वो बेफिक्र लड़की

वो बेफिक्र लड़की

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वो बेफिक्र लड़की वैसी क्यों नहीं रही? जितना वो बाहर थी लोग कहते है उतना ही वह भीतर भी। भीतर के भीतर में वह कई रुपों में जीती है ऐसा उसके आस-पास के लोग कहते थे। लोगों के कहने पर उसे हंसी आती थी। कितना कहते है लोग उसके बारे में। उनके पास और किसी चीज के लिए समय नहीं है क्या! पर वह लोगों के बारे में कुछ न कहती थी। वह तो बस सुनती और उड़ा देती। उसकी बेफिक्री ही तो लोगों को पसंद न थी। लोग चाहते थे कि वह फिक्र में रहे। फिक्र में जिए और शायद फिक्र करते-करते ही मर जाये। फिक्रमंद लोगों को दुनिया बहुत पसंद करती है। उनके फिक्रमंद होने में उनका होना निहित था। उनका होना उनकी सार्थकता सिद्ध करता था पर वो ऐसी नहीं थी। यह कोई बात हुई भला। जब सभी हमारी फिक्र करते हैं, फिक्र में रहते हैं, उठते -बैठते भी फिक्र में है, सोते हुए फिक्र करते सोते है और उठते ही पहला शब्द जेहन में उभरता है फिक्र। फिर ये कैसे हो कि वह लड़की उन सब फिक्रमंदों की तरफ से बेफिक्र रहे जबकि वे सब लोग उसकी इतनी फिक्र करते हैं।


यही बात उन लोगों को गंवारा न हुई और यही बात उस लड़की के बेफिक्र रहने की वजह हुई। वह खुद में खोई रहती। खुद के वजूद को अपनीमर्जी से बुनती। उसे खुद के वजूद से इतना प्रेम था कि उसने सोचा कि फिर मैं दुनिया की फिक्र क्यों करुं। यही बात उसकी बातों का आधार बनी। ऐसे खुद से प्यार करते हुए कब उससे भी प्यार कर बैठी जो अपने वजूद से बेफिक्र था और दुनिया से भी। किसी की फिक्र न थी उसे भी। खुद के बारे में तो वह सोचता तक न था। उसका यही बेफिक्रराना अंदाज उसे कभी-कभी फिक्र में डाल देता था जब उसका हृदय उसे देखते ही धड़क जाता। ऐसी धड़कनों से उसकी अलख ही नहीं थी। कुछ अजीब सी खलिस और धुकन रहने लगी थी। इन दोनों स्थितियों में वह ठीक से नहीं थी। बेचैन थी। ऐसा उसे अब लगने लगा। यद्यपि ज्यादा समय नहीं हुआ लेकिन ऐसे कुछ समझ न आया कि ऐसा क्यों हुआ और कब तक ऐसा रहेगा और इसके मायने और प्रभाव क्या क्या होंगे? यूँ अचानक घटित हुई चीजें कभी -कभार फिक्र की स्याही में डुबो डालती। जबकि वह तो बेफिक्र कैफियत की लड़की है। अचानक यूँ घटित हुई चीजों से वह थोड़ा कतराती है। इन घटनाओं का भरोसा उसे नहीं होता। ये घटनायें चट से कभी यू टर्न पर जिंदगी को छोड़ देता है या कभी कहीं किसी बंद गली के आखिरी मकान के पास ले जा पटकता है। और भी न जाने क्या-क्या कर डालती है ये अचानक हुई घटनायें।


कभी किसी दिन ऐसी ही एक घटना ने उसे एक जीवन की सीढ़ी से नीचे उतार दिया था जबकि वह तो पकड़म-पकड़ाई खेलते हुए डाम आने के डर से धड़ाधड़ सीढ़ियां चढ़ रही थी। पहले भी कई बार चढ़ी है बल्कि बचपन से आज तक अनगिनत बार चंचल फुंदी सी उछलती रही है। पापा लाड़ लड़ाते और भाई से नोंक-झोंक चलती ही रहती फिर भी भाई -बहनों में बहुत प्रेम था। ऐसा कई साल चला था। वह बहुत खुश थी। पर अक्सर माँ उसे दौड़ता देख कर चिंतित होती। वो ठगी सी देखती और बुलाकर कुछ फुसफुसाती, इशारों में पूछती। वह भौंचक देखती पर कुछ समझ न पाती उन इशारों को। उसे लगता कि माँ उसकी अच्छी दोस्त होनी चाहिए पर है नहीं। भाई अच्छा दोस्त है। पूछने पर वह टगमग माँ को जोहती और माँ के चेहरे पर तसल्ली की रेखायें उभर आती जो अभी तो तसल्ली पर फिर दूसरे इंतजार की राह होती। वह धीमे से माँ की बांहों से सरकने लगती और फिर से दौड़ लेती सखियां-साथियों संग चौंहटे में। पर अक्सर ही कोई सखी तबियत ठीक नहीं है यह कहती हुई चुप बैठी रहती। वो लड़कों से भी बात नहीं करती जिनके संग कुछ दिन पहले हुल्लड़ मस्ती घुल रही होती। वो पूछती कि क्या हुआ है पर उनका जवाब यही होता कि तू नहीं समझेगी ‘अभी’। अभी मतलब? इसका मतलब बाद में कभी समझ ही जायेगी। वह कुछ सोच पाती उससे पहले ही कोई सखी पाले में खींच लेती और वह फिर से गुम अपने बचपन के समंदर में।


 इसी समंदर की लहर के साथ वह सीढ़ियां भागते हुए चढ़ रहीं थी पर आज सुबह से ही पेट में हल्का दर्द चल रहा था। ऐसा दर्द जो बेचैन नहीं कर रहा था पर चैन भी नहीं लेने दे रहा था। चुप बैठने पर तेज दर्द महसूस होता और हरकत करने पर जरा कम। वो रोज वाली पूरी उड़ान नहीं ले पा रही थी। कुछ था जो उसके पंख को रोक रहा था। फिर भी उसको भुलाकर भागी चली जा रही थी। जब -तब कुछ उतरता हुआ सा प्रतीत हो रहा था। जैसे केंचुली सी छूटी जा रही हो, जैसे कुछ रिस रहा हो गरम-गरम। जिस्म से एक परत भूस्खलन सी खिसकती जा रही हो। पेट में, पेडू में रेंगती चींटियां उसका ध्यान खींच ही लेती। बार-बार पीछे मुड़कर देखती कुछ जैसे छूट रहा हो पीछे निशान जैसा। नजरें बार -बार फ्रॉक के पीछे घेर की तरफ चली जाती। इन सब उलझनों से उलझी वह थकने लगी तो दम मारने के लिए बैठने की कोशिश में थी किंतु डाम न आ जाये इस लिये अधबैठी ही उठ खड़ी हुई। अब सीढ़ियां उसके पैरों के नीचे से भागी चली जा रही थी और भीतर से केंचुली शरीर से बेदखल हुए जा रही थी। पर माँ आंगन में गार लीपते हुए उसकी ओर संदेह और सहमी नजरों से देखे जा रही थी। वह भरसक कोशिश कर बेफिक्र सी होकर उसके गारे से भरे हाथ और फ़िक्र की मुद्रा पछाड़ते हुए एक बार मुड़कर देखा तो माँ उसी की ओर तेजी से आते दिखायी दी। अरे रुक बुलबुल! धीमी सी गुणमुण आवाज में जाने कैसी तीव्रता, मर्म और अर्थ छुपा था कि चार आवाजें भी नहीं सुनने वाली के पांव एक बार में ही वहीं जम गये। कभी मुंह से जरा उंचा भी न बोलने वाली माँ आज भी धीमे से ही बोली थी। ऐसा तो वह कभी सुनती ही नहीं है पर जाने क्या था...। बाबोसा और दादोसा के रहते शीघ्र की बींदणियां उंचा बोलना छोड़ तेज बोलने का सोच भी नहीं पाती। ऐसे में वह उनका खूब फायदा उठाया करती मनमर्जी और बिनमर्जी के कामों में भेद करके। आज सीढ़ियां भी माँ की तरह उसे थाम कर खड़ी थी। वह जम गई वहीं। उसे पता है माँ आज भी फुसफुसा कर छोड़ देगी। पर नहीं आज वह तन और मन से बुरी तरह रिस रही है। पिघलती हुई ज़ार-ज़ार रेला हुई जाती है। माँ ने करीब खींच कर सीने में छुपा लिया। उस पल वह बहुत प्यारी लगी। वही भी लिपट गई। उसे लगा माँ से प्यारी और भरोसेमंद और कोई है ही नहीं। माँ के भीतर दुबकना और माँ ने ओढ़ने से उसे पीछे से पिंडली तक ऐसे ढका जैसे वह उसे फिर से अपने भीतर सहेज लेगी। जाने किससे छुपाकर वह उसे साल में ले गई। सुबह से ही अजीबियत से घिरी वह निरी पालतू सी चल पड़ी। माँ तुमने कैसे पहचाना कि मैं तकलीफ में हूँ। माँ ने फ्रॅाक बदलवाई और कान में कुछ फुसफुसा कर कहा तो वह जैसे एकदम बदल गई। 3-4 दिन ज्यादा उछलने की न हिदायत देते हुए कहा कि जा खेल ले! पर वह जा ही न पाई। उस दिन चढ़ती सीढ़ियों से नीचे उतर कर आई और उस अचानक घटना ने एक यू टर्न ले लिया। वह पहले जैसी न रही। अपने आप को पूरी तरह समेटती सहज रहने की खूब कोशिश करती पर न जाने क्या बदलाव आ जाता हर थोड़े दिनों में कि वह निढाल सी पडी रहती। अक्सर चुप सी एक तरफ बैठी रहती और पूछने वाली को ‘तू अभी नहीं समझेगी’ कह उठती। माँ-दादी, भाभी -जीजी की सीख की कतरनें उसे बोझिल कर देती। वह फुंदी होना चाहती है फिर से पर जाने क्यों हुआ न जाता। जाने कहां से झोला भर शालीनता आ पड़ी और वह निरंतर दबती जा रही है। कुछ समय बाद ही पाया कि सखियों की टोली काफी खाली हो चुकी है। ज्यादातर चेहरे नये है। उस दिन वह बहुत उदास हुई और फुंदी सी लहराने की आस खत्म हो गई। साथ वाले लड़कों में भी जाने कब बदलाव आये कि उनको पुकारने में जबान अटकती है। आवाज बहुत ज्यादा भारी हो गई है। बहुत ज्यादा बात न कर पाती उनसे भी। उसे लगा अब पहले जैसी सुखी और निश्चिन्त अब कभी न हो सकेगी। ये एहसास उसे दुखों से भर देता। उसे सचमुच ही लगता जैसे उसकी केंचुली उतर रही है। अब वे दिन किसी के भी वापिस ना आ पायेगें जो पहले थे। गुड्डू, चंदा, भूरी, बिनू, ललिता भी तो बदल चुकी है। कुछ समय बाद वे भी एक-एक कर बाहर बैठने लग गई। महज आठवीं-नवमी में आये इस परिवर्तन ने सबकी सूरतें बदल दी। अब कुछ दिनों से उस समय की उसकी चाह रही भी नहीं। चौंहटे में अब छोटी लड़कियों का ग्रुप खेलता है जिनको कुछ समय पहले गोद में उठाये घूमती थी। उसकी अपनी सखियाँ अब उसकी तरह ही लजालु होकर निपट घर का काम करती है। अपनी सखियों बिना उसे वो चौंहटा वो समय चाहिये भी नहीं। हुंह, सुखद समय के फिसलने के दुख में वह यह नहीं देख पाई कि जो समय उसके उपर पैर रखकर आगे आया है वह आनंद भरी है। लोग इसी उम्र की बलैया लेते है। मनुष्य के जीवन काल का स्वर्णिम समय होता है। पर वह नादान थी। तन की नादानी का मन की नादानी से मेल नहीं था। दोनों आगे पीछे रह गए रेस के खिलाड़ियों की तरह...


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