वडवानल - 1

वडवानल - 1

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ऐसा कितने साल चलेगा ? जनवरी का महीना खत्म होते–होते वह अभी भी बेचैन हो जाता है और फिर पूरे महीने वह ऐसे रहता है मानो पूरी तरह विध्वस्त हो चुका हो। सदा चमकती आँखों की आभा और मुख पर विद्यमान तेज लुप्त हो जाता है। वह पूरी तरह धराशायी हो जाता है – मन से और शरीर से भी ! जैसे रस निकालने के बाद मशीन से निकला, पिचका हुआ गन्ना !

जीवन में कई तूफान आते हैं। कुछ आते हैं और थम जाते हैं। हमारा जीवन–क्रम उसी तरह चलता रहता है, बिलकुल ठीक–ठाक मगर कोई–कोई तूफान ऐसा भी होता है जो सब कुछ तहस–नहस कर देता है। अपने बवंडर में हमें घास–फूस के समान कहीं फेंक देता है और यह पता चलता है कि हम तो अपने लक्ष्य से दूर फेंक दिये गए हैं। लक्ष्य तक पहुँचने का मार्ग खो गया है, शक्ति भी चुक गई है।

वह तूफान भी इसी तरह का था, जो उसके जीवन में आया था। उसे केन्द्र बनाकर उसके सहयोगियों के इर्द–गिर्द मँडराता रहा। जब तूफान थम गया तो वह तहस–नहस हो चुका था। सहयोगी कहाँ फेंके गए, पता नहीं चला। उन्हें अपने साथ इस तूफान में घसीटकर क्या प्राप्त हुआ था ? उन्हें क्या दे सका था ?

किसलिए छोड़ा था उसने अपना घर ? पिता का प्रेम––– माँ की ममता ? किसलिए अपने आप पर उस तूफान को झेला था ? उसे ऐसा प्रतीत होता कि वह सनसनाते खून का पागलपन था ! उसने अपना कर्तव्य भी नहीं निभाया था। मा फलेषु कदाचन ! ये सब समाप्त होने पर भी वह क्यों झगड़ता रहा ? तूफान को आह्वान देने में उसका कोई स्वार्थ नहीं था। वह समय की आवश्यकता थी। उद्देश्य की ओर पहुँचने का मार्ग था।

स्वतन्त्रता के पुजारियों द्वारा प्रज्वलित की गई यज्ञाग्नि उसे पुकार रही थी।वह  पागल  की  तरह  उस  ओर लपका। दामन  में  अंगारे बाँध लिये,  दावानल उत्पन्न करने  के  लिए। उसे  और  उसके  सहयोगियों  को  इस  बात  का  एहसास  था  कि शायद वे इस दावानल में भस्म हो जाएँगे, फिर भी उन्होंने उस आग को दामन में बाँध लिया, असिधाराव्रत स्वीकार करते हुए। वे स्वतन्त्रता की सुबह की एक छोटी–सी किरण बनना  चाहते  थे।  स्वतन्त्रता  की  सुबह  का  स्वागत  करना  था  और इसीलिए उन्होंने विद्रोह किया था। सरकार अथवा इतिहास भले ही इसे बलवा कह   लें,   उनकी   नजर   में   तो   वह   स्वतन्त्रता–संग्राम   ही   था !   वड़वानल   था !

साधारण सैनिकों को यदि स्वतन्त्रता युद्ध का आह्वान करके अपने साथ लाना हो तो उसके लिए कारण भी वैसा ही सर्वस्पर्शी होना आवश्यक है। सन् 1857  के  स्वतन्त्रता  संग्राम  का  कारण  था  कारतूसों  पर  लगाई  गई  चर्बी, उसी तरह इस बार विद्रोह किया गया घटिया खाने और अपमानजनक, दूसरे दर्जे के व्यवहार के   कारण,   जो उनके   साथ   किया   जाता   था।

‘‘यह विद्रोह अपने स्वार्थ के लिए किया गया, ‘‘जब विदेशी सरकार द्वारा किए गए इस प्रचार का समर्थन अपने, देशी नेताओं ने भी किया तब उनके पैरों तले ज़मीन खिसकने लगी। अपने ध्येय के दीवाने ये सैनिक सम्पूर्ण नौसेना पर अधिकार   करके   उसे   जिन   नेताओं   को   समर्पित   करने   चले   थे   उन्हीं   ने   इन्हें   ‘विद्रोही’ करार   दिया   था।

जिन्होंने  इस  स्वतन्त्रता  संग्राम  में  भाग  लिया  था,  उन्हें  इस  बात  का  सन्तोष था कि  वे  जी–जान  से  लड़े  थे !  हारने  का  दुख  उन्हें  कभी  हुआ  ही  नहीं।  उन्हें दुख था तो विश्वासघात का ! अपने देशबन्धु सैनिकों के बलिदान को भूल जाने का ! आजादी के बाद जन्मे, अंग्रेज़ों के पक्ष में मिल गए लोग भी गले में ताम्रपट लटकाए   घूम   रहे   थे   मगर   आजाद   हिन्द   सेना   के   सैनिकों   को   और   अंग्रेजों   के   विरुद्ध बगावत  कर  रहे  नौसैनिकों  को  सभी  भूल  चुके  थे।  ‘बचकाना’  क्रान्ति  कहकर  उन्हें मुँह चिढ़ा रहे थे। उसे और उसके मित्रों को सुविधाओं की खैरात नहीं चाहिए थी। उन्हें चाहिए था न्याय। उन्हें चाहिए थी मानवता की आर्द्रता। पेन्शन का दान उन्हें नहीं चाहिए था। उनके भीतर हिम्मत थी, कुछ कर गुजरने का साहस था; स्वतन्त्र मातृभूमि की सेवा करने की, स्वतन्त्र भारत के नौसैनिक के   रूप   में   जीने   की चाहत थी !

आजादी  के  पश्चात्  सरदार  पटेल  ने  लोकसभा  में  घोषणा  की - ‘‘बगावत में  शरीक होने  के  आरोप  में  जिन  नौसैनिकों  को  नौकरी  से  निकाल  दिया  गया है,  उन्हें  फिर  से बहाल  किया  जाएगा।’’  उसे  अच्छा  लगा,  राजनीतिक  नेताओं पर उसने भरोसा किया। बड़े जोश से सारे सुबूत इकट्ठे किए और INS आंग्रे गया।

आंग्रे के द्वार में कदम रखते ही पुरानी यादें जाग गईं। बदन पर रोमांच उठ आए। वहाँ की मिट्टी को उसने माथे पर लगा लिया। उसके मित्रों ने आजादी की खातिर खून बहाकर इस मिट्टी को पवित्र किया था।

उसे आंग्रे के कैप्टेन के सम्मुख खड़ा किया गया। वह आश्चर्यचकित रह गया। ‘‘विद्रोह करना बेवकूफी है। अंग्रेज़ झुकेंगे नहीं। हाँ, तुम लोग अवश्य ख़त्म हो जाओगे। सैनिकों को स्वतन्त्रता वगैरह के झमेले में नहीं पड़ना चाहिए”। ऐसी बिनमाँगी सलाह देनेवाला, अंग्रेजों की खुशामद करने वालों में सबसे आगे रहने वाला नन्दा, स्वतन्त्र भारत में कैप्टेन बन गया था और स्वतन्त्रता के लिए बगावत करने वाला सैनिक उसके सामने खड़ा था मन में यह इच्छा लिये कि वह फिर से नौसेना में सैनिक के रूप में सेवा करना चाहता है।

‘‘हूँ ! तो क्या तुम विद्रोह में...’’

‘‘वह विद्रोह नहीं था। वह स्वतन्त्रता संग्राम था।’’ उसने कैप्टेन नन्दा को बीच ही में रोकते हुए आवाज ऊँची की।

‘‘वही तो ! तुम उसमें थे और तुम दुबारा नौसेना में आना चाहते हो, हाँ ?’’

नन्दा ने छद्मपूर्वक हँसते हुए कहा, नन्दा नहीं चाहता था कि उसे पहचान लिया जाए। गुरु खामोश खड़ा था।

‘‘सॉरी ! तुम जिसके बारे में कह रहे हो, वैसा कोई आदेश हमारे पास आया नहीं है।’’

‘‘मगर गृहमन्त्री ने लोकसभा में ऐसा...’’

‘‘होगा मगर वह आदेश नौसेना के मुख्यालय में तो आना चाहिए ना ? ऐसा करो, तुम अपनी अर्जी और सारी जानकारी यहाँ छोड़ जाओ। तुम्हें बाद में सूचना दे दी जाएगी।’’ कैप्टेन ने उसे टरकाते हुए अपनी कुर्सी घुमाकर उसकी ओर पीठ कर ली।

वह आंग्रे से बाहर आया और जवाब का इन्तजार करने लगा। आंग्रे के अनेक चक्कर लगाए, मगर जवाब हर बार एक ही मिलता, ‘‘अभी कुछ आया नहीं है।’’

तंग आकर उसने गृह मन्त्रालय को ख़त लिखा। ऐसा लगा मानो गृह मन्त्रालय में काम होता है। पन्द्रह दिनों के बाद खाकी रंग का लिफाफा हाथ में आया। उसके चेहरे पर समाधान तैर गया। किसी ने उसकी ख़बर तो ली थी।

प्रसन्नतापूर्वक उसने लिफाफा खोला। लिफाफे के ही समान जवाब भी सरकारी निकला।

‘‘आपका पत्र अगली कार्रवाई के लिए रक्षा मन्त्रालय की ओर भेजा गया है।’’

वह रक्षा मन्त्रालय के जवाब का इन्तजार करने लगा। दिन बीते, महीने गुजरे, सालों–साल गुजरते गए मगर उसकी प्रतीक्षा खत्म न हुई। रक्षा मन्त्रालय और गृह मन्त्रालय को उसने अनेकों ख़त लिखे। शुरू में तो प्राप्ति–स्वीकृति आ जाया करती थी, मगर धीरे–धीरे वह भी बन्द हो गई।

वह समझ गया। शासन के नये वारिसों को इन क्रान्तिकारी सैनिकों की जरूरत नहीं थी। इन विद्रोहियों को दुबारा नौकरी देकर वे अपने दामन में अंगारे नहीं रखना चाहते थे।

अब वह पूरी तरह टूट गया। जिस ध्येय की खातिर उसने इतने कष्ट उठाए थे, इतनी दौड़धूप की थी, वह अब कभी भी पूरा होने वाला नहीं था। बची हुई जिन्दगी निराशा के गर्त में ही समाप्त होने वाली थी। क्या चाहता था वह ? सत्ता ? वैभव ? मान–मर्यादा ? उसे इसमें से किसी भी चीज की ख्वाहिश नहीं थी। उसने एक छोटा–सा सपना देखा था। एक बढ़िया नौसैनिक बनने का, जन्मजात खलासी ! सच्चा सॉल्ट वाटर सेलर।

बड़े चाव से ‘सिंदबाद का सफर’ पढ़ा था बचपन में, उसके पीछे पिता की मार भी खाई थी, इसी ‘सफरनामे’ से जो अंकुर फूटा था वह उम्र के साथ–साथ बढ़ता रहा और एक दिन पिता के विरोध की परवाह न करते हुए वह नौसेना में भर्ती हो गया।

दूसरा महायुद्ध पूरे जोर पर था। हजारों सिपाही मारे जा रहे थे। उनके स्थान पर अंग्रेजों को नये सैनिकों की जरूरत तो थी ही। भर्ती के नियम काफ़ी शिथिल कर दिए गए। गुरु को नौसेना में प्रवेश प्राप्त करने में कोई मुश्किल नहीं आई। वह रॉयल इण्डियन नेवल शिप ‘तलवार’ में टेलीग्राफिस्ट के प्रशिक्षण के लिए दाखिल हुआ।

‘‘Come on, pick up your kit bags..’’ गोरा पेट्टी अफसर चीखा।

नये रंगरूट घबरा गए। उनमें से कइयों से वह भारी–भरकम किट बैग उठ नहीं रहा था। गुरु ने किसी तरह किट बैग पीठ पर लटकाया और पैरों को घसीटते हुए सबके साथ चलने लगा.

‘Come on bloody pigs, don't dance like dames. Walk like soldiers." गोरा पेट्टी अफसर चिल्लाए जा रहा था।

ऐसा लग रहा था कि वह नितंबों पर लात भी मारेगा।

फर्लांग भर की दूरी पार करते–करते वह पसीने–पसीने हो गया। जहाज़  के गैंग-वे  के सामने किट  बैग  रखकर  उसने  राहत  की  साँस  ली।  तब  कहीं  ध्यान आया  कि  भूख  लगी  है।  सुबह  से  एक  कप  चाय  के  अलावा  कुछ  और  पेट  में नहीं गया था। मगर सुबह की चाय की याद से मतली आने लगी। क्या चाय थी ! बस,   सिर्फ   पानी !‘‘जहाज़   पर  जाकर  भरपेट  भोजन  करूँगा  और  लम्बी  तान  दूँगा,’’  उसने निश्चय किया।


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