बाबुल
बाबुल
अविनाश को आज फिर से बिटिया का फोन आया, किन्तु चाहकर भी उससे बात करने की हिम्मत जुटा न सका। कैसे सुनता; पापा मैं बहुत परेशान हूँ, आपके लाख समझाने तमाम नसीहतों के बाद भी मैं प्रतिदिन निराशा की खाई में धंसती जा रही हूँ, दुखों का पहाड़ लिए बस जी रही हूँ। एक पिता के लिए ये शब्द किसी सरशय्या से कदापि कम नहीं। अगर कहने मात्र से या आदान - प्रदान से सम्भव होता तो बेटी सुखी रहे इसके लिए शायद दुनिया का हर एक पिता उसे अपने हिस्से का प्रत्येक सुख देकर बेटी के हिस्से का हर दुःख हर एक गम ले ले! परन्तु यह संभव नहीं है।
उसका मन हुआ ईश्वर से पूछे, आखिर आपने इंसान को इतना बेबस, इतना लाचार क्यों कर बनाया, जब हृदय और ममत्व देने का फैसला आपने किया तो हृदय को बेध देने जैसे दर्द बनाने जरूरी थे क्या? प्रेम तक तो ठीक था, पर पीर की क्या आवश्यकता थी? जन्मदाता हम और भाग्य विधाता आप यह कैसा न्याय है? पर हृदय की बात हृदय में रह गई, कारण पत्थरों से प्रश्न कभी भी पुछे नहीं जा सकते।
अविनाश पहली बार तब रोया था जब बिटिया डोली में बैठकर बाबुल की देहरी से विदा होकर अपने घर जा रही थी, किन्तु वे आँशु खुशी के थे, और आज फिर से एकबार रो पड़ा, जब चाहकर भी उससे वह फोन पर बात करने की हिम्मत जुटा न सका।
हो सकता था वह आज खुश हो किसी तकलीफ में न हो परन्तु पिता का मन है पता नहीं क्यों अनायास ही कलेजे को ठंडक पहुंचाने जैसे भावों से पूर्व ही किसी अनिष्ट से ग्रसीत भाव हृदय को विदीर्ण कर जाते हैं।
फिर मन नहीं मानता पता नहीं बिटिया किस कारण फोन की होगी, हो सकता है कुछ जरूरी बात हो। यह सब सोचकर उसने स्वत: ही फोन कर लिया।
कैसी हो बेटा?
यकीन मानिए जब बेटी प्रफुल्लित स्वर में चहककर बोलती है; तो ऐसा प्रतीत होता है, जैसे दुनिया की तमाम खुशी आज पिता के दामन में एक साथ समा गई हों, किन्तु जब वही स्वर उदासीनता में लिपटे हुए कानों में प्रविष्ट होते है तो मन करता है दुनिया को आग लगा दूं एवं स्वयं उसमें कूद पड़ूं।
क्रमशः
