चिंता छोड़ सार्थक चिंतन की ओर
चिंता छोड़ सार्थक चिंतन की ओर
बहुत ही कठिन प्रश्न है यह जीवन की परीक्षा का, जिसका उत्तर ढूँढते-ढूँढते कब हम चिंता के भँवरजाल में उलझ कर रह जाते हैं जान ही नहीं पाते और यह हमारे जीवन का एक अभिन्न हिस्सा बनकर साथ-साथ चलने लगती है। चिंता के दुष्परिणामों से भी हम भली-भाँति परिचित हैं, पर तब भी इससे अपना आँचल नहीं छुड़ा पाते और जहाँ भी जाते हैं चिंता भी साथ-साथ यात्रा करती है।
“ चिंतायाश्च चितायाश्च बिन्दुमात्रं विशेषत:।
चिता दहति निर्जीवं चिंता जीवन्तमप्यहो ।।
इसका अर्थ यह है कि चिंता और चिता में केवल बिंदु का अंतर है। चिता निर्विवादत को और चिंता जीवित को जलाती है।
अब हम थोड़ा पीछे की ओर लौट कर देखें। चिंताएँ पहले भी थीं। पहले संयुक्त परिवार हुआ करते थे। घर-बार, बच्चों की, शिक्षा, विवाह, खेती-व्यवसाय, सभी की ज़िम्मेदारियाँ और उनसे जुड़ी सभी तरह की चिंताएँ मिलकर बाँट लीं जाती थीं और जीवन एक समान रह पर चलता रहता था। मोहल्ले-पड़ोस, गाँवों में एक का सुख-दुःख सबका सुख-दुःख बन जाता था, तो आसानी से सब मिलजुल कर उसे जीते थे।
परिवर्तन प्रकृति का शाश्वत नियम है, तो धीरे-धीरे समय बदला, सुविधाएँ मिलने लगी, शिक्षा का प्रसार बढ़ा, महत्वाकांक्षाएँ बढ़ने लगीं, व्यक्ति के अंदर का मैं अपने पँख फैला कर आसमान में उड़ने की कोशिश करने लगा और कब संयुक्त परिवार एकल परिवार केरूप में बदलने लगे,यह जानना बहुत कठिन नहीं होगा।
परिवार जब एकल परिवार में बदलने लगे तो सुख में खड़े होने वाले तो मिलते पर दुःख-चिन्ताएँ केवल अपने तक ही सीमित होने लगीं। उन्हें झेलना, दूर करना और उनके समाधान निकालना भी अपना ही हुआ, तो उनसे जुड़ी समस्याएँ, संघर्ष- समाधान सब अपने हिस्से आए और चिंता भी,जिसने आज हर व्यक्ति के जीवन में इतना तनाव आ गया है कि उसके कारण छोटे-बड़े सबको व्याधियों ने जकड़ना आरंभ कर दिया है। आज हर तीसरा व्यक्ति तनाव के कारण डायबिटीज़, ब्लड प्रेशर, थायरायड, कैंसर जैसी व्याधियों की चपेट में आता जा रहा है। ये तनाव- चिन्ताएँ महत्वाकांक्षाओं की देन हैं। जब हर व्यक्ति,मैं, मेरी पत्नी और मेरे बच्चे या मैं, मेरा घर, मेरा पति, मेरे बच्चे... तक सीमित होता जा रहा है तो उसे इन सबसे तो संघर्ष करना ही पड़ेगा।
अब प्रश्न यह सामने आता है कि चिंता-तनाव को हमने अपने जीवन में आने का अवसर प्रदान कर ही दिया है तो कैसे इसके रहते हुए चिंतन की दिशा की ओर बढ़ा जाए?
जिन समस्याओं का समाधान हो सकता है,उन्हें दूर करने के लिए चिंतन अवश्य किया जाना चाहिए, पर कुछ ऐसे भी समस्याएँ होती हैं जिनका कोई समाधान व्यक्ति के वश में नहीं होता तो हर समय उनका ही चिंतन करते हुए जीते रहने से क्या लाभ? तब होना यह चाहिए कि उन्हें एक ओर दरकिनार करते हुए कुछ सार्थक करने की ओर प्रवृत्त होना चाहिए। कुछ सार्थक करना है तो सोच का दायरा भी विस्तृत करना होगा और अपनी चिंताओं से मुक्त होकर अपने आस-पास, मोहल्ले, समाज में रहने वाले लोगों की ओर देखना चाहिए और उनके लिए कुछ सार्थक करने की ओर सोचना चाहिए।
अपनी हॉबीज़ विकसित करें, लोगों से मिले- जुलें, आशिक्षितों को शिक्षित करने के लिए प्रयास करें, बेसहारों के सहारा बनने का प्रयास करें, वृद्धाश्रम में जाकर वृद्धों के बीच रह कर थोड़ा सा ही अपनापन देने की सोचें, तो देखिए,कैसे चिंता एक तरफ़ और स्वस्थ चिंतन की ओर आपके क़दम स्वयं ही उन्मुख होते चले जाएँगे।
आवश्यकता केवल इस बात को समझने की है कि हम बेकार की चिंताओं में उलझ कर, व्याधियों में घिर कर एक अस्वस्थ व्यक्ति बन कर बेचारा सा जीवन जीना चाहते हैं या सही काम काम की चिंता कर, उसके लिए सार्थक चिंतन करते हुए जीवन में दूसरों के लिए कुछ अच्छा और सार्थक करके आत्मसंतोष से भर कर स्वाभिमान के साथ इस दुनिया से जाना चाहते हैं। जब इस संसार में आएँ हैं तो जाना तो सभी को है, पर क्या करके जाएँ..... यह चुनाव तो हमारा अपना हो सकता है। इसके लिए अपने मैं से बाहर निकल कर, चिंताओं को पीछे छोड़ कर, छोटे- बड़े किसी भी अच्छे परोपकारी कार्य के लिए चिंतन करते हुए उसे करने की ओर बढ़ना होगा। तभी चिंता से सार्थक चिंतन की ओर बढ़ा जा सकता है।