Ashutosh Agnihotri

Drama

5.0  

Ashutosh Agnihotri

Drama

वोट फॉर नमक

वोट फॉर नमक

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नमक बड़ी मजेदार चीज है। आपको एक राज़ की बात बताऊँ? दरअसल लाल किताब की ख़ास पहेली, बंगाली काले जादू का राज, डायनों-चुड़ैलों का आजमाया हुआ नुस्खा, गंडे-ताबीज का सनातन पुर्जा, जिन्नों की मजबूरी और आकाओं की मनमर्जी बनी रही वशीकरण की मोहनी विद्या का मूल राज़ तो नमक में ही छिपा हुआ है। हे-हे-हे-हे।


जी हाँ, बेशक़! और आप अब तक समझते रहे कि उसके लिए कुंडली जागरण, अष्टांग योग करना पड़ता है? अरे छोडिये भी! ना मानिये तो हिंदोस्तान का इतिहास उठा के देख लीजिये। कांग्रेस-भाजपा हो या आर्य-मुग़ल-अंग्रेज सबकी नमक की फैक्ट्री रही है। उसके बिना कोई सत्ता नहीं चलती।



अब देखिये, गांधीजी ने नमक बनाया हिंदोस्तान ने खाया और तब से अब तक हर असली-नकली गाँधी-ब्रांड एरे-गैरे को जनता ने नमक का हक़ अदा किया है। बंधुआ मजदूर के कभी न ख़त्म होने वाले क़र्ज़ की तरह ये नमक अंतड़ियाँ गला देगा पर गुलामी करवाना न छोड़ेगा। सही तरीके से प्रयोग किया जाये तो अच्छे-भले आदमी को ज़िन्दा मुर्दे में बदल देता है ये, एसा है इसका जादू। इसी जादू के बेशुमार अफ़सानों में से एक पेश करने जा रहा हूँ। 



तो हमारी कहानी का नायक भारत कुमार भी एक नमक की फैक्ट्री ‘इन्डियन नेशनल साल्ट’ में काम करता था। अनाथ था, इसलिए अय्याश तो हो नहीं पाया मेहनती हो गया। कुछ आठ महीने पहले उसकी शादी रूपा भारती नामक एक सुन्दर-सुशील कन्या से अचानक ही हो गयी। जल्दी ही रूपा ने भारत के जीवन में फेसबुक की तरह अपनी जगह बना ली। गोया की एसा तो कोई काम न था जो उसके बिना न हो सकता हो, पर हर काम में वो कहीं न कहीं फिट हो ही जाती।

वैसे स्त्री का अविष्कार तो बाद में हुआ। खाना पहले भी बनता था, कपड़े पहले भी धुलते थे, रातें पहले भी कटतीं थीं और हर काम, बेहद जरूरी तौर पर, भारत के ख़ास तरीकों से किया जाता था। भारत नियम का पक्का था; उसने सुबह छह बजे से नौ बजे तक के वक़्त के बाक़ायदा सात टुकड़े कर रखे थे जिनमें ब्रश करने से लेकर जूते चमकाने तक हर काम के लिए एक-एक अलग खांचा उसने काट-काटकर खुद निकाला था। वैसे ही जैसे उसने कम्प्यूटर टेबल में माउस-पैड खोद लिया था और अपनी आरामकुर्सी की टांगे दो-दो इंच इसलिए कम कर दीं थीं कि उसकी उँगलियाँ अपने आप ही बाजू वाले टेबल पर रखे टीवी रिमोट के करीब बनीं रहें। बाद में टीवी की ऊंचाई से मेल बैठाने के चक्कर में उसे टीवी को कूलर पे रखना पड़ा और अधकटी टांग वाली आरामकुर्सी ने फर्श में एक छोटा सा निशान बना दिया, जो बाद में, जाने कैसे, दरार में बदल गया। इसलिए उसे ये निर्णय भी लेना पड़ा कि अब कूलर में पानी डालने के लिए बिस्तर पे चड़ना होगा और कमरे का पूरा फर्श नए सिरे से करवाना होगा।



जो भी हो,अपने तरीके से काम करने का मजा ही कुछ और है। तानाशाही तानाशाही है। इसीलिए तो हर आदमी राजा ही बनना चाहता है, प्रधानमंत्री-राष्ट्रपति तो लाचार लोग होते हैं; चाहे इंग्लैंड हो, नेपाल हो या हिंदोस्तान रानी-राजा तो चाहिए ही चाहिए।


तो इसलिए, भारत भी अपनी ही तरह का तानाशाह रहा, और फिर नयी-नयी शादी के बाद तो वह मर्दानगी भी ग़ालिब हो उठी जिसमें बकरा भी टेम्पररी तौर पर तेंदुआ बन जाता है। पर थी तो रूपा भी नारी ही, जल्दी ही खैनी-गुटखे की तरह पल-पल की तलब बन गयी (अच्छी भाषा में कहलवाइए तो ‘दो बदन एक आत्मा’ कहे देता हूँ)। रूपा के आने के बाद अपने आप ही भारत को अपनी हर चीज, मोजों से मोबाइल तक, एकदम जगह पर मिलने लगी, लगभग अविश्वसनीय और आश्चर्यजनक रूप से व्यवस्थित। यहाँ तक कि जल्दी ही शाम को उसके पास खाली वक़्त रहने लगा, यह एक एसी चीज थी जो उसे पहले कभी नसीब नहीं हुई थी।



शुरुआती परिवर्तन के दौर के बाद, भारत की दिनचर्या आंधी के बाद की हवाओं की तरह अब वह सुबह सात बजे उठता, बीस मिनट में नित्यक्रियाओं से निवृत होकर, पंद्रह मिनट तक दो कप चाय पीता, टीवी पर न्यूज़ देखकर अपना न्यूनतम आवश्यक सामाजिक दायित्व पूरा करता, चाय के कप लेकर जाती हुई रूप से हिंदोस्तान के बारे में आठ से बारह शब्द का कोई वाक्य जैसे “बर्बाद कर दिया नेताओं ने इस देश को।।।” कहता, और फिर रिमोट उठाकर टीवी बंद कर देता। इसके बाद वह नियमानुसार घर से बाहर निकल के अख़बार उठाते हुए लॉन में पहले से सही जगह पर रखी कुर्सी पर पसर जाता और ठीक सत्रह मिनट में अख़बारी चिंतन-मनन का समापन करके अख़बार तह करते हुए वापिस लौटने लगता। कभी कभी अगर इस व्यवस्था में कोई व्यवधान आ पड़े, जैसे पड़ोसी शांति प्रसाद का छोटा बच्चा मुन्ना अगर लॉन में दिखाई पड़ जाये तो भारत ढाई इंच की नपी-तुली मुस्कान देकर उसे गोद में लेकर पैंतालीस सेकंड में उसके घर के दरवाजे तक छोड़ आता, और अख़बार पड़ने की गति थोड़ी सी बढाकर यह एक मिनट कवर कर लेता।



अक्सर जब हवाएं चलतीं या मौसम कोई गड़बड़ करता तो भारत आसमान की ओर नजरें उठाकर कुछ इस तरह घूरता कि ऊपरवाले को भी अपनी व्यवस्था के खोट पे शर्मिंदा होना पड़ता था। एसा ही एक विशेष द्रष्टिपात उसने रूपा के लिए भी तैयार कर रखा था जो तब प्रक्षेपित होता था जब खाने में कोई ऊंच-नीच हो जाती।



पर हाँ,पाककला ही तो रूपा की सबसे अलग बात थी। कुछ भी हो,भारत के जीवन में जो सबसे विशेष आनंद रूपा लायी थी वह तो उसके हाथ का वह लाजवाब खाना ही था जिस पर भारत का मन लट्टू था। 

और रूपा की पाक-कला में सबसे ख़ास बात थी कभी न ख़त्म होने वाला नयापन।



असल में बोरियत जैसे किसी दर्शन में भारत ने कभी यकीन किया ही नहीं, परम्परावादी कहा जा सकता है उसे। अगर सब-कुछ बस वैसे ही चलता रहे जैसे चला आया है तो शायद उसे कभी कोई समस्या न हो, पर रूपा के साथ जो नयापन चला आया था उसे अस्वीकार करना भी टेड़ी खीर थी क्यूँकि हर तीसरे दिन कुछ नया खाने की आदत ने उसे अहसास दिलाया कि तुलनात्मक आधार पर वह स्वयं ही अपनी पूर्वस्थिति को वर्तमान के आगे शायद नापसंद करे। और इसके लिए जो आधार उसका मन किसी नौटंकीबाज ढीठ वकील की तरह पेश कर रहा था वह यही था कि उसका पूर्व जीवन दरअसल बेहद बेरंग और बोरियत भरा था। खैर! किसी नकचड़े खूसट न्यायधीश की तरह उसने इस दलील को स्वीकार तो किया, पर सिर्फ खाने के मामले में। अन्य निर्णयों को इसके प्रभाव से बचाते हुए बिना कुछ कहे-सुने ही अदालत बर्खास्त कर दी गयी और सवाल-जवाब से बचते हुए सारे दिमाग पर इमरजेंसी लगा दी गयी।



तो इस तरह हमें यह तो समझ आता है की रूपा को एक महान पत्नी का दर्जा देने के लिए भारत ने उसी तरह कारण खोज लिए जैसे की मदर टेरेसा को संत साबित करने के लिए चर्च ने चमत्कार खोज लिए थे। पर गौरतलब है की भारत हमेशा से हर उस चीज में महानता ढूँढने में सफल रहा जो ‘उसकी’ रही है।अगर वह अनाथ न होता तो निश्चित रूप से वह एक महान परिवार में ही पैदा होता।अभी भी वह एक महान देश के महान प्रदेश के महान शहर में एक महान कंपनी में काम करके महानता का बेजोड़ परिचय दे रहा था।



जितना समर्पण भारत का अपनी कंपनी के प्रति था उससे तो बस हनुमान जी की ही तुलना की जा सकती है। यह समर्पण अटूट था। और उसे दो तरह की बड़ी मज़ेदार गफ़लतें इसी से मिलतीं थीं। एक तो यह कि वह संसार के विकास में अपना अमूल्य योगदान दे रहा है -न की बस पैसे के बदले मजदूरी कर रहा है। और दूसरे वह सड़क पर खड़े भिखारी के पास से आराम से गुअपना काम तो कर ही रहा था,’ और भिखारी की भूख से उसका कोई सम्बन्ध नहीं था। (उसे यकीन था की संसार में सबका अपना एक काम है और अगर आप अपना काम ठीक से कर रहे हैं तो आपको और कुछ भी करने की जरुरत है ही नहीं)।


पिछले काफी वक़्त से भारत को किचन में जाने की कभी जरूरत ही महसूस नहीं हुई थी। और जिस काम की जरुरत ही नहीं उसे भी क्या करना? तो हुआ यूँ कि महीनों हुए भारत कभी किचन में ही नहीं घुसा। उसके दिमाग में शायद किचन की परिभाषा अब यही थी कि किचन वह कमरा है जिसमें से रूपा खाना लेकर बाहर आती है। खाना बनाना किसे कहते हैं यह भुला दिया गया था।



फिर एक दिन उसे पता चला की किचन में फिसला भी जा सकता है और इससे चोट भी लग सकती है, जैसा की रूपा के साथ हुआ जब उसे दो दिन के लिए हॉस्पिटल में एडमिट करना पड़ा।



अचानक ही जैसे संसार का भ्रम विस्मृत हो गया और उस अबोध प्राणी को सत्य का साक्षात्कार हो गया। एक मुद्दत से कभी नागा न करने वाले भारत ने अपनी छुट्टियों का कोटा आखिरकार इस्तेमाल किया और अपने सुनसान घर में एक पूरी सुबह उसने टीवी के सामने उस अजीब सी स्थिति में गुजारी जब उसे कहीं जाने के लिए वक़्त का हिसाब ही नहीं करना था।



दरअसल खाने की बात तो वह भूल ही गया था। रूपा ने उसे बाजार में कुछ खाने को कहा तो जरुर था, पर अपने ही घर को ग्यारह बजे के बाद भी देखते रहने पर उसे यह अहसास हुआ कि वह घर जो दस बजे तक वैसा लगता है, ग्यारह बजे से कुछ और ही लगने लगता है। उसने गंभीर बेधने वाली नजर से घर की हर चीज पर ध्यान देना शुरू कर दिया और यहाँ से वहां घूमता रहा। लगभग आधे घंटे बाद वह किचन के सामने इस तरह खड़ा था जैसे हैरी पॉटर की फिल्मों का कोई छुपा हुआ दरवाजा उसके सामने हो। बेहद आश्चर्य के साथ उसे पर्याप्त देख लेने के बाद भारत किचन में अन्दर घुसा, और बेहद प्रसन्नता के भाव उसने अपने ह्रदय के तालाब में जलकुम्भी की तरह अतराते हुए पाए।



भारत ने देखा, एक-एक चीज, चम्मच, करछुल, थालियाँ, आटे-दाल के डब्बे और मसाले के पैकेट, हर चीज पर रूपा की चमकार साफ़ दिखाई दे रही थी। एक कमाल की बात भारत ने देखी कि दरअसल आधा किचन तो मुफ्त में ही आया था। बन्दर छाप दंतमंजन के डिब्बे, फ़िरोज चाट मसाले के केलेन्डर, मुस्कान घी के भगवान्, बिल्लू गरम मसाले की चम्मचें, डमडम चाय के कप और सात नंबर माचिस की प्लेटें देखकर रूपा पर भारत को लगभग गर्व ही हो गया। पूर्ण रूप से तो अब जाकर उसने माना कि रूपा में लगभग हर वह गुण है जो उसकी महान पत्नी होने के लिए जरुरी है। गदगद भाव से भारत किचन से बाहर ही आने वाला था कि अचानक जैसे वज्रपात हो गया उसके ह्रदय पर।



ओह! उस क्षण के बारे में क्या कहूँ? मरते हुए सीज़र को ब्रूटस के मित्रघात पर भी एसा क्षोभ न हुआ होगा। जैसे क़यामत आन पड़ी, “हे ईश्वर! मेरे साथ एसा अन्याय क्यों?” भग्न ह्रदय से ये उद्गार भारत के घर की छत को चीर के इन्द्र के सिंहासन तक जा पहुंचे, (और बेचारा इन्द्र ये समझ भी न पाया की द्वापरयुग के बाद आज अचानक ये उसका सिंहासन ही डोल रहा है या सस्ते चाइना-मोबाइल का जरुरत से ज्यादा तेज वायब्रेटर भन्ना रहा है)। कैसे मैं भारत की उस दशा का वर्णन करूँ जब उसने देखा की बगल में रखी लकड़ी की अलमारी पर एक कतार में सजे हुए नमक के डब्बे रखे हुए हैं जिन पर लेवल चमचमा रहा है: “भारतीय जनता नमक”।

और तो और, एक-दो डब्बों पर तो हंसिये और लाल निशान वाला कोई अजीब सा चाइनीस ब्रांड भी था। एक उदासी सी भारत के दिल पर छा गयी, जैसे विभीषण का द्रोह रावण के सामने आया हो। “मेरी पत्नी किसी और का नमक खाती है, और मेरी रगों में भी यह ‘जनता नमक’ दौड़ रहा है… हे ईश्वर! ये जानने से पहले तूने उठा क्योँ नहीं लिया मुझे?” एसे वचन उसके व्यथित ह्रदय से अनवरत निकल रहे थे। उसने एक नजर और डाली, पर उसकी अपनी ‘महान’ कंपनी ‘इंडियन नेशनल साल्ट’ का कोई डब्बा वहां नहीं था, जैसे किसी द्वेष से उसे राम की तरह वनवास दिया गया हो।



पर इस दूसरी नजर में उसे एक गठ्ठे में कुछ चमकीले कागज भी दिखे। “अब और क्या देखना बाकी है?” सोचते हुए भारत ने एक कागज उठाया।

लीजिये! यह एक और वज्रपात था, पर कुछ अजीब सा। जैसे किसी देवता के जादू भरे अस्त्र ने अचानक ही उसे विस्मृति में पहुंचा दिया हो और वह यह समझ पाने की स्थिति में ही न रहा हो कि दरअसल वह किस तरह की भावनाएं महसूस कर रहा है। दिमाग में जैसे खून की सप्लाई बंद हो गयी। उस कागज पर बड़े-बड़े चमकीले प्रिंट में लिखा था, “भारतीय जनता नमक की इस बार की रेसिपी है: गुजराती ढोकला, आपको चाहिये मैंदा, काली मिर्च।।।”



अब तो रूपा की पाक-कला भी उसे विदेशी षड्यन्त्र सी महसूस हो रही थी। आज जाकर यह राज़ भी उसके सामने आना था। 



कुछ भी हो, था तो भारत सुधारवादी। उसने कैसे वे दो दिन काटे उसका वर्णन तो निश्चित ही मेरी लेखनी की शक्ति से परे है पर इतना है कि जब रूपा वापिस आयी तो भारत जैसे पथ्थर का हो चुका था।


तो क्या? नारी शक्ति पर विश्वास रखने वाली रूपा जरा भी न घबराई। उसे पूरा यकीन था, हव्वा ने सेब आगे बढाया और आदम ने खाया, कोई गुंजाईश थी ही नहीं शक की। वह तो बेखटके अपने किचन की और बड़ चली।



पर ये क्या? जैसे हातिमताई से उसकी जादू की छड़ी छिन गयी हो, जिस तोते में जान बसी हो वही दुश्मन के हाथ आ गया हो, जैसे कैकई ने अपना वर मांग लिया हो।।। किचन में तो सादे सफ़ेद रंग का ‘इंडियन नेशनल साल्ट’ का डब्बा रखा था।

ओह! किसी परी को उसके पंख काट के इंसान बना देने की सजा भी एसी दुखदायी न रही होगी। ताजमहल बनाने वाला कारीगर भी अपने कटे हाथ देखकर इस तरह फूट-फूट कर न रोया होगा जिस तरह रूपा के ह्रदय की दरारों से सिसकियों की नर्मदा फूट पड़ी। पर उसने स्वयं को संभाला, वास्तविकता को स्वीकार किया, और एक स्वाभिमानी नारी की तरह कमर कसके फिर खाना बनाने में लग गयी।



इसके बाद का घटनाक्रम मानवीय स्वभाव के बारे में मेरे सारे आकलनों पर एक सवालिया सा निशान खड़ा कर देता है। दरअसल, मैं तो यूँ कहूँगा, वह मेरी समझ से ही परे है। लेखक होने के नाते कई-कई बार मैंने भारत और रूपा के ह्रदय और मस्तिस्क में घुसके ये पता लगाने की कोशिश की कि दरअसल उनके बीच होने वाली वह अजीब रस्साकसी क्योँ है, कब तक चलेगी, और क्या उसका कोई अंत है? पर मेरी सारी मनोवैज्ञानिक समझ कुछ सवालों के आगे छोटी पड़ जाती है।

हुआ यह की परकटे पंखों वाली परी रूपा ने और भग्न ह्रदय मानव भारत ने एक दूसरे पर कोई भी भावनाएं प्रकट नहीं कीं। किसी विशेष घटना, चिल्लाचोट, या नारी उत्पीड़न जैसी किसी मजेदार खबर के चक्कर में मैं लम्बे समय तक उन दोनों का अध्य्यन करता रहा। शुरू में तो मुझे बड़ा मजा आया जब जली हुई दाल, कच्ची रोटी, बेस्वाद गुलाबजामुन मुंह में ठूंसते हुए भारत की शक्लें देखने मिलतीं रहीं (मैं मुंह दबाकर खूब हँसता रहा)। पर भारत न तो एक शब्द बोला न ही उसने रूपा के प्रति कठोर भावनाएं प्रकट कीं। (वैसे, सोचूं तो, वह भावनाओं का प्रदर्शन पहले होता कब था यह भी मुझे याद नहीं। नजर से चूक गया होगा मेरी, क्यूंकि अब बेडरूम में तो लेखक का जाना अच्छा नहीं लगता ना)।

तो इस तरह कर्मठ, ब्रांड-भक्त और कंपनी-प्रेमी भारत ने अपने स्वाद का बलिदान देकर भी अपने नमक का कर्ज अदा किया।


क्या लगा आपको? कहानी ख़त्म? रूपा की हार हो गयी? अजी समझ क्या रखा है आपने नारी को! नारी माया होती है उसे कम न आंकियेगा।



‘इंडियन नेशनल साल्ट’ का डब्बा कब ख़त्म हुआ ये भारत को पता भी नहीं चला। उसे तो बस अचानक एक दिन बेहद स्वादिष्ट खीर खाने को मिली। पर मीठी खीर से भी उसके मन को खटका ही लगा। आधी रात को उठकर, टॉर्च की रौशनी में, भारत ने फिर वही ब्रांड-घात देखा। अलमारी पर फिर ‘जनता नमक’ रखा था खीर वाली पर्ची के साथ।



 भारत ने हाथ बढाया, पर उसकी उँगलियाँ कांप गयीं। एक पल को उसे लगा जैसे लकवे का दौरा पड़ा हो। वह कुछ कदम पीछे हटा और फिर आगे बड़ा। अचानक ही उसके मुंह का स्वाद बदलने लगा। जैसे पिछले एक महीने के खाने की सारी कड़वाहट एक साथ उसके मुंह में आई हो। यह अजीब सा दौरा उसके हाथों को सुन्न कर गया। मजबूरी में, उसे आखिरकार वापिस आना पड़ा, पर रात भर वह सो नहीं पाया।



वह बीमारी फिर गयी नहीं बल्कि जब-तब उसे दौरा पड़ने लगा। लगातार रोज रात को नमक का डब्बा देखते देखते अगली बार नमक ख़त्म होने से पहले ही भारत ‘इंडियन नेशनल साल्ट’ ले आया और अलमारी पर रखके बेचैनी से सारी रात जागता रहा।



पर होना क्या था? फिर महीने भर वही बेस्वाद खाना। अब भारत नमक का स्वाद ले या हक़ अदा करे? ये दुविधा तो तब से अब तक बनी ही है।



दोनों कंपनियों के बीच पेप्सी और कोक सी प्रायोजित जंग जारी है। भारत बेचारा अब भी अक्सर ‘डेमोक्रेटिक जनरल स्टोर’ के बाहर कतार में लगा रहता है और अपनी बारी आने पर अचानक ही कतार छोड़कर फिर वापिस सबसे पीछे लग जाता है। उसकी दुविधा अब मेरी दुविधा भी बन गयी है। शायद कहानी पड़ते-पड़ते आपकी भी बन गयी हो। पर क्या करें जिंदगी का स्वाद लें या पुरखों के कर्ज़ अदा करते फिरें ?



मुझे तो वैसे स्वादिष्ट खाना पसंद है।


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