विमोचन
विमोचन
सभागार सौ दौ सौ लोगों से खचाखच भरा हुआ। चारों ओर चकाचौंध करती लाइट में दमकती पुष्प लड़ियाँ भव्य सम्मेलन की साक्षी थींं। तालियों की गड़गड़ाहट और पुष्प गुच्छ के साथ जाने माने नामचीन साहित्यविदो के हाथो श्रीमती यशोदा जी के तीन काव्य संकलन का विमोचन हुआ।
सभी ने आपने सकारात्मक पक्ष को रखते हुए पुस्तक की तारीफ में खूब बढ़ाचढ़ाकर कर कशीदे पढ़े। यशोदा की खुशी का ठिकाना न था।आखिर हो भी क्यों न ? क्यों कि एक साथ तीन पुस्तकों का विमोचन।
इतने में मंच पर आवाज आई आदरणीय अध्यक्ष महोदय श्री श्यामा प्रसाद जी पुस्तक पर अपने विचार रखेंगे। श्यामा प्रसाद जी पुस्तक विमोचन से लेकर बीच के समय में पूरी किताब का एक्सरे कर गये,चालीस पेज की किताब आधे घंटे में पूरी हो गयी।अब श्यामा प्रसाद जी एक सच्चे साहित्यकार थे,वे अपनीं साफगोई के लिए जाने जाते थे। पर उनके माथे कि शिकन साफ चुगली खा रही थी। शब्दों के मोती बिखर रहे थे। वे झूठ बोलना नहीं चाहते और सच कहने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे। फिर भी उन्होंने केवल कुछ काव्यांश को आधार बनाकर अपनी बात बाकी लोगों की तरह सकारात्मक रूप में रखी।
पर अपनेे कहे शब्द ही मानों उन्हे भरे सभागार में नंगा कर रहे थे। जमीर ललकार रहा था कि कबतक मुझे मारोगे, जो पुस्तक त्रुटियों से पूर्ण हो और जिसमें सुधार की कोई गुंजाइश न हो ऐसी पुस्तकों का विमोचन। और आप चारण बन गा रहे हो विरदावली, धिक्कार है। युवा पीढ़ी को सौप रहे हो यह विकृत संस्कार। महज इसलिए कि, आप अपनी प्रिय लेखिका को नाराज नही कर सकते।
कार्यक्रम से लौटनें के बाद उन्होनें प्रण लिया कि वे आगे से किसी भी पुस्तक पर प्रतिक्रिया निष्पक्ष रूप से करेंगे भले ही उन्हें कोई अपनें कार्यक्रम मेंं बुलाए या न बुलाये। सच्चे साहित्यकार का यह फर्ज और साहित्यिक उत्तरदायित्व है कि आने वाली पीढ़ी शुद्ध साहित्यिक परिवेश को धारण करे।