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लाल कोट - अध्याय ३: बदलाव

लाल कोट - अध्याय ३: बदलाव

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कलकत्ता में अब मौसम बदल चुका था। बारिश की जगह पसीने ने ले ली थी। शरीर तो अब भी भीगता था और सड़के जाम अब भी होती थी। मेरी ज़िन्दगी भी पहले जैसे ही चलने लगी, वही ऑटो की लाइन, वही कंप्यूटर का रेडिएशन, वही वाट्सएप्प के फॉरवर्ड मेसेजस, वही हिन्दू कट्टरपंति की खबरें और उनको दी जा रही गालियाँ और वही घिसी-पीटी राजनीती के चर्चे। ज़िंदगी का कोलाहल जैसे एक घेया बन चुका था। सुबह नींद से उठते ही पता रहता था की आज दिन भर में क्या होने वाला है और मेरा मन कैसा रहने वाला है। इस दौर में ज़िन्दगी एक खुली किताब बन कर रह गयी। हर सुबह एक जैसी, हर खबर एक जैसी, सब लोग एक ही बात पर रोते बल्कि सब लोग खाली रोते ही रहते।

इक्कीसवी सदी का मारा, मैं और कर भी क्या सकता था। मैं असल में अब ऐसी ज़िन्दगी से ऊब गया था। बचपन के दिन मेरे कुछ अलग ही थे। दूरदर्शन देखकर बचपन बीता, बारह साल का हुआ तो घर पर केबल टीवी आया, सोनी चैनल में आने वाली ज़ी हॉरर शो देख मेरी हमेशा फटती, मोगली में मैं खुद को ढूँढ़ता, टेप-रिकॉर्डर में गाने सुना करता, साइकिल में कॉलेज जाया करता, पॉकेट-मनी का अपना फंडा ही नहीं था तो बारहवी क्लास से ही ट्युशन लेकर पैसे कमाने लग पड़ा। उस ज़माने में ऐसे ही ज़्यदातर बच्चे पॉकेट-मनी बनाते।

ख़ैर, ज़माने के साथ अंधे हुए दौड़ना इंसानी फितरत है। हम भी एक किस्म के भेड़ हैं जो झुण्ड में चलते हैं। एक भेड़ खाई में कूदे, तो ढेरो हम भी पीछे छलांग लगा देते हैं। शायद हमें बचपन से ये ही सिखाया जाता है "देखो वो डॉक्टरी पढ़ रहा है, तुम्हें भी डॉक्टर ही बनना है, देखो उसके जैसे कपड़े पहनो तो अच्छे दिखोगे वगैरा-वगैरा। हमारी तो जैसे जड़ें ही कच्ची बनी हैं।

पर कुछ दिनों से मेरे ज़ेहन में हर बात पर प्रश्न उठना शुरू हो गया था "ऐसा क्यों तो ऐसा क्यों नहीं तो इसके अलावा कुछ और हो सकता है क्या ?" मेरे घर वाले मुझसे परेशान होना शुरू हो गए थे क्योंकि मैं अब उनकी बाते मानने से इंकार करता था। घर पर अब ढेरो फिलॉसफी की किताबे ले आया था। भगवत गीता, चाणक्य नीति और बुधिस्ट किताबे पढ़ना शुरू किया। उन सब में चाणक्य नीति पढ़ मुझे बड़ा मज़ा आया। पूरा दुरुस्त लिखा था उन्होंने।

अब मुझे में भी बदलाव की आग की जवाला फूट पड़ी थी। मैंने सबसे पहले अपना व्हाट्सएप स्टेटस बदला -" मैं दानासुर हूँ"। इसका मतलब था की जहाँ दुनिया आगे बढ़ रही थी, वहा मैं अब उल्टा चलूँगा। मैंने खुद को अब इस भेड़-चाल से अलग कर दिया था और बुद्धा की राह पर निकल पड़ा जहाँ जीवन का मकसद था खुश रहना और लोगों को भी ख़ुशी की राह दिखाना। जहाँ लोग त्रिणमूल, सी.पी.एम., कांग्रेस या बी.जे.पी बन चुके थे, उन्हें इंसान और इंसानियत सीखाना।

बस नई ज़िन्दगी के आगाज़ पर मैंने एक दिन सुबह दफ्तर जाकर नौकरी से इस्तीफ़ा दे दिया। यकीं मानो, उस दिन जो मैंने दिली-सुकून का एहसास किया, वो कब्ज़ के बाद होने वाली सख्त काली पोटी से मिली एहसास से भी दुरुस्त था। उस दिन पहली बार कई अर्सों बाद मैंने ख़ुशी महसूस किया। बेखौफ था मैं की आगे क्या होगा, बस उस पल मैं निरवाना महसूस कर रहा था। तो क्या मैं इस नौकरी से खुश नहीं था ? शायद नहीं। रोज़ काम से घर देर से जाना, गधों की तरह बस काम करते रहना, अपने बॉस को खुश रखना ताकि तरक्की होती रहे और पैसे बढ़ते रहे, दूसरों का पेट काटना क्योंकि आगे बढ़ना ज़रूरी है वगैरा-वगैरा। ये सब से मैं खुश नहीं था।

कुछ ही पल में मुझे मेरे बॉस ने बुलाया। मैं जब उनके कमरे में गया तो वो लैपटॉप में कुछ देख रहे थे। मुझे देख वो आराम से पीठ अपनी कुर्सी पे टिका के बोले "ये क्या है ?"

"इस्तीफ़ा" मैंने मुस्कुराते बोला।

"मुझे दिख रहा है पर क्यों है ?"

"मुझे मज़ा नहीं आ रहा। मैं अब अपने मन की करना चाहता हूँ।"

"अच्छा, और वो क्या है ?"

मैंने इस बारे में तो सोचा ही नहीं था। तो मैंने उस समय अपने दिल की सुनी और बोला "मैं घूमूँगा, वालंटियर करुँगा कुछ सामाजिक कामों में जैसे ग़रीब बच्चों को पढ़ाना, चित्रकारी करूँगा।"

"और पैसे, पैसे कहा से आएँगे ?"

ये भी मैंने सोचा न था पर दिल से आवाज़ आयी "पार्ट-टाइम काम कर लूँगा घर से, मुझे अब बहुत पैसे नहीं चाहिए।"

"तो इस्तीफ़ा वापस ले लो और हमारे लिए ही पार्ट-टाइम काम करो। मैं तुम्हारी तनख्वा कम नहीं करूँगा। जितना मिलता था उतना ही रहेगा। दिन में कितने घंटे काम करोगे ?"

ये हो क्या रहा था। मुझे खुद के कानों और आँखों पर विशवास ही नहीं हो रहा था। सच पूछो तो मैंने ऐसा कुछ होगा, सोचा ही नहीं था। एक बुधिस्ट किताब में मैंने सही पढ़ा था की खुद को अपने कर्म क्षेत्र में आवश्यक बना दो की तुम्हारे बगैर उनका काम न चले। उस दिन मुझे पता चला की अनजाने में मैं खुद को उस जगह पहुँचा चुका था और ये सच है की कोई कंपनी अपने प्रतिभाशाली मानव संसाधन को आसानी से जाने नहीं देती। वो हर कोशिश करेगी उन्हें रोकने की। ये सब देख मुझे खुद पर गर्व महसूस होने लगा।

" मैं दिन में ७ घंटे ही काम करूँगा और घर से। मैं दुनिया घूमना चाहता हूँ। दफ्तर में अपनी ज़िन्दगी नहीं बिताऊंगा।"

"दिया। और कुछ ?"

"मुझे दो महीना की छुट्टी चाहिए।"

वो चुप-चाप मुझे देखते रहे।

"ये छुट्टी बिना तनख्वा के होगी ज़ाहिर सी बात है।"

"दिया। तुम पागल हो। जाओ और दो महीने बाद आ जाना एक बार शक्ल दिखाने ।"

मैं अपनी बत्तीसी फाड़ झूमता हुआ जाने लगा तो पीछे से आवाज़ आई - "तो कहाँ जा रहे हो इन दो महीनों में ?"

"लदाख !"

"क्या ? मालूम है वहाँ सर्दियों में कितनी ठण्ड पड़ती है ?"

मुझे लदाख के बारे में कुछ भी पता नहीं था तो ये कम्बख्त दिल ने उसका नाम क्यों लिया ? मेरे पास बॉस को देने के लिए कोई जवाब नहीं था। मैं मुस्कुराया और कमरे से निकल गया।

वो दिन मेरे ज़िन्दगी का बेहद हसीन दिन था। मैं और मेरा दिल अब दोस्त बन चुके थे। मुझे यकीन हो चला था की मेरा दिल मुझे अब खुश रखेगा ।

कहानी जारी है ...


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