हल (लघु कथा)

हल (लघु कथा)

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निशा सवेरे सवेरे काम की भागा दौड़ी के साथ ही मनु को स्कूल के लिये तैयार होने के निर्देष दिये जा रही थी लेकिन रोज के विपरीत वह काम में तत्परता न दिखा कर उसका ध्यान लगातार दरवाजे की ओर था जो बाहर की तरफ खुलता है। फिर ख़ुद ही जल्दी से तैयार कर उसको को बस में बिठाया। कुछ क्षणों बाद ही बस आँखों से ओझल होने लगी। निषा जैसे ही घर की तरफ पलटी तो पाया कि ,एक जोड़ी आँखें भी बस की पीठ का पीछा कर रही है। उन आँखों वाले चेहरे में जाने क्या था कि वह कुछ क्षण बस दखते ही रह गई। एक लालसा सी उग आई थी उस तकते चेहरे पर।

  ‘‘ऐ!छोकरे! इधर आ। उठा ये और उधर डाल..’’

उस सात -आठ साल के लड़के ने थामी हुई तगारी नीचे रखी और मायूस सा धीरे-धीरे उसमें ईंटें भरने लगा। हाथ यंत्रवत् काम कर रहे थे लेकिन उसका मन तो जैसे बस के पीछे ही अटका रह गया था। बार-बार बस की दिषा में देख जा रहा था।

     तो  अब तक ये मनु को स्कूल के लिये तैयार होते देख रहा था! और मनु भी अपनी ही उम्र के लड़के को स्कूल न जाकर उसके घर के सामने बनने वाले बंगले में  इतनी सवेरे, सर्दी में मजदूरों की तरह यहाँ काम करते देख न जाने किन सोचों में गुम था! निषा की आँखेां में नमींं उतर आई। जाने क्या मजबूरी रही होगी माँ-बाप की कि पढ़ाने की बजाय कमठे का इतना मुष्किल काम करने भेजना पड़ा।

लालसा भरी वे आँखें दिन भर याद आती रही निषा को। हसरत,मायूसी में डूबे उस बच्चे की क्या मदद करुँ? कुछ रुपये दे दूँ या स्कूल में भर्ती करा लूँ या कुछ और। मदद करने का एक आवेग उठा लेकिन निषा जानती है कि हमेषा सहायता करते रहना और क्षणिक जोष में बहुत फर्क़ होता है । फिर इस महँगाई में दो बच्चों को ही पढ़ा पाना मुश्क़िल है....।

  शाम को बच्चों के खेलने से बहुत शोर मचा रहता बरामदे में। आज कुछ शांति सी लगी तो उत्सुकतावष बरामदे में झाँका। मनु का बैग खुला पड़ा था।उस बच्चे के हाथ में पेंसिल पकड़ी हुई थी और उसी के हाथ को पकड़ कर मनु कॉपी में  लिखवा रहा था..‘अ.. से अनार...!                                            


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