वह खत
वह खत
मन बड़ा उदास था कई दिनों के निरर्थक भाग दौड़ का आज समापन जो हुआ था वह भी घोर अनिश्चितता के साथ। आज मैने निश्चय कर लिया था अब बस कल ही घर वापस चला जाऊँगा, नौकरी ना मिली ना सही, अब घर चल कर वहीं कोई रोजी रोज़गार कर लूँगा किन्तु अब फिर कभी भूल कर भी किसी बड़े शहर का रुख नहीं करूँगा।
लेकिन कुछ ही पल बाद मन के किसी कोने से निकले अनिश्चितता के बादलों ने आस रूपी उस सूर्य को अपने आगोश में ले लिया, कि घर में कौन सा खजाना गड़ा हुआ है जो वहाँ पहुँचते ही खोद कर निकाल लूँगा और उससे अपने रोज़गार का श्री गणेश कर लूँगा।
इन्हीं सोचों के कारण मन अत्यधिक उद्विग्न व दुखी था। समझ नहीं पा रहा था करूँ तो क्या करूँ? इस व्यथा से मन को बहलाने के लिए मैने वह ब्रिफकेस खोल लिया जिसमें अपना फाइल दो चार कपड़े लेकर मैं दिल्ली आया था।
उस फाइल में मेरे सर्टिफिकेट के अलावा जो सबसे बहुमूल्य समान रखे हुए थे वह वे तमाम खत जिन्हें मैने कॉलेज टाईम से लेकर शादी के बाद तक किसी को लिखा था पर पोस्ट नहीं कर पाया था, या जो खत किसी और ने मुझे भेजा था।
उन खतों को मन बहलाने के लिए बारी बारी से खोलने व पढ़ने लगा, पापा एवं माँ के हाथों रचित खत। मेरे जीवन के पहले प्यार का पहला खत, किन्तु फिर भी मन को चैन न मिला … तभी वह खत मेरे हाथ लगी जिसने मेरे जीवन को एक नया आधार व आयाम प्रदान किया और मैं खुद को दिल्ली जैसे शहर में स्थापित करने में कामयाब हो सका। वह खत मेरे मित्र चन्द्र शेखर ने अपने उन संघर्षकाल में मुझे लिखा था।
उस खत के कुछ अंश…
“मित्र हार और जीत के बीच मामूली सा अन्तर होता है जो आपके सोच में समाहित होता है, मन के सोचे हार है मन के सोचे जीत, मित्र मैनें बहुत कठिन संघर्ष किया एक अनजान शहर में बिना थके, बिना डरे और बिना हारे, परिणाम आज खुद को बेहतर और अति व्यस्त हालात में पा रहा हूँ” !!!