकिन सृजन ने एक कदम आगे बढ़कर कहा था ‘‘आप अच्छी हो। आपके साथ यह तीन दिन काफी यादगार रहे।’’

‘‘देखते हैं! कितनी याद रहती हूं?’’ 

‘‘जाने के बाद कौन किसे याद करता है और कौन पूछता है?’’ 

यूं ही हंसी में कही कथ्या की बात पर सृजन गंभीर हो गया था। लेकिन कहा भर इतनी-सा 

‘‘ वक्त बताएगा।’’

देखते देखते तकरीबन पंद्रह दिन गुज़रे हांगे कि सृजन ने फोन लगा दिया।

‘‘ मैं...’’ 

गला सूख सा रहा था। लेकिन आवाज़ में वही अपनापे का भाव था। 

‘‘मैं कौन आगे तो बोलो कौन हो?’’

कथ्या ने यह वाक्य कह तो दिया फिर याद आया तो आवाज़ हो न हो सृजन की लगती है। कुछ देर सांसों पर नियंत्रण कर कहा

‘‘ अच्छा जी नाम बताने में इतना वक्त लगाते हो बात क्या करोगे।’’

‘‘कैसे याद कर लिया। याद आ गए हम?’’

सृजन की आवाज़ अब ठहरने लगी थी। इतनी सी बात करने में तकरीबन दस मिनट खर्च दिया। उधर मीटर दंदनाते हुए आगे भाग रहा था। 

जिसबात को कहने में आज के बच्चे मिनट भी नहीं लगाते उसे कहने में सृजन को शायद आधे घंटे से भी ज्यादा समय लगा। उसपर तब जब फोन कॉल काफी महंगी मानी जाती थी। आधे रेट पर कॉल करने अपने आप में बेहद बड़ी बात थी। अमूमन लोग एक तिहाई या चौथाई होने का इंतज़ार किया करते थे। रात नौ बजे के बाद भीड़ उमड़ती थी। 

सृजन को आज भी बोलने के लिया बुलाया गया था। वो भी क्या शो था प्रिय तेंदुलकर शो। कमरे पर लौटते सूचना मिली कि एक फोन आया था। 

बिना यह देखे समझे कि समय क्या है। फोन लगा दिया। कहने सुनने में आधे घंटे लगे। पैसा पूछिए मत। फोन बूथ वाला मुंह बाए देख रहा था। उसके हाथ में बारह सौ रुपए धर कर सृजन बूथ से बाहर आ गया। आज का खाना उसका हो गया था। खुश इतना था कि भूख भी नहीं लगी। 

...और फोन का सिलसिला निकल पड़ा। 

‘‘सुन नहीं रहे हो। तुम्हारा फोन बज रहा है।’’ कथ्या ने आवाज़ लगाई। 

स्क्रीन पर कोई नाम या नंबर नहीं आया। सो सृजन ने कॉल बैक किया। एक आवाज़ धीमी थी पर स्थिर सी थी। 

‘‘आपको एक ऐसे व्यक्ति की तलाश है न जो आपकी बीवी के साथ..’’

आवाज़ फोने के बाहर चहलकदमी कर रही थी। सो सृजन से वॉल्यूम कम कर दिया। 

‘‘क्या बात हुई? कौन था? क्यों फोन किया था?’’ कई सवालों की एक लंबी रेल लगाते हुए कथ्या ने पूछा।  

‘‘तुम्हें कितनी बार कहा तुम्हारा दिमाग ठिकाने नहीं है। ऐसा भी होता है?’’ 

‘‘तुमसे नहीं होता तो इसका यह मतलब तुमने यह कैसे निकाल लिया कि मैं किसी के साथ भी...’’

‘‘क्या फ़र्क पड़ता है। तुम सिर्फ यह बताओ तैयार हो?’’ सृजन ने बहुत ही संभली हुई आवाज़ में पूछा।

‘‘ठीक है कि मैंने कई बार कहा कि तुमसे नहीं होता। तुम नहीं कर सकते। तो मैं तो यूं ही नहीं बैठ सकती।’’

‘‘यह बात हमारे बीच रहेगी।’’

‘‘तीसरा वह व्यक्ति होगा जिसे सारी कहानी मालूम होगी।’’

कथ्या अपनी ही रफ्तार में बोले जा रही थी। 

सृजन चुप्प बस सुन रहा था। सुनने से ज्यादा मथ रहा था इन बातों के अंदर कितनी टीसें हैं। कितनी बेचैनी है। 

‘‘जब सेरोगेसी मदर हो सकती है तो सेरोगेसी फादर होने में क्या हर्ज है?’’

‘‘हां मैं भी तो यही कह रही हूं। लेकिन मुझे ख़ुद पर विश्वास नहीं हो रहा है। विश्वास तो यह भी करना कठिन है कि एक पति, प्रेमी कैसे यह सह सकता है कि उसकी प्रेमिका/पत्नी किसी और व्यक्ति के साथ..’’ 

कहते कहते कथ्या की आवाज़ भर गई। न केवल आवाज़ बल्कि उसकी आंखें भी लोर से डबडबा गईं। 

‘‘इतना मत सोचो मैं तुम्हारे साथ हूं। तुमपर कभी अविश्वास नहीं किया। कभी नहीं। यह मैं ही तो कह रहा हूं।’’

सृजन कह तो रहा था। लेकिन उसकी गंभीरता का शायद उसे अंदाज़ा नहीं था। कभी-कभी मज़ाक में अपनी मन की हलचल को प्रकट कर देता। 

 ‘‘अच्छा ये तो बताओ कैसा पसंद है तुम्हें? इंडोअमेरिकन या हिन्दुस्तानी? फिर किस देश का नागरिक चाहिए?’’

‘‘लंबा, गोरा, काला, मोटा, पतला कैसा हो?’’ 

‘‘कुछ तो अपनी पसंद बताओ?’’

‘‘हंसो मत हम पर। तुम्हें हंसी आ रही है?’’

‘‘शर्म आनी चाहिए।’’

‘‘कैसे आदमी हो तुम? किस मिट्टी के बने हो?’’

कथ्या अपनी खीझ, छल्लाहट और कई बार गुस्सा भी बेबाकी से उडेल देती। 

‘‘मेरा मकसद मज़ा लेना नहीं है।’’

‘‘और अगर तुम्हें मज़े का खेल लग रहा है तो मुझे अफसोस है कि मैंने तुमसे शादी की।’’ 

‘‘तुम्हें कोई फ़र्क नहीं पड़ता?’’

‘‘बिल्कुल भी फ़र्क नहीं पड़ेगा जब कोई मेरे साथ बिस्तर पर मुझसे...’’

‘‘पड़ेगा। पड़ेगा फ़र्क। क्यों नहीं पड़ेगा। लेकिन... लेकिन मैं रोज़ रोज़ एक ही मलाल को सीने में नहीं कोंच सकता।’’

कथ्या ने अपनी पूरी भाषायी समझ और कौशल का इस्तमाल करते हुए सृजन को ज़लील भी करना चाहा। चाहा कि सृजन अब भी अपने निर्णय से पीछे हट जाए। लेकिन कहीं न कहीं कथ्या के मन के किसी गहराई में यह चाह भी भी थी कि एक बार कर लेने में कोई हर्ज नहीं है। और कौन सा वो आनंद या काम की लालसा पूरी करने जा रही है। 

पढ़ा तो था कथ्या ने कि महाभारत में नियोग प्रथा के माध्यम से बच्चा पैदा किया गया था। यह अलग बात है कि उसमें तथाकथित देवता शामिल थे। लेकिन उसके साथ जो होगा या जिसके लिए वो मानसिक तौर पर तैयार हो रही है उसमें एक इनसान होगा। हाडमांस का बना। जिसके अंदर वासना भी होगी। और भोगने की तड़प भी। लेकिन मैं तो साफ कह दूंगी। वह एक बार की बात है। दुबारा सोचना भी मत। न सोचना और न पैदा हुए बच्चे पर अपना अधिकार जताना। सृजन कहता है उस कर्म में आनंद तो आएगा उसका क्या करोगी? क्या अपने शरीर को रोक सकेगी?

सृजन को मालूम होना चाहिए कि स्वेच्छा से और गैर इरादतन संपर्क में अंतर होता है। वह मेरा स्वेच्छा से नहीं बल्कि एक अनुबंध के तहत संबंध बनाना होगा। शरीर का क्या है उत्तेजना तो उसका स्वभाविक प्रकृति है। उससे मैं क्या दुनिया की कोई भी स्त्री शरीर बच नहीं सकता। शरीर के संपर्क से दूसरे शरीर में सिहरन और उत्तेजना को सहज मानूंगी। प्रतिउत्तर देना मेरे शरीर का काम है। मैं निर्लिप्त भाव से अपने उद्देश्य पर ध्यान रखूंगी। 

कम से कम महीने लगे कथ्या को ख़ुद को भी तैयार करने में। सृजन और कथ्या यूं तो साथ ही सोते थे। कभी कभी सृजन जानबूझकर चुहल करता। छेड़ता। बस कथ्या गुस्सा कर जाती। आधी रात तक लड़ाई चलती। 

वह लड़ाई दरअसल मनोभाविक संघर्ष का परिणाम था। उस संपर्क को न तो सृजन स्वीकार कर पा रहा था और न कथ्या ही। लेकिन एक सहमति बनी। एक कंटै्रक्ट हुआ। उसमें दोनों मौन थे। लेकिन एक समंदर था जो बार बार टकराता। टकराकर वापस लौट जाता। 

एक समंदर कथ्या के पास था। और एक पहाड़ सृजन के पास। कथ्या अपने समंदर से टकराती। उसके नमकीन स्वाद, गंध,दबाव को सहती। वहीं सृजन अपने पहाड़ से जूझता। पहाड़ पर खड़ा होकर सोचता जीवन ऐसे भी मोड़ पर ला कर निपट अकेला छोड़ती है। ऐसे कभी नहीं सोचा था। पहाड़ बार बार उसके सपने में आता। हर बार लगता वह कितनी गहराई में बिना किसी डोर से गिरे जा रहा है। वह कोई स्काई डाइविंग नहीं कर रहा है। बल्कि उसे बचाने कोई भी तो नहीं आता। लगातार गहराई में गिर रहा है। 

समंदर को दूर से देखना। उसकी लहरों को छटपटाते देखना। टकराते लहरों से कितना रोमांच पैदा होता था कथ्या के अंदर। कथ्या को समंदर बचपन से पसंद था। उसकी विस्तृत भुजाएं। अगाध जल राशि। लहरों का खेल और नमकीन पानी। लेकिन अपने जीवन में वही समंदर जगह बना लेना इसकी कल्पना ज़रा मुश्किल थी। 

‘‘सुनो तुम कमरे में ही रहना। जहां सब कुछ होगा। सब कुछ।’’ 

‘‘मैं चाहती हूं तुम इन सबका चस्मदीद गवाह रहो।’’

‘‘जानती हूं मुश्किल है। मगर मेरे लिए।’’

‘‘लगेगा मैं निपट अकेली नहीं हूं। मेरा साथ मेरा प्यार है। मेरा विश्वास।’’

‘‘ कठिन है किसी भी इनसान के लिए। वह मैं समझती हूं। मैं तो हरगिज़ तैयार नहीं होती। लेकिन मानना पड़ेगा। तुम्हारी मिट्टी और तुम्हारे पहाड़ को। सच में तुम इस दुनिया के नहीं लगते। शायद तुम्हें अंदाज़ा नहीं तुम मुझे किस समंदर में धकेल रहे हो। एक पल के लिए मान लो मुझे इसकी आदत हो गई तो? मुझे अच्छा लगने लगा तो? तुम कहीं ईर्ष्या तो नहीं करोगे? कहीं मुझे छोड़ तो नहीं दोगे?’’

‘‘मुझे तुम्हारे साथ रहना और तुम्हारा खुलापन, खिलंदड़ी करना बहुत अच्छा लगता है। मैं तुम्हें खो कर नहीं जी सकती।’’

‘‘और तय हुआ सृजन कि हम इस घर में इस कमरे में ऐसा कुछ नहीं करेंगे। जो बाद में हमें याद के तौर पर परेशान करे। मैं तो कहती हूं इस शहर और इस देश में भी ऐसा नहीं करेंगे। समंदर वाला शहर रहेगा। जमीन यह नहीं रहेगी। न लोग हम जैसे दिखने वाले होंगे।’’

टिकट, होटल सब बुक हो गए। हफ़्ता भी। जब वो कंसीव करने की स्थिति में होगी। सृजन खुले आसमान और समंदर की लहरें देख रहा था। पास में बैठी कथ्या ने छेड़ा

‘‘क्यों तैयार हो?’’

‘‘अपने प्यार को किसी और को सौंपने के लिए?’’ 

एक बाद के लिए सृजन को लगा किसी ने नमकीन पानी में बिना नाक बंद किए डूबोकर पूछ रहा है, क्यों कैसा लग रहा है? 

सृजन ने जवाब नहीं देना ही उचित समझा। लेकिन कथ्या की ओर जिस नज़र देखा कथ्या तक उसकी कही बात पहुंच गई। 

‘‘कहो तो अभी भी पूरी प्रक्रिया को रोक दें।’’

‘‘अभी सब कुछ अपने हाथ में है।’’

सृजन ने बस अपनी नज़र कथ्या की ओर करते हुए इतना ही कह पाया हो जाने दो। एक प्रयोग हम भी कर के देखते हैं। 

कथ्या कमरे में चली गई। काफी देर हो गई। कोई आवाज़ नहीं। कोई सरसराहट नहीं सुनाई दी। कमरे के बाहर ही बैठना चाहा था सृजन ने। लेकिन कुछ देर के बाद उठ कर चला गया। चला गया या खुद से भागना चाहता था। भाग तो गया, लेकिन एक मन था जो वहीं उसी कमरे में अटका रह गया। 


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