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Sangita Mathur

Tragedy

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Sangita Mathur

Tragedy

विदाई

विदाई

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‘कोई लड़की ड्राइंगरूम में इंतजार कर रही है’ यह खबर तो सुजाताजी को बाई से मिल गई थी पर वे कॉलेज जाने के लिए पूरी तरह तैयार होकर ही बाहर आईं.

‘देखिए मैं कॉलेज की बात कॉलेज में ही सुनना पसंद करती हॅूं.’ ड्राइंगरूम में घुसते ही उन्होंने स्पष्ट कर दिया था. फिर वे आगंतुका को गौर से देखने लगीं.‘यह तो कोई परिचित भी नहीं है’

‘जी, मैं किसी व्यक्तिगत काम से आई हूँ ’

सुजाताजी ने घड़ी देखी. अभी कॉलेज जाने में काफी वक्त था. बाई को चाय बनाने का कहकर वे सोफे पर विराजमान हो गई.

‘सुदर्शन सिन्हा की याद है आपको? अकोला में आप लोग टीचिंग में साथ थे.’ बिना किसी भूमिका के लड़की ने सवाल दाग दिया. सुजाताजी को करंट सा लगा. व्यक्तिगत काम के नाम पर यह लड़की सीधे उनके व्यक्तिगत जीवन में इतने अंदर तक घुसपैठ कर जाएगी, उन्होंने सोचा भी नहीं था.

‘आप हैं कौन? क्यूॅूं पूछ रही हैं यह सब?’ इस बार स्वर कड़क प्रिंसीपल मेम का था.

‘मैं उनकी बेटी हॅूं, एकमात्र संतान-अपूर्वा! आपकी जिंदगी में उनकी और उनकी जिंदगी में आपकी क्या अहमियत रही है, अच्छे से जानती हूूं.’ कहते हुए उसने एक डायरी निकालकर टेबल पर रख दी. सुजाताजी की प्रश्नवाचक निगाहें डायरी पर टिक गई.

‘यह पापा की डायरी है. मम्मी के गुजर जाने के बाद एक दिन पापा की अलमारी साफ करते हुए मुझे मिली. मम्मी के रहते शायद उन्होंने इसे कहीं ओर छुपाकर रखा होगा. और मम्मी के जाने के बाद यह सोचकर कि अब कौन देखने वाला है यह डायरी अलमारी में ही छुपा दी होगी. जो भी हुआ हो, अनजाने ही यह मेरे हाथ लग गई. और मेैं उनकी जिंदगी के इस अनछुए पन्ने को पूरा पढ़ गई. पापा मम्मी में असीम प्रेम था. मेरे लिए वे दुनिया के सबसे आदर्श दंपति थे. पर यह पढ़ने के बाद मैं ही नहीं समझ पा रही हॅूं कि पापा मम्मी से ज्यादा प्यार करते थे या आपसे? पहले मजाक में मैं यही सवाल पापा से किया करती थी कि वे मम्मी को ज्यादा प्यार करते हैं या मुझे? और पापा कहते थे मेरा दिल इतना विशाल है, उसमें प्यार का सागर इतना गहरा है कि न कभी तुम्हारे लिए प्यार की कमी होगी, न तुम्हारी मम्मी के लिए. लगता है उस सागर में कुछ....नहीं कुछ नहीं, बहुत बहुत सारी आपके नाम की ऊर्मियां भी प्रवाहमान रहकर उनके जीवन को स्पन्दित किए हुए है.’

सुजाताजी स्तब्ध सुन रही थीं. कितनी आसानी से यह बित्ते भर की लड़की उनकी जिंदगी के इतने बड़े राज का उन्हीं के सम्मुख पर्दाफाश किये जा रही है. उसकी बातें सुनकर तो वे भी अतीत के सागर में गोते लगाने लगी थीं. उनका और सुदर्शन का प्यार परिपक्व था. कॉलेज में पढ़ने वाले कच्ची उम्र के लड़के लड़कियों की तरह भावुक, सतही और अतिरंजित नहीं. अब सोचती हैं तो लगता है काश वैसा होता तो वे भावनाओं में बहकर, जमाने से बगावत कर फिल्मी स्टाइल में हमेशा हमेशा के लिए एक दूजे के हो जाते. पर दूसरों को शिक्षा देने वाले परिपक्व, आदर्श शिक्षक ऐसा कैसे कर सकते थे? उन्हें तो सबके बारे में सोचना था-परिवार, समाज, कॉलेज की प्रतिश्ठा....और बस, सबकी मर्यादा बनाए रखने में उन्हें अपने प्यार को मिटाना पड़ा. सुदर्शन को तो माता पिता के अत्यधिक दबाव में आकर शादी भी करनी पड़ी. किंतु सुजाता ऐसा नहीं कर पाई. रिश्ते तो उसके लिए भी बहुत थे फिर वह अविवाहित क्यूॅं रही? आज सोचती है तो लगता है माता पिता का न होना ही एकमात्र कारण नहीं था. दबाव बनाने वाले तो दूसरे भी थे. पर वही एक तरह से जिद पर उतर आई थी कि उसे कभी शादी करनी ही नहीं है. कहीं जेहन में सुदर्शन को यह दर्शा देने का हठ भी था कि वह अपने प्यार से पीछे हट सकता है पर सुजाता नहीं. जिंदगी के उत्तरार्द्ध में जब दोनों के रास्ते जुदा हो गए, परस्पर संवाद संप्रेशण शून्य हो गया तब सुजाता को कभी कभी अपने अकेले रह जाने के निर्णय पर अफसोस भी होता था. जिनको वह दर्शाना चाहती थी वे तो सब कबके अपने अपने घर परिवार में व्यस्त हो गए. किसे परवाह है उसकी?शायद उसका चयन ही गलत था. रिश्ते अंकुरित होते हैं प्रेम से,जिंदा रहते हैं संवाद से, महसूस होते हैं संवेदनाओं से, जिये जाते हैं दिल से, मुरझा जाते हैं गलतफहमियों से और बिखर जाते हैं अहंकार से.

चाय के कप खनके तो सुजाताजी वर्तमान में लौटी. अतीत की चोट खाई प्रेयसी सुजाता फिर से कड़क प्रिंसीपल बन गई. चाय का कप थामते हुए उन्होंने गंभीरता से सवाल किया,‘मुझसे क्या चाहती हो?’

‘आप पापा की जिंदगी में लौट आएं’

संभालते संभालते भी सुजाताजी के हाथ से चाय छलक उठी. लड़की के दुस्साहस पर वे दंग थीं. बिना किसी भूमिका, बिना किसी लागलपेट के वह गोले पर गोले दागे जा रही थी. चंद मिनटों और चंद अल्फाजों में ही उसने विगत, वर्तमान, भविश्य सब समेट लिए थे. सुजाताजी की स्वयं की यही शैली थी.इसलिए उन्होंने भी स्पश्ट पूछ लिया,‘इसे तुम्हारे दिल की बात समझॅंू या तुम्हारे पापा की?’

‘पापा के दिल की बात मैं अपनी जुबां से आप तक पहुंचा रही हॅूं. उन्हें तो इल्म भी नहीं है कि यह डायरी मेरे हाथ लग चुकी है.’

‘ओह!’सुजाताजी को थोड़ी निराशा हुई, जिसे अपूर्वा ने तुरंत भांप लिया.

‘मैं यह प्रस्ताव पापा से प्रत्यक्ष भी रखवा सकती हॅूं. बस डर यह है कि वे ठहरे हार्ट पेशेंट! बहुत खुशी, बहुत दर्द दोनों सहने में असमर्थ?’ अपूर्वा की अर्थपूर्ण नजरें सुजाताजी पर टिकी हुई थीं.‘कहॅूं उनसे?’

‘नहीं नहीं! मैं वैसे भी अभी इस सबके लिए तैयार नहीं हूूूॅं.’

‘प्लीज़ आंटी,जरा जल्दी निर्णय लेना. मेरे पास वक्त कम है.’

‘क्यूॅं तुम कहां जा रही हो? शादी तय हो गई हेै क्या?’

‘ऐसा ही समझ लीजिए. आज नहीं तो कल, कल नही ंतो परसों,मेरी तो उस घर से विदाई होनी ही है. पर उससे पूर्व मैं पापा की ओर से निश्चिंत हो जाना चाहती हूूॅं..... मैं अब चलती हॅूं. ट्रेन का समय हो रहा है.पापा से सहेली की मंगनी में जाने का बहाना करके आई थी. पर उन्हें ज्यादा देर अकेले छोड़ते डर लगता है.यह हमारा पता और फोन नंबर्स हैं. वैसे मैं समय समय पर कॉल करके आपसे आपका जवाब पूछती रहॅूंगी. जब तक कि आप हॉं नहीं कर देगीं. बहुत जिद्दी हॅूं मैं!आपसे भी ज्यादा.अब यह मत पूछिएगा कि मुझे कैसे पता?’हॅसते हुए उसने सुजाताजी को एक पर्ची थमाकर विदा ले ली थी. पर्ची थामे हतप्रभ सी खड़ी सुजाताजी देर तक उसे जाते हुए देखती रह गईं.बाई ने कॉलेज जाने की याद न दिलाई होती तो वे जाने कब तक ऐसे ही बुत की तरह खड़ी रहतीं.

कॉलेज में भी उनका मन नहीं लगा. ऐसा लग रहा था बरसों से सुप्त शरीर का कोई तार फिर से झनझनाने लगा है और उससे उभरता नाद उनसे उसे सुरों में ढाल देने का आग्रह कर रहा है. मन व्याकुल हो रहा था उस सुरसरिता में बह जाने के लिए लेकिन बरसों से संचित जिद जो कि अब ईगो नामक विशालकाय चट्टान में तब्दील हो गई थी बार बार उस प्रवाह में अवरोध बनकर खड़ी हो जाती.

शाम को ताला खोलकर घर में घुसते ही उनकी नजर टेबल पर छूटी डायरी पर पड़ी.‘अरे, यह डायरी तो यहीं रह गई.’ लपककर डायरी उठाकर वे उसके पन्ने पलटने लगीं.प्रेमरस में सरोबार एक एक पन्ना उन्हें आनन्दरस में डुबोता चला गया.जितना सुदर्शन ने उन्हें पहचाना था उतना तो वे खुद भी अपने आपको नहीं जानती थीं. अंतिम पृश्ठ तक पहुंचते पहुंचते तो वे अपनी सुधबुध बिसरा चुकी थीं.इतना टूटकर तो शायद उन्होंने भी सुदर्शन को नहीं चाहा था. अपूर्वा की ईर्श्या गलत नहीं थी.

‘हूं, अब समझ आया. वह चालाक लड़की मुझे डिगाने के लिए जानबूझकर यह डायरी यहां छोड़ गई है.’ सुजाताजी के मन में अपूर्वा के प्रति ढेर सारी ममता उमड़ आई. खाना वगैरह खाकर दिन भर की मेल्स चेक करने लगी तो एक सेमीनार का आमंत्रण देख चौंक पड़ी.यह तो सुदर्शन के शहर में हो रही थी. बेख्याली में ही सुजाताजी ने अपनी स्वीकृति भेज दी.

सवेरे उठीं तो दिमाग में फिर से अन्तर्द्वर्न्द्व सर उठाने लगा. यह वह क्या करने जा रही है? आधी से ऊपर जिंदगी सम्मान से सर उठाए गुजार दी. अब इस उम्र में इस तरह किसी की गृहस्थिन बनकर क्यूॅं वे अपनी छीछालेदार करवाने की सोच रही हैं?.....एक बार जाकर मिल आना ही पर्याप्त होगा. कह देगी कि आपकी तबियत का हवाला देकर आपकी बेटी ने बहुत मिन्नतें की तो एक बार देखने चली आई.पर इससे ज्यादा उनसे कोई अपेक्षा न रखी जाए.

अभी यह मानसिक अन्तर्द्वर्न्द्व चल ही रहा था कि अपूर्वा का फोन आ गया.‘आंटी आप आ रही हैं न हमेशा हमेशा के लिए? देखिए, मेरी विदाई से पहले पहले जरूर आ जाइएगा.’उसका स्वर भावुक था.

‘कब की तय हुई है शादी?’

‘तीन महीने बाद विदाई है.आप आ जाएं तो मैं चैन से इस घर से विदा हो सकूंगी.’

‘तुम तो ऐसे बोल रही हो जैसे वापिस कभी लौटकर आओगी ही नहीं. बहुत दूर है क्या ससुराल?’

‘हां आंटी, बहुत दूर है.मुझे वहां हर वक्त पापा की चिंता सताती रहेगी. आप उनके पास होगीं तो मैं निश्ंिचत रहूंगी. क्योंकि आप उनका मुझसे भी ज्यादा ख्याल रखेगीं.’

‘तुम उन्हें अपने साथ ही क्यूॅं नहीं ले जाती?’

‘नहीं, यह संभव नहीं है.मैं आपको थोड़े दिन बाद फिर से कॉल करती हूॅॅं.प्लीज़ आंटी मान जाइए न,मैं सुकून से विदा हो सकूंगी.’प्यार भरे आग्रह के साथ अपूर्वा ने फोन बंद कर दिया था. सुजाताजी सोच में डूब गई थीं. अपूर्वा के तर्कों से वे सहमत थीं. सुदर्शन जैसा स्वाभिमानी इंसान कभी बेटी के ससुराल जाकर रहना पसंद नहीं करेगा. और पापा की देखभाल का कोई पुख्ता इंतजाम किए बिना अपूर्वा चेैन से विदा नहीं हो पाएगी. लेकिन वह क्यों दोनों के लिए बलि का बकरा बने?.....इसमें बलि का बकरा बनने जैसी बात कहॉं से आ गई? इस बहाने तो उसकी अपनी जिंदगी संवरने जा रही है. उसे जीने का एक मकसद मिल रहा हेै, बरसों बाद अपना प्यार मिल रहा है, एक परिवार मिल रहा है. अब यदि यह मौका भी गंवा दिया तो वह हमेशा हमेशा के लिए एकांतवास के कारागार में कैद रह जाएगी.

असमंजस में डूबी सुजाताजी ने सेमीनार में जाने की तैयारी तो आरंभ कर ही दी.डायरी भी साथ रख ली.बाकी वहां जाकर देखा जाएगा.इस बीच अपूर्वा के दो फोन आ गए थे. अब उसके आग्रह भरे फोन जल्दी जल्दी आने लगे थे. सुजाताजी हर बार कोई न कोई संशय प्रस्तुत कर देतीं.

‘अलग अलग शहरों में, अलग अलग नौकरी में फॅसे दो लोग कैसे साथ रह पाएगें?’

‘पापा ने गत वर्श ही वी आर एस ले लिया है.अब उनका कहीं किसी काम में मन नहीं लगता.डायरी लिखना भी छोड़ दिया है.मुझे उनकी बहुत फिक्र रहती है. मेरे जाने के बाद उनका क्या होगा?प्लीज़ आंटी.......’

अपूर्वा की विनम्र प्रार्थनाओं ने अंततः सुजाताजी को पिघला ही दिया. सेमीनार समाप्त होते ही उन्होंने अपूर्वा के बताए पते की ओर रूख कर लिया था. काफी समय से अपूर्वा का फोन नहीं आया था.खुद सुजाताजी ने भी सरप्राइज़ देने के मंतव्य से अपनी ओर से फोन नहीं किया.

दो तीन बार घंटी बजाने पर भी किसी ने दरवाजा नहीं खोला तो किसी अनजानी आशंका से सुजाताजी का दिल धक धक करने लगा. कान लगाकर सुनने का प्रयास किया पर अंदर छाई मनहूसियत भरी चुप्पी ने उन्हें बेतरह भयभीत कर दिया. अपूर्वा की आशंका गलत नहीं थी. बेचारी इसीलिए ससुराल जाने से पूर्व पापा की ओर से निश्ंिचत हो जाना चाहती थी. मैं ही बेवकूफ थी. व्यर्थ की आशंकाओं और अपने ईगो के दायरे मे कैदी बनी रही. और आने में इतनी देर कर दी.जिंदगी कितनी छोटी और कितनी बहुमूल्य होती है, उसके सम्मुख ये सब बातें कोई मायने नहीं रखती.हे ईश्वर मुझे एक मौका और दे दो, सिर्फ एक मौका...

ईश्वर ने सुजाताजी की सुन ली क्योंकि अगले ही पल दरवाजा खुल गया था.

‘बाथरूम में था. आने में समय लग गया. कहिए क्या काम है?’ऐनक के पीछे से झांकती कृशकाय शरीर पर टिकी एक जोड़ी ऑंखें सुजाताजी को घूर रही थीं पर उनमें पहचान का कोई चिन्ह उभरता न देख सुजाताजी को थोड़ी निराशा हुई. खुद वह भी कहां अपनी भावनाओं को नियंत्रित कर पा रही थी?इतने बरसों बाद अपने पहले और अंतिम प्यार को इस रूप में सामने पाकर खुशी,सहानुभूति,हया जैसे मिले जुले उद्वेगों ने उनके मुंह पर ताला लगाकर भावनाओं के अतिरेक को नेत्रों के माध्यम से बाहर निकलने पर मजबूर कर दिया था. डबडबाई आंखों में उमड़ा भावनाओं का सैलाब सामने खड़े हाड़ मांस के इंसान को अपने साथ बहा ले जाने में कामयाब रहा.सुजाताजी के थरथराते होठों से निःशब्द निकले ‘सुदर्शन’ शब्द के प्रत्युत्तर में खुशी और आश्चर्यमिश्रित संबोधन ‘सुजाता’ गंूजा तो हर्शातिरेक से सुजाताजी के अवाक मूक गले को भी स्वर मिल गए.‘हॉं सुदर्शन हॉं, तुमने मुझे पहचान ही लिया.’

अंदर आकर बैठते बैठते सुजाताजी ने अपूर्वा के उन्हें ढूंढ निकालने, मिलने, अपनी विदाई से पूर्व सुदर्शनजी और घर को संभाल लेने के उसके आग्रह के बारे में बता दिया.

‘आपकी एक अमानत भी वह मेरे पास छोड़ आई थी.’सुदर्शनजी पर हो रही प्रतिक्रिया से अनजान सुजाताजी ने बैग से डायरी निकालकर टेबल पर रख दी.कांपते हाथों से सुदर्शनजी ने डायरी उठाई.‘इसे तो अभी कुछ दिन पूर्व ही मैंने ढूंढा था. नहीं मिली तो सोचा कपड़ों के बीच कहीं दब गई होगी. अपूर्वा के हाथ लग गई होगी, इसका तो सपने में भी गुमान नहीं था’

‘आप मुझसे अब भी इतना प्यार करते हैं, मुझे भी कहॉं अंदाजा था? इस डायरी से ही तो पता चला. सच कहूॅं तो डायरी में व्यक्त आपके हृदयोद्गारों और अपूर्वा के निरंतर आग्रह ने ही मुझे यहां आने के लिए बाध्य कर दिया. फिर भी आते आते देर हो गई. अपूर्वा विदा होकर ससुराल चली ही गई.हमें उसे.......’सुजाताजी को रूकना पड़ा क्योंकि सुदर्शनजी का अब तक सहेजा आंसुओं का सोता अंततः फूट पड़ा था.

‘क्या हुआ?’ सुजाताजी उठकर उनकी पीठ सहलाने लगी.‘मैं आपके लिए पानी लाती हॅूं’

लेकिन सुजाताजी लॉबी के दरवाजे से आगे नहीं जा पाईं.सामने चौकी पर अपूर्वा की बड़ी सी माला पड़ी तस्वीर पर नजर पड़ते ही पांवों के साथ साथ उनका दिमाग भी सुन्न हो गया. सुदर्शनजी ने उठकर उन्हें संभाला न होता तो वे लड़खड़ाकर गिर ही पड़तीं.

‘क...कब हुआ ये सब?’

‘आज ग्यारह दिन हो गए है.अपनी मां की तरह वो भी कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी के चंगुल में आ गई थी. बहुत इलाज करवाया. पर रोग अंतिम अवस्था में पहुंच चुका था. ससुराल विदा होने की अवस्था में उसे दुनिया से विदा होना पड़ा.’

सुजाताजी स्तब्ध थीं. काश अपूर्वा के ‘विदाई’ शब्द के मायने उन्हें पहले समझ आ गए होते तो वे उसे एक सुकून भरी विदाई तो मयस्सर करा पातीं.


   


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