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यवधेश साँचीहर

Drama Inspirational Tragedy

2.5  

यवधेश साँचीहर

Drama Inspirational Tragedy

मेरा प्यारा पिल्ला

मेरा प्यारा पिल्ला

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२०१४ में हम ६ लोग एक किराये के घर में रहा करते थे ! उसी घर में एक गराझ व एक विन्थ्या थी । घर की बाह्र दीवारे इतनी बड़ी नहीं थी व दरवाजा भी लगभग टूटा हुआ था ।

एक दिन एक प्यारी सी कुतिया उसके प्यारे नन्हे मुन्नो के साथ घुस आयी । जैसे हमने उनको देखा, प्यार किया दुलार किया व खाद्य पदार्थ दिया । उस दिन उपरान्त उन्होंने जैसे आदत सी बना ली की भोजन के लिये हमारे पास ही आयेंगे । मै और वो कुतिया अत्यन्त ही प्रसन्न हो जाते थे, सुबह एक दूसरे को मिलकर । सब कुछ अच्छा चल रहा था, पर एक दिन-

वो एक सामान्य सी सुबह थी । मैंने भी अपना नित्य कर्म करके कॉलेज की ओर प्रस्थान किया । लेकिन जब मैं लौटा तो मैंने जो पाया वो विभत्स था । एक प्यारा छोटा पिल्ला हमारे स्नानाघर में लेटा हुआ था । आह कितना दुख था उस क्षण में ।

जैसे उसने मुझे अपनी चक्षुओं की त्रिज्या में पाया, जैसे की अचानक से उसमें शक्ति आ गयी हो । जैसे की सूखा हुआ फूल पुन: जवान हो गया हो । जैसे कि सूखी हुई धरती में बाढ़ सी आ गयी हो । मैंने उसकी चक्षुओं में प्रकाश सी चमक देखी । एक ही क्षण में मानो प्रलय आ गया हो । मेरा ह्रदय थोड़ा चिन्तित हो उठा । अपनी सारी शक्ति समेट कर वो चिल्ला उठा । अब तो मुझे उसकी भाषा भी समझ आने लगी थी । ह्रदय ने ना जाने कैसे उस अन्होनी का संकेत पढ़ लिया था । वो केवल एक ही बार चिल्ला सका । मानो जीवन की उर्जा अब बस कुछ श्वास तक ही रहेगी । हम दोनों बस देख रहे थे एक दूसरे को ।

'हे राम ! क्या इतना ही था जीवन इसका ?'

उसकी उर्जा अब क्षीण हो रही थी व उसका उदर फूलने लगा था । पर वो निरन्तर प्रयास कर रहा था की जैसे कह रहा हो कि मेरा भोजन कहाँ है ? धीर-धीरे अपनी पूँछ को हिलाने का प्रयास करते हुए कई बार उठने का प्रयास करते हुए गिर पड़ रहा था । मुझे वो कहानी याद आ गयी चीटी वाली जिसमें चीटी अपने सतत प्रयासों से दीवार चढ़ जाती है । ऐसे ही एक चमत्कार की उम्मीद कर रहा था मेरा हृदय । सोच रहा था प्रभु से आग्रह कर लूँ तो पिल्ला खिलखिला कर जी उठे ।

पर मृत्यु की देवी व यमराज जी पहले ही मन बना चुके थे । पिल्ले के पास में एक बड़ी बाल्टी पड़ी हुई थी और उसमें वस्त्र मार्झक पाउडर का घोल था । अवश्यमभावी था कि उसने प्यास बुझाने हेतु वो पिया हो । उसका बढ़ता हुआ दुख मैं आभास कर पा रहा था । उसके श्वास धीमी होती जा रही थी, और मेरे ह्रदय का स्पन्दन भी । वो मुझसे अभी भी निष्कपट प्यार व्यक्त कर रहा था और मैं चाह कर भी कुछ नहीं पा रहा था । उसकी जिह्वा झाग से लिपटी हुई लटकने लगी थी और अकस्मात ही उसके चक्षुओं के भारी होने का दृश्य सामने आने लगा था ।

आप मनुष्यों से प्रेम में निष्कपट की आकांक्षा नहीं कर सकते पर पशुओं में निष्कपट प्रेम का ऎसा भाव होता है जिससे किसी का भी मन द्रवित हो जाये ।

मन में मृत्यु का गीत बज रहा था ।

"सुन री बसन्ती रे, आज मै आयी रे,

मौसम बदल जायेगा, देख मै आयी रे !"

बस अब बसन्त मौसम का वो आनन्द मृत्यु अधिश्थात्रि देवी ने लील लिया ।

उसके मुख से 'आह' कि ध्वनि के साथ उसकी ह्र्दय गति थम गयी ।

"श्री राम नाम सत्य है..."

इससे मेरे मन मे एक करुणा भाव का उद्धरण हुआ ।

यही समझ आया कि हार को भुलाया जा सकता है लेकिन आत्मग्लानि को कभी नहीं भुलाया जा सकता है ।


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