विश्वास
विश्वास
आज सुबह से ही वसुधा कुछ असमंजस में थी। एक तरफ़ खाना बनाती, सो दूसरी ओर उसका मन मस्तिष्क से द्वंद करता प्रतीत हुआ केशव को।
"क्या हुआ वसुधा, इतनी परेशान और विचलित क्यों हो, अब तो धीरे धीरे, देश खुल रहा है, वो क्या कहते है.. "
"जी "उनलॉक"" - वसुधा ने कहा।
"हाँ, वही, उनलॉक, वसुधा तुम देखना अब कान्हा सब कुछ ठीक कर देंगे, हमारा ढाबा फिर से पहले की तरह चलने लगेगा।" केशव ने वसुधा की उदासीन आँखों में झांक कर विश्वास पूर्वक कहा।
"जी, यह द्वापर नहीं कलयुग है, यहाँ कान्हा नहीं आते, पर हाँ सुदामा बहुत मिल जायेंगे। "
पिछले 3-4 महा से, मानो वसुधा का विश्वास चरमरा सा गया था। इस लॉकडाउन ने, उनकी दुनिया ही बदल कर रख दी थी। आत्मनिर्भरता, सोशल डिस्टेंसिग तो बहुत पहले ही, बच्चों ने सिखा दी थी वसुधा, और केशव को, पर इस लॉकडाउन ने, जीवन के प्रति आपार संघर्ष भी सिखा दिया।
जहाँ एक तरफ़ लोग अपने घर जाने के लिए, पैदल ही पलायन कर रहे थे, वही दूसरी ओर, किराये के घर में रह रहे वृद्ध दंपति, किराया भरने में असमर्थ थे, सो केशव और वसुधा को, घर खाली करने का अल्टीमेटम मिल चुका था।
फर्क सिर्फ इतना था, मज़दूर अपने घरौंदों की छाँव में लौट रहे थे, और केशव वसुधा मजबूर हो एक नया घरौंदा तलाश रहे थे।
"अरे वसुधा, आंच धीमी करो, वरना सब्जी का रसा कम हो जायेगा, और साथ स्वाद पर भी तो असर पड़ेगा।" केशव ने वसुधा को अपने बूढ़े थके हाथों से झकझोरते हुए कहा।
"क्या आज ??? कोई आयेगा, हमारे ढाबे पर, मटर आलू की सब्जी और गरमा गर्म पूरी खाने।
क्या आज हम इतने पैसे कमा पायेंगे, की सब्ज़ीवाले का उधार चुका सकें??
क्या आज हम ख़ुद के लिए एक वक़्त का निवाला भी जुटा पायेंगे ??? "
मानो वसुधा का हृदय, परिस्थिति रूपी आंच पर, उबल रहा था, अब आंच धीमी हो, या तेज, जिंदगी रूपी पकवान का स्वाद तो बिगड़ ही गया था।
"आपने इतनी जद-ओ- जहद के बाद तो यह छोटा सा ढाबा खोला था। लगा कि जीवन की बची कुची जमापूंजी से, ढाबा खोल, अपना घर चला सकेंगे, पर लॉकडाउन ने तो ढाबे को ही घर बनाने पर मजबूर कर दिया।"
इसी ताने बाने के बीच, केशव ने मास्क पहन अपने झुर्रियों भरे हाथों में, सैनीटाइजर पकड़, ढाबे का स्लैप साफ़ करना शुरू कर दिया।
उसी बीच वसुधा ने अपने काँपते हाथों से, सब्ज़ी का भगोना पटल पर रखा, और कड़ाई में पूड़ी तलने के लिए तेल गर्म करने रख दिया।
"तेल अच्छे से गर्म हो गया न वसुधा, जैसे ही ग्राहक आयेंगे, तुरंत ही गरम पूड़ी निकाल कर देनी पड़ेगी। "केशव ने मानो, वसुधा की सुस्त, निराश देह में स्फुर्ति भर दी हो।
केशव ढाबे के बाहर बैठ, ग्राहकों का तत्परता से इंतज़ार करने लगा। गाड़ियाँ आती और बिना रुके आगे बढ़ जाती।
केशव ने मज़बूर हो, कुछ गाड़ियों को, पैदल जा रहे राहगीरों को रोक, अपने ढाबे पर खाना खाने का इशारा भी दिया, पर शायद किसी ने केशव की वृद्ध, उम्मीद भरी आँखों में झांका ही नहीं, शायद किसी के पास समय ही नहीं था।
तेल ज़्यादा गरम हो जायेगा तो जलने लगेगा जी, में आज फिर, चूल्हा बंद कर देती हूँ, मानो वसुधा की निराशा भी अब तेल की भाती चरम पर थी, जो निराश होते होते भी थक चुकी थी।
केशव, मानो आज टूट सा गया, उसकी आँखों से बहता वो मजबूरी का सैलाब भी धरा पर गिर, मिट्टी में उसके अस्तित्व की भाती लुप्त हो जाता।
वही दूसरे छोर पर खड़ा एक राहगीर केशव के इन हताश क्षणों को अपने मोबाइल में कैद कर रहा था।
पैसे तो अब न के बराबर ही थे केशव के पास, सो ढाबा ना चलने की सूरत में, बनी हुई सब्ज़ी ही मंडीवालों को देने का फैसला लेना पड़ा।
"कान्हा अब तो आ जाओ, तुम्हें मेरे अचल विश्वास की सौगंध" कह केशव, सामने की दुकान से आज फिर एक दूध की थैली और २ बंध ले आया था।
अगली सुबह,
वसुधा ने केशव को झकझोर कर उठाया।
"क्या हुआ??? वसुधा",
"देखिये न, बाहर बहुत शोर हो रहा है, अब कहीं ढाबा तो नहीं खाली करना है हमें। "
केशव ने घबरा कर, ढाबे का शट्टर उठाया, वो शांत और स्तब्ध था, केशव को यूं देख, वसुधा भी धीमी गती से केशव के पास आई , " क्या हुआ जी ??? अब हम ढाबा खाली कर कहाँ जायेंगे "
वसुधा, जल्दी से सब्जी और पूड़ी बनाओ, ग्राहकों को खाना जो खिलाना हैं।
बाहर काफी लोग खाना खाने के लिए एकत्रित थे, यह उस वीडियो शूट का कमाल था, जो किसी राहगीर ने कल सोशल मीडिया पर उपलोड कर दिया था।
केशव ने मुस्कुराते हुए वसुधा से कहा-
"कहा था ना वसुधा , इस सुदामा के लिए कान्हा जरूर आयेगे। "
उसकी बूढ़ी, झुरियों से भरी आँखों में ख़ुशी के आँसू थे।
जिंदगी के कुछ डगमगाते पलों में अडिग विश्वास की कहानी, लेखिका की ज़ुबानी।
(बाबा का ढाबा के वृद्ध दंपति को सादर समर्पित)
