Priyanka Sarkar

Drama

4.6  

Priyanka Sarkar

Drama

वो ...खिड़की वाली दोस्त!

वो ...खिड़की वाली दोस्त!

3 mins
217


मुझे थोड़ी सी भी भनक न थी। लेकिन वो मेरे सामने वाली खिड़की में थी। हर रोज़ बस स्टाप पर मुलाक़ात होती थी, मगर दोस्ती नहीं हुई थी। शायद अलग अलग स्कूल होने कि वजह से। 

किसी दिन एक चोटी तो किसी दिन दो। दाहिने हाथ में खड़ा और बस स्टाप पर उछलती कूदती मिलती। बड़ा ही प्यारा,मगर लड़कों जैसा नाम था उसका।

सुखदीप कौर, थी भी प्यारी और मर्दानी वाली,बिलकुल अपने नाम जैसी।

एक रोज़, उसके आने से पहले मैं बस स्टाप पहुँच गई थी। वहाँ खड़े एक बदमाश लड़के ने मेरा स्कूल बैग खींचा। मैं उसे कुछ बोलने से पहले, सुखदीप आकर हमारे बीच खड़ी हो गई। और क्या कहना। उन दोनों में हाथा पाई हो गई। अंत में,जीत सुखदीप कि हुई,या फिर यूँ कह सकते हैं कि,हमारी दोस्ती की शुरुआत हुई।

ठीक दूसरे महिने, मेरे बाबा ने मुझे बे-सरकारी स्कूल से सरकारी स्कूल में दाखिला का निर्णय लिया। 

पहले दिन सहमी सी मैं, अपने नये स्कूल में, सबसे अनजान, अंदर जाने से कतराती हुई गई। 

बाबा क्लास छोड़ने आए थे। उस दिन बाबा का हाथ छोड़ने का मन नहीं कर रहा था। 

क्लास में बैग रखकर, डेस्क पर सर रखकर, खूब रोने लगी। ठीक उसी समय प्रार्थना के लिए बजी और किसी ने कहा, "चलो, प्रार्थना करने चलते हैं"।

रोते रोते सर उठाया,तो देखा, "सामने वो खड़ी थी; मेरी अंगरक्षक, सुखदीप कौर"।

फिर क्या था, वो मेरा हाथ पकड़ कर साथ ले गई प्रार्थना करने। 

अब, जाकर शुरू हुआ सुहाना सफ़र दोस्ती का। 

दूसरे दिन से स्कूल जाना मतलब सुखदीप। एक दिन मैं उसको पूछ बैठी कि,'तेरा घर कहाँ है'?

सुखदीप- 'तेरी खिड़की के सामने।'

मैं- क्या मतलब।?

सुखदीप- मैं तो तूझे रोज़ देखती हूँ। तू खिड़की से दूध का गिलास उढ़ेलती है।

मैं- 'तू मेरे खिड़की के सामने रहती है?' तूने कभी बताया नहीं?

सुखदीप- तूने कभी पूछा नहीं।

उसी दिन दोपहर को घर लौटकर, मैंने खिड़की से सुखदीप के नाम से आवाज़ लगाई। 

और यह क्या।,वो सामने वाली खिड़की पर हाजिर।

फिर क्या था, यह सिलसिला चलता रहा। रोज़ सुबह स्कूल के लिए निकलते वक़्त और स्कूल से लौटकर, हमारी दोस्ती वाली बातें खिड़की से शुरू और खत्म होने लगी। 

कुछ दिन बाद, एक दूसरे के घर जाना आना, हर रोज़ शाम को मैदान या पार्क में खेलने जाना चलता रहा। 

प्रथम श्रेणी से चौथी श्रेणी के बीच तक सब ठीक चल रहा था। 

वो कभी-कभी सच्ची झूठी कहानियाँ सुनाया करती और उन कहानियों को सच मानकर, मैं भावनाओं की सोच में पड़ जाती। 

वो रोज़ टिफ़िन में कभी भिंडी, अरबी, बैंगन या फिर शिमला मिर्च की सब्जी लाती थी और हम मिल बाँट कर खाते थे।

एक शाम, अचानक खबर आई कि, उसके पापा का तबादला हो गया है। उन्हे सह परिवार दूसरे शहर जाना होगा। 

कुछ दिन तो, सामान समेटने में निकल गया और कुछ दिन स्कूल से नाम कटवाने में। 

पहले तो कुछ मेहसूस नहीं हुआ, पर धीरे-धीरे इसका एहसास हुआ कि ... मेरी दोस्त जा रही है।

अब...वो सामने वाली खिड़की कभी नहीं खुलेगी। अब वो खिड़की हमेशा के लिए बंद। 

वो...खिड़की वाली दोस्त, आज तक याद है मुझे और हमेशा रहेगी। 

पता नहीं, ये जिदंगी रहते रहते, वो दोस्त फिर मिलेगी भी या नहीं ।


Rate this content
Log in

Similar hindi story from Drama