विभव दा की दाढ़ी

विभव दा की दाढ़ी

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मामला तिल क्या आधे तिल के बराबर भी नहीं था, लेकिन विभव दा की जिद और लोगों की नुक्ताचीनी की आदत ने इसे ताड़ क्या ‘तड़बन्ना’ बना दिया। इस पूरे प्रकरण की जड़ भी ऐसी चीज थी, जिसे सुनकर शायद आपको हंसी आये। यह थी दाढ़ी। जी हां, विभव दा की दाढ़ी। आप सोच रहे होंगे कि दाढ़ी भी कहीं विवाद का कारण बन सकती है? लेकिन आप यकीन मानिये कि दाढ़ी का सवाल विभव दा के लिए जीवन-मरण के सवाल की तरह महत्वपूर्ण बन गया था।

कोई आदमी दाढ़ी रखे अथवा क्लीन शेव्ड रहे, यह बिल्कुल निजी मामला है। है कि नहीं? क्या आपने किसी के धोती अथवा पायजामा पहनने पर आपत्ति की है? आपने किसी से यह पूछा है कि वह धोती अथवा पायजामा ही क्यों, पैंट या हाफ पैंट क्यों नहीं पहनता? नहीं न! तब फिर भला आपको किसी आदमी के दाढ़ी रखने पर आपत्ति क्यों होने लगी? आप किसी के सिगरेट, गांजा और शराब पीने का विरोध तो कर सकते हैं, क्योंकि आप यह तर्क दे सकते हैं कि सिगरेट आदि पीना आदमी के स्वास्थ्य के लिए ही नहीं, बल्कि परिवार, समाज और पर्यावरण के लिए भी नुकसानदायक है। लेकिन आपको किसी की दाढ़ी से क्या कष्ट हो सकता है, बशर्ते आप दाढ़ी वाले पुरुष की पत्नी और प्रेमिका नहीं हों?


परंतु विभव दा के साथ ऐसा नहीं हुआ। अब आप ही बताइये कि क्या यह साधारण बात है? यह तो व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर पाबंदी है। लगता है आप विभव दा की त्रासदी को गंभीरता से नहीं ले रहे हैं। इसलिए आप इसे पढ़कर मुस्करा रहे हैं। ऐसा इसलिए है कि आप इसे विभव दा की नजर से नहीं बल्कि अपनी नजर से देख रहे हैं। आप इसे विभव दा की नजर से देखिये और बताइये कि अगर आप विभव दा की जगह होते और आपकी दाढ़ी को लेकर आपका उपहास किया जाता तब क्या आपको बुरा नहीं लगता?


विभव दा ने दाढ़ी रखी थी। वह पढ़े-लिखे और ठीक-ठाक समझ वाले व्यक्ति थे। इसलिए जाहिर है कि उन्होंने कुछ सोच-समझकर ही दाढ़ी रखी थी। उन्होंने शायद रोज-रोज दाढ़ी बनाने के झंझट से छुटकारा पाने के लिए दाढ़ी रखी थी। अथवा उन्होंने यह सोचा हो कि दाढ़ी रखने से उनका चेहरा रौबदार और भरा-भरा दिखेगा। ऐसा भी नहीं कि उन्होंने एक बार जो दाढ़ी रखी, तब फिर कभी दाढ़ी कटाई ही नहीं। उन्होंने कई बार दाढ़ी कटाई और कई-कई दिन तक क्लीन बने रहे। लेकिन उन्हें दाढ़ी वाला मामला ही ज्यादा ‘सस्ता, सुंदर और टिकाऊ’ लगा। सो उन्होंने लंबी अवधि के लिए दाढ़ी रखने का निर्णय किया। वैसे उन्होंने क्या सोचकर दाढ़ी रखी थी यह पता लगाना हमारा सिरदर्द नहीं है और न ही यह बहस का मुद्दा है। मुख्य बात यह है कि उन्होंने दाढ़ी रखी थी और ऐसा करके उन्होंने धर्म, समाज और राष्ट्र के विरुद्ध कोई काम नहीं किया था। लेकिन लोगों को कौन समझाये, खासकर दकियानूसी और पोंगापंथी लोगों को, जो हर नयी बात पर नुक्ताचीनी और छींटाकशी करना अपना परमाधिकार समझते हैं। विभव दा की दाढ़ी को लेकर ऐसे लोगों की बातें भी अजीब थीं, जैसे-


‘‘का हो विभव। ई का बंदर जैसन चेहरा बना ले ले बा?’’ 


‘‘अच्छी-भली सूरत बिगाड़ ले ले बा।’’


‘‘ई दढ़िया कटैवे कि ना! एकदम बज्जड़ बन गैले बा।’’


‘‘लाख बार कहा कि दाढ़ी कटा लो, बाकि ई सुनेगा तब ना?’’


‘‘ई दाढ़ी का रखे हो? तुमको इंटरव्यू में खड़े-खड़े निकाल दिया जायेगा। ऐसे आदमी को नौकरी थोड़े ही मिलेगी।’’


‘‘जरा आदमी जैसन बन के रहो। कोई देखेगा तब क्या कहेगा?’’


‘‘ई दढ़ियल जैसन लड़के से कौन छोकरी शादी के लिए तैयार होगी!’’


‘‘साधु बने के विचार बा को हो?’’


‘‘लगता है विभव अभी से पैसा बचाने के चक्कर में पड़ गया है। ई तो महाकंजूस निकलेगा।’’


मतलब जितनी जुबान उतनी ही बातें। लेकिन विभव दा की दाढ़ी से जलने वालों के मुंह उस समय काले पड़ गये जब विभव दा को नौकरी मिली और शादी के लिए ‘छोकरी’ भी। इस तरह विभव दा दाढ़ी के कारण न तो बेरोजगार रहे और न ही कुंआरे। ऐसा भी नहीं कि उन्होंने इंटरव्यू अथवा शादी के पहले दाढ़ी कटा ली थी। उनकी दाढ़ी पर आफत तो बाद में आई। इस बार दाढ़ी विराधियों ने ऐसा चक्कर लगाया जिसके चंगुल से वह बच नहीं सके। इस बार इन लोगों ने कुतर्क और दुष्प्रचार के जरिये ऐसा माहौल बनाया मानो विभव दा ने अगर दाढ़ी नहीं कटायी तब उन पर क्या, पूरे परिवार पर कहर टूट पड़ेगा। मतलब कि अगर उन्हें अपनी और परिवार वालों की जान प्यारी है तब उन्हें दाढ़ी कटानी ही पड़ेगी। उन्हें सबसे ज्यादा दुःख और आश्चर्य तो इस बात पर हुआ कि पहले जो लोग उनकी दाढ़ी के पक्ष में थे अथवा निरपेक्ष थे वे भी अब दाढ़ी विरोधियों के प्रभाव में आ गए और देर किए बगैर दाढ़ी कटा लेने की सलाह देने लगे। इस बार दाढ़ी विरोधी जो दलीलें दे रहे थे वे बेसिर-पैर की थीं। अगर आपसे कहा जाए कि जमाना बहुत खराब है, इसलिए पायजामा नहीं पैंट अथवा धोती पहना करें तब आपको कैसा लगेगा? अगर आपसे यह कहा जाये कि दंगे बहुत हो रहे हैं इसलिए दाढ़ी नहीं रखें तब क्या आपका दिमाग दुरुस्त रह सकेगा? अब आप ही बताइये कि पागल वास्तव में कौन है, ऐसी मूर्खतापूर्ण सलाह देने वाला या दाढ़ी रखने वाला?


आप दाढ़ी और दंगे के बीच के संबंधों को जानने के लिए सर पटकें या सर के बाल नोचें, लेकिन लोगों का क्या? वे किस बात से क्या जोड़ देंगे इसका कोई मापदंड नहीं है। परंतु बेतुकी बातों पर गुस्सा तो आएगा ही। विभव दा आपकी तरह इंसान थे और उन्हें भी ऐसी बेतुकी बातों पर गुस्सा आया। लेकिन विभव दा गुस्सा करके भी क्या कर लेते? यहां तो खिसियानी बिल्ली खम्भा नोचे वाली बात थी।


वैसे यह अलग बात थी कि विभव दा अपनी जिद और समझ के कारण लोगों की बातों को हवा में उड़ाये दे रहे थे। लेकिन पाठकों को यह कहानी पढ़ते समय तर्कशास्त्र के इस बुनियादी सिद्धांत को याद रखना चाहिए कि अगर कहीं धुआं है तब आसपास आग का अस्तित्व है। विभव दा को यह बात बाद में समझ आई। इसलिए यह कहना कि दाढ़ी और दंगे के बीच किसी तरह का संबंध नहीं है, यथार्थ से आंख चुराना है; भले ही वह यथार्थ बहुत ही कटु क्यों न हो। दंगे में किसी भी सम्प्रदाय का व्यक्ति मारा जा सकता है- यह बात दूसरे देश और काल के लिए सत्य है। हमारे देश में तो खास सम्प्रदाय के लोग ही दंगे का शिकार होते हैं। चूंकि उस खास सम्प्रदाय का दाढ़ी से संबंध माना जाता है, इसलिए दाढ़ी और दंगे के बीच स्वतः ही संबंध स्थापित हो जाता है। विभव दा हमारी-आपकी तरह खांटी किस्म के यथार्थवादी तो थे नहीं। वह आदर्शवादी थे और वह भी यूटोपियाई किस्म के। इस कारण वह दाढ़ी नहीं कटाने के जिद पर अड़ गये जबकि लोग उनकी दाढ़ी के पीछे हाथ धोकर पड़ गये। क्या घर, क्या बाहर! वह जहां भी जाते वहां कोई न कोई दाढ़ी के खिलाफ चेतावनी दे ही डालता। ‘‘विभव दा, दाढ़ी कटा लो, नहीं तो ‘मियां-मारी’ में मारे जाओगे’’ कभी-कभी विभव दा भी ताव खा जाते और दाढ़ी विरोधियों को ईंट का जवाब पत्थर की तर्ज पर देते हुए कहते, ‘‘भाइयों! दाढ़ी रख लो नहीं तो ‘हिंदु-मारी’ में मारे जाओगे।’’


लोग विभव दा की बात को हंसी में उड़ा देते। उन्हें विभव दा की बातें पूर्णतः बेवकूफी-भरी तथा निहायत बेबुनियाद लगतीं जिनके सही होने की आशंका दूर-दूर तक नजर नहीं आती। हिंदू राष्ट्र में हिंदु-मारी तो सपने में भी संभव नहीं है। ऐसी बातें करने वाला या तो सनकी है अथवा राष्ट्रदोही। कुछ लोगों की नजर में विभव दा इसी श्रेणी के थे।


विभव दा कोरे आदर्शवादी थे, किंतु इतने मूर्ख और नासमझ नहीं थे कि साम्प्रदायिक कट्टरता और धार्मिक उन्माद के इस युग में हिंदू राष्ट्र में दाढ़ी रखने के खतरे को नहीं समझते थे। वह सनकी और जिद्दी थे, परंतु इतने संवेदनशून्य नहीं थे कि घर में पत्नी के आग्रह और आंसू तथा मां-बाप की आंखों की चिंता और आशंका को नजरअंदाज कर देते। ऐसा तो था नहीं कि नानी-दादी की कहानियों की तरह उनकी जान दाढ़ी में बसती थी और दाढ़ी कटा लेने पर उनके प्राण पखेरू उड़ जाते। पर पता नहीं क्यों उन्हें ऐसा लगता कि दाढ़ी उनके पूरे व्यक्तित्व की पहचान बन गयी है और दाढ़ी कटा लेना साम्प्रदायिक और दंगाई मानसिकता के समक्ष आत्मसमर्पण होगा। पहले उन्हें ऐसा नहीं लगता था, परंतु जब से दाढ़ी विरोधियों ने उनकी दाढ़ी के खिलाफ संगठित-असंगठित मुहिम चलायी है तब से उन्हें ऐसा लगने लगा है और यही कारण है कि घर-बाहर दाढ़ी विरोधियों के प्रहारों को सहते हुए भी वह दाढ़ी नहीं कटाने की जिद पर अड़े थे। परंतु हरेक चीज एक सीमा तक ही दबाव सह सकती है और विभव दा की जिद की भी एक सीमा थी।


दरअसल विभव दा की कमजोर नस, घर के लोग थे। अब ऐसा कोई दिन शायद ही गुजरता था जब उन्हें दाढ़ी को लेकर पिताजी के उपदेश और डांट और मां के आंसुओं तथा पत्नी के आग्रह और रुलाई का सामना नहीं करना पड़ता। दरअसल घरवालों के मन में यह आशंका घर कर गयी थी कि अगर कहीं इस शहर में दंगा हुआ तब दंगाई विभव दा को मुसलमान समझकर मार डालेंगे। विभव दा को घरवालों की नासमझी पर इतना गुस्सा आता कि पूछो मत। अब इन मूर्खों को कौन समझाये। बेकार की बातों पर खिच-खिच करने की आदत जो है इन्हें। घर है या पागलखाना। हर बात को लेकर रोना-धोना। मौत पर किसी का नियंत्रण तो है नहीं। मौत कब, कहां, कैसे और किसको अपने चंगुल में फंसा लेगी यह कौन जानता है। हजारों आदमी रोज मर रहे हैं- सिर्फ मौत आने के बहाने अलग-अलग है। कोई भूख से तो कोई ज्यादा खाने से, कोई अधिक गर्मी से तो कोई अधिक ठंड से मर रहा है। कोई राह चलते-चलते तो कोई घर बैठे-बैठे मौत का ग्रास बन जाता है। अगर आदमी मौत से डरने लगे तथा इससे बचने के उपाय सोचने लगे, तब भला बताइये उसकी तरह कोई मूर्ख होगा? सड़क दुर्घटनाओं में रोजाना सैकड़ों लोग मरते होंगे। एक आंकड़े के अनुसार केवल भारत में ही हरेक साल 52-53 हजार लोग सड़क दुर्घटनाओं में मरते हैं। इसका मतलब यह तो नहीं कि आप कहीं आना-जाना बंद करके घर में बैठ जायें। अगर आप घर में ही बैठे हैं तब भी इस बात की क्या गारंटी कि घर की छत नहीं गिरेगी और आपकी लाश मलबे में दबी पड़ी नहीं होगी? यहां तक कि फूड प्वायजनिंग से लोग मौत के शिकार बन जाते हैं। इसका मतलब यह तो नहीं कि आप खाना-पीना ही बंद कर देंगे। लेकिन इन लोगों को समझाये कौन? इन्हें कोई बात समझाना तो पैदल दिल्ली जाने के बराबर है। समझाये भी तो तब जब कोई आपकी बात सुननी-समझनी चाहे? यहां तो सीधे डांट पड़ती है, कसमें दिलाई जाती हैं और आंसू टपकाये जाते हैं।


विभव दा ने आखिरकार दाढ़ी कटाई और घर के लोगों ने चैन की सांस ली। अब वह हिंदू थे- प्रत्यक्ष हिंदू। उन्हें अब दंगे में मुसलमान समझकर मारे जाने का कोई खतरा नहीं था। दाढ़ी विरोधियों ने इसे अपनी जीत मानते हुए अपनी मूंछों पर ताव दी और विभव दा की पीठ थपथपाई मानो विभव दा ने कोई महान काम किया हो। 


‘‘वाह विभव दा। अब तुम सभ्य आदमी लग रहे हो।’’  


‘‘तुमने जिंदगी में पहली बार लाखों रुपयों का काम किया है।’’


‘‘विभव को तो देखो? क्या जितेन्द्र की तरह लग रहा है! अब कितना स्मार्टनेस आ गया है विभव दा में!’’


‘‘विभव बेटा, तुमने दाढ़ी कटाकर समझदारी का काम किया है। बेटा, जमाना बहुत खराब है। बेकार में रिस्क लेने से क्या फायदा? दंगे में लोग आगे-पीछे थोड़े ही देखते हैं। जरा-सा शक हुआ और समझो गर्दन ....।’’


विभव दा को भी अब इन दाढ़ी विरोधियों की बातें सही लगने लगीं। उन्हें लगता है कि उन्होंने दाढ़ी कटाकर ठीक ही किया। जब वह अखबारों में दंगे की खबरें पढ़ते या दंगों के बारे में कहीं कुछ सुनते तब उन्हें लगता कि उन्हें दाढ़ी विरोधियों का अहसानमंद होना चाहिए। उन्हें लगता कि उनकी दाढ़ी को लेकर घरवालों की चिंता और आशंका तथा दाढ़ी विरोधियों की चेतावनी आधारहीन नहीं थी। ऐसी कितनी घटनायें हो चुकी थीं जब दंगाइयों ने दाढ़ी वालों को मौत के घाट उतार दिया था। खुदा न खास्ता अगर उनके शहर में भी दंगा हो जाता तब?


खुदा न खास्ता विभव दा के शहर में भी दंगा फैल गया। विभव दा के सौभाग्य से यह दंगा देर से भड़का जब विभव दा अपनी दाढ़ी कटाकर सम्पूर्ण हिंदू बन चुके थे, जिन्हें दंगे में मारे जाने का खतरा नहीं था। दंगाइयों के दुर्भाग्य से उस शहर में अधिक मुसलमान नहीं थे, इसलिए वे अधिक जान और ‘माल’ (सजीव और निर्जीव दोनों तरह के) पर हाथ साफ नहीं कर सके। दंगा जल्दी समाप्त हुआ। विभव दा ने मन ही मन दाढ़ी विरोधियों को धन्यवाद दिया। अगर उन्होंने दाढ़ी विरोधियों के कहने पर दाढ़ी नहीं कटाई होती तब वह निश्चय ही मियां-मारी में मौत के ग्रास बन चुके होते। अब वह मौत के मुंह में जाने से बाल-बाल बच गये। इसलिए अब उन्होंने भविष्य में दाढ़ी रखने से तौबा कर ली। दिन बीतने के साथ ही शहर दंगे के जख्म से उबरने लगा और विभव दा दाढ़ी वाला प्रकरण भूलने लगे। कभी-कभी उन्हें दाढ़ी रखने की इच्छा होती, परंतु मियां-मारी की स्मृति उनकी इस इच्छा को धो डालती। वक्त बीतने के साथ-साथ विभव दा का दाढ़ी से मोह समाप्त हो गया होता, बशर्ते उस रात को उनके साथ वह वाकया नहीं हुआ होता।

उस रात की घटना का उन्होंने अभी तक किसी से जिक्र नहीं किया है। असल में वह उस घटना का जिक्र कर अपने को हंसी का पात्र नहीं बनाना चाहते। इस कहानीकार ने अपने सूत्रों के जरिये उक्त घटना का पता लगाया। कहानीकार देश और समाज के हित में उस घटना का पूरा-पूरा बयान कर देना अपना फर्ज समझता है ताकि आने वाले वक्त में सनद रहे। विभव को अपने आफिस की ओर से किसी प्रशिक्षण कार्यशाला के लिए बिहार के किसी अन्य शहर में भेजा गया था। वह रात के करीब नौ बजे उस शहर के बस अड्डे पर उतरे और बस अड्डे से पैदल ही होटल के लिए चल दिये। उन्होंने बस से उतरते ही एक — दो लोगों से पूछा तो पता चला कि उन्हें जिस होटल में ठहरना है वह ज्यादा दूर नहीं है। पैदल भी जा सकते हैं। उनके हाथ में एक अटैची थी, जो ज्यादा भारी नहीं थी। उन्होंने पहले ​रिक्शा या टैक्सी लेने की सोची, परंतु आसपास कोई रिक्शा या अन्य वाहन दिखा नहीं इसलिए उन्होंने रिक्शे या आटो का इंतजार करने तथा उस पर पचास — सौ रुपये फूंकने के बजाय पैदल ही चलने का निर्णय लिया। वह अगर शहर के ताजा मिजाज से परिचित होते तो रात में आते ही नहीं और अगर रात में आने की विवशता होती तो रिक्शा तो जरूर ले लेते। वैसे भी उनकी सोच के अनुसार दुर्घटना और मौत के लिहाज से दिन और रात तथा रिक्शे या अन्य वाहन पर चलने और पैदल चलने में कोई फर्क नहीं है। चूंकि मौत अथवा दुर्घटना कहीं भी, कभी भी और किसी भी शक्ल में आ सकती है अथवा घटित हो सकती है, इसलिए आप दिन में यात्रा करें या रात में, पैदल चलें या रिक्शे से या टैक्सी से अगर मौत आनी है तब वह आकर रहेगी और कोई दुर्घटना होनी है तो होकर रहेगी। मान लीजिये आप रिक्शे से अथवा किसी टैक्सी से ही कहीं जा रहे हैं, तब गुंडे, पुलिस, दंगाई और लुटेरे क्या यह सोचकर आपको छोड़ देंगे कि छोड़ो यह तो वाहन पर सवार है? नहीं न! बल्कि होगा उल्टा, क्यांकि गुंडे-लुटेरे तो वाहन देखकर यह समझते हैं कि लगता है कोई मोटा आसमी है। पैदल आदमी को तो यह सोचकर छोड़ भी सकते हैं कि इस साले को लूटने से क्या मिलेगा- इसके पास तो रिक्शे या टैक्सी का भी पैसा नहीं है- तभी तो साला पैदल चलता है।


विभव दा चलते-चलते शायद ऐसा ही कुछ सोच रहे थे। कुछ दूर बढ़ने पर उन्होंने सड़क के किनारे चार-पांच लुंगीधारी युवकों को देखा। उन्होंने सोचा कि ये लोग खाना खाकर कहीं घूमने-घामने निकले हैं। अगर मवाली किस्म के होंगे तो कहीं जुआ खेलने का अथवा पीने-खाने का जुगाड़ लगा रहे होंगे। इन युवकों को देखकर उनके मन में किसी तरह की आषंका नहीं उत्पन्न हुई। वह अपनी धुन में मस्त होकर बढ़ते गये। जब उन युवकों के बिल्कुल करीब पहुंच गये तब उनमें से एक युवक ने उन्हें सम्मान और नम्रता के साथ रोका, ‘‘भाई साहब, जरा ठहरियेगा।’’


विभव दा यह सोचकर रुक गये ये लोग शायद समय पूछना अथवा सिगरेट-बीड़ी पीने के लिए माचिस मांगना चाहते हों। उस युवक ने उनके निकट आकर पूछा, ‘‘इधर आपने पुलिस की गाड़ी देखी है?’’


विभव दा के मन में इतने पर भी कोई खटका नहीं हुआ। उन्होंने बिना झिझक और संदेह के कहा, ‘‘नहीं! इधर पुलिस की गाड़ी तो क्या कोई गाड़ी नहीं दिखी।’’ उनका इतना कहना था कि एक अन्य युवक रास्ता रोककर खड़ा हो गया और उसने कड़ाई से पूछा, ‘‘कौन जात के हो भाईजी?’’ विभव दा को यह माजरा समझ में नहीं आया। यह क्या बेहूदगी है- किसी राह चलते आदमी को रोककर जात पूछना? उन्हें गुस्सा आ गया।


‘‘आपको किसी की जात से क्या मतलब है?’’

एक तीसरे युवक ने उनका कालर पकड़ लिया और धमकाते हुए बोला, ‘‘साले सीधे-सीधे बता दे। नही तो यहीं गाड़ दूंगा, समझे!’’ उसने साथियों की ओर लक्ष्य करके जोर से बोला, ‘‘निकाल तो ‘समनवा’ (देसी पिस्तौल) हो।’’


अब तो विभव दा की घिग्गी बंध गयी। उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि वह करें तो क्या करें, कहें तो क्या कहें?’


‘‘आ .... आप लोग हैं कौन? मैं हिंदू हूं।’’

‘‘अबे हिंदू-हिंदू क्या लगा रखा है? लगता है यह सीधे से नहीं बतायेगा। उंगली टेढ़ी करनी पड़ेगी।’’ उस युवक ने उनके चूतड़ पर जोरदार लात जमा दी। विभव दा लड़खड़ा गये।


‘‘देखिये मैं सच बोल रहा हूं। मैं हिंदू हूं। पक्का हिंदू। आप लोग भी तो हिंदू है। फिर जात-पात से क्या मतलब?’’


‘‘अबे मैं तुमसे तुम्हारी जात पूछ रहा हूं। साला ऐसे नहीं मानेगा।’’


यह कहकर एक युवक ने उनका बाल पकड़कर उनकी पीठ और पेट पर धड़ाधड़ कई घूसे-मुक्के जमा दिये।


विभव दा का विश्वास नहीं हो रहा था कि एक ‘हिंदू राष्ट्र’ में हिंदू होने पर भी हिंदुओं के हाथों पिटाई हो सकती है। क्या हिंदू राष्ट्र में सिर्फ हिंदू होना सुरक्षा की गारंटी नहीं है? उन्हें लगा कि वह कोई दुःस्वप्न देख रहे हैं। नहीं, यह सच नहीं हो सकता। 


‘‘देखिये मुझे मत मारिये। मैं बता दूंगा आप जो भी पूछेंगे। लेकिन आप पहले यह तो बताइये कि आप मेरी जात जानकर करेंगे क्या? मैं आपको सच बता रहा हूं। मैं मुसलमान नहीं हूं। मैं हिंदू हूं। आप भी तो हिंदू हैं। फिर झगड़ा किस बात का है? हम सब एक हैं।’’


‘‘अबे साले .... भाषण देना बंद करो। अपनी जात बताओ नहीं तो उड़ा दूंगा।’’ उस युवक ने इतना कहकर अपनी लूंगी के नीचे से एक कट्टा (तमंचा) निकाल लिया।


विभव दा के पैरों तले से जमीन खिसक गई। वह उस युवक के पैरों पर गिर पड़े और अपनी जान की भीख मांगने लगे। विभव दा जिस समय उस युवक के पैरों पर गिरकर ‘‘मुझे मत मारिये ... मुझ पर रहम कीजिये ....’’ कहकर चिल्ला रहे थे उसी समय उनमें से किसी एक युवक ने वहां से गुजर रहे एक राहगीर को रोका। शायद वह भी बस से उतर कर अपने घर जा रहा था। उस युवक ने उस राहगीर से भी जात पूछी। राहगीर ने आसपास नजर दौड़ाई और बिना किसी झिझक के बोलना शुरू किया, ‘‘देखिये! मेरा नाम इफ्तियार अहमद है। मैं शेख सराय मोहल्ले में रहता हूं।’’


एक युवक ने उस राहगीर की चूतड़ पर एक लात जमाते हुए कहा, ‘‘भाग बे साले कटुवे।’’ वह आदमी तेजी से दो-तीन कदम चलने के बाद कुछ सोचकर रुक गया। उसने पलट कर विभव दा को संबोधित करके कहा, ‘‘अरे! अनवर मियां, आप हैं?’’


इतना सुनना था कि सभी युवक और खुद विभव दा भी चौंक पड़े। एक युवक ने अविश्वास के स्वर में बोला, ‘‘क्या यह मुसलमान है? यह तो अपने को हिंदू बता रहा था।’’ एक दूसरे युवक ने उस आदमी के निकट पहुंचकर उसे धमकाते हुए बोला, ‘‘साले, हमें बेवकूफ बना रहे हो? यह तो खुद अपने को हिंदू बता रहा था। अपने को होशियार समझते हो क्या?’’ उस आदमी ने समझाने की गरज से जवाब दिया, ‘‘भाई साहब, मैं झूठ क्यों बोलूंगा। इनका नाम अनवर सिराज है और हमारे ही मोहल्ले में रहते हैं।’’


उनमें से एक युवक ने विभव दा को कालर पकड़कर उठाया और झिंझोड़कर पूछा, ‘‘बोल बे कटुवे। तुमने झूठ क्यो बाला?’’ विभव दा कुछ बोलते, इससे पहले वह आदमी बोल पड़ा, ‘‘भाई साहब, इन्हें माफ कर दीजिए। इन्होंने अपनी जान बचाने के लिए झूठ बोल दिया होगा कि ये हिंदू हैं। अब अपनी जान तो सबको प्यारी होती है न। बाकी ये हैं मुसलमान।’’


उस आदमी ने आगे कहा, ‘‘साहब, हम मुसलमान हैं, लेकिन हम आपके साथ हैं। हम दलितों और पिछड़ों के आरक्षण के एकदम खिलाफ हैं। आपको शायद मालूम नहीं होगा कि हम सबने श्री राम मंदिर के निर्माण के लिए अपने मोहल्ले से एक हजार रुपये का चंदा जमा किया था। पंडित कुंदन राम शर्मा जी से पूछ लीजियेगा। वह हमें अच्छी तरह जानते हैं। पिछले चुनाव में तो हमने उनका प्रचार भी किया था।’’


उस आदमी की बात सुनकर वे युवक बिल्कुल नरम पड़ गये। एक युवक विभव दा को अटैची थमाते हुए बोला, ‘‘भाई साहब! आपने अगर पहले ही सच बता दिया होता तब आप इस परेशानी में नहीं पड़ते।’’ एक अन्य युवक ने उनकी पैंट-कमीज से धूल झाड़ते हुए कहा, ‘‘मुझे क्या मालूम था, आप अपने आदमी हैं। हमने तो समझा कि आप बैकवर्ड हैं और डर से अपनी जात छिपा रहे हैं। खैर, चलिये जो हुआ सो हुआ। कहीं आपको ज्यादा चोट तो नहीं आई? आप लोगों को रात में चलना नहीं चाहिए। अब जल्दी घर जाइये।’’


विभव दा की जब जान में जान आई। उनका रोम-रोम उस राहगीर की भलमनसाहत के लिए कृतज्ञ था। भगवान ने उन्हें बचाने के लिए मौके पर उसे अपना दूत बनाकर भेजा। अगर यह आदमी वहां से नहीं गुजर रहा होता तब तो जान गई ही थी। खैर, जान बची लाखों पाये।


रास्ते में उस आदमी ने विभव दा से कहा, ‘‘लगता है आप इस शहर में नये आये हैं।’’ 

विभव दा बोले, ‘‘हां, मैं इस शहर में पहली बार आया हूं इसलिए मुझे इस शहर के ताजा हालात के बारे में मालूम नहीं था। फिर यह सब इतना अचानक और अप्रत्याशित ढंग से हुआ कि कुछ समझ में नहीं आया।’’


उस आदमी ने विभव दा को सीख देते हुए कहा, ‘‘आप काफी भोले किस्म के आदमी मालूम होते हैं। अब तो भाई, अगर जिंदा रहना है, तब शहर और शहर के एक-एक आदमी की नब्ज तुरंत पहचानने की क्षमता होनी चाहिए। आप कभी भी ऐसे झंझट में पड़ सकते हैं। यहां तो अक्सर हिंदुओं में भी मारा-मारी होती रहती है। कभी राजपूत-भूमिहार में, कभी कुर्मी-यादव में, कभी यादव-राजपूत में और कभी बैकवर्ड-फारवर्ड में, इसलिए काफी होशियारी से रहना पड़ता है।’’


विभव दा काफी गौर से उस आदमी की बातें सुन रहे थे। अचानक उनकी नजर उस आदमी के चेहरे पर गयी। विभव दा ने पहली बार उस आदमी के चेहरे को ध्यान से देखा था। उसके चेहरे पर काली-घनी दाढ़ी चमक रही थी।


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