वड़वानल - 19
वड़वानल - 19
‘‘किसने लिखे होंगे ये नारे ?’’ फुसफुसाकर रवीन्द्रन राघवन से पूछ रहा था।
‘‘किसने लिखे यह तो पता नहीं, मगर ये काम रात को ही निपटा लिया गया होगा।’’
‘‘कुछ भी कहो, मगर है वह हिम्मत वाला! मैं नहीं समझता कि गोरे कितना भी क्यों न घिसें, उन्हें वो मिलेंगे।’’
‘‘मगर यदि मिल गए तो फिर...’’
‘‘अरे छोड़! एक तो मिलेंगे ही नहीं और यदि मिल भी गए तो वे डगमगाएँगे नहीं। आर.के. ने क्या किया, मालूम है ना ? ये उसी के साथी होंगे।’’
बैरेक की मेस में ऐसी ही फुसफुसाहट चल रही थी। मगर दत्त, मदन और गुरु शान्त थे।
शेरसिंह ने फिर से अपना ठिकाना बदल दिया था। दत्त और गुरु को कितनी ही बार लटकाये रखा था। बदन को टटोलकर तलाशी ली थी। सांकेतिक शब्दों की बार–बार जाँच की गई थी। दत्त ने देखा, आसपास तीन–चार बन्दूकधारी छिपकर बैठे थे। मौका पड़े तो हमला करके भी शेरसिंह को बचायेंगे - इस निश्चय के साथ।
‘‘आओ, आओ, मुबारक हो! अच्छा काम किया है!’’ शेरसिंह ने हँसते हुए उनका स्वागत किया। गुरु और दत्त को ऐसा लगा कि उनकी हिम्मत सार्थक हो गई है।
‘‘आओ, बैठो, मेरी जानकारी के अनुसार सैनिकों में काफ़ी भगदड़ मच गई है। मुझे तो अचरज है कि तुम यह सब कर कैसे सके।’’
‘‘वैसे इसमें कोई खास बात नहीं थी। रात की ड्यूटी पर हमने नजर रखी।
रात की चार–चार घण्टों की ड्यूटियाँ आठ बजे से शुरू होती हैं। आठ से बारह के बीच में सभी पहरेदार सतर्क रहते हैं। इसलिए यह समय हमारे काम के लिए योग्य नहीं था। बारह से चार बजे की ड्यूटी सबसे बुरी है। आधी नींद में काम पर आना पड़ता है और चार बजे के बाद भी नींद पूरी नहीं होती। सभी इस ड्यूटी से बचना चाहते हंै। हम पाँच–छह लोगों ने दो–दो दिन पहले ही औरों के साथ इस तरह ड्यूटियाँ बदल लीं कि 30 नवम्बर को मुझे और गुरु को छोड़कर सभी बारह से चार की ड्यूटी पर थे। हम लोगों में से सैनिकों के अलावा जो अन्य सैनिक ड्यूटी पर थे, उन्हें हमारे साथियों ने दो बजे के बाद बातों में उलझाये रखा और हमने, यानी मैंने और गुरु ने इस मौके का पूरा–पूरा फायदा उठाया। चार से आठ वाली ड्यूटी के पहरेदारों के आने से पहले ही हम बैरेक में जाकर सो गए।’’
‘‘तुम्हारी यह योजना अच्छी ही थी। इस प्रकार के मौके का फायदा उठाकर गड़बड़ी पैदा करो। मगर एक बात याद रखो, जिस पर पूरी तरह से विश्वास न हो ऐसे सैनिक को साथ में मत लेना। वरना गोते में आ जाओगे। कोल अब साम, दाम, दण्ड और भेद का प्रयोग करके तुम्हें पकड़ने की कोशिश करेगा। सावधान रहना होगा।’’ शेरसिंह ने सलाह दी।
‘‘हम पूरी तरह से सावधान हैं। एक–दूसरे पर नजर रखे हुए हैं।’’
‘‘हम वायुसेना और नौसेना - इन दो सैन्यदलों पर निर्भर हैं। स्वतन्त्रता, अस्मिता का मूल्य इन्हीं सेना दलों के सैनिकों को मालूम है, क्योंकि वे सुशिक्षित हैं। भूदल के सैनिक वंश परम्परा से सेना में आते हैं। अब वह उनका पेशा बन गया है। अपने स्वामी के प्रति वफ़ादारी की भावना उनके खून की एक–एक बूँद में समा चुकी है। इसका मतलब यह नहीं कि भूदल में स्वाभिमानी, अस्मिता वाले सैनिक हैं ही नहीं। मगर ऐसे सैनिकों की संख्या ज्यादा नहीं है जिनका आत्मसम्मान जाग उठा है। इसलिए हम अन्य दो सेनाओं पर निर्भर हैं। तुम नौसैनिकों में जैसी बेचैनी है, वैसी ही वायुदल के सैनिकों में भी है। ये सैनिक भी बगावत की मन:स्थिति में हैं।
‘‘मगर इन सैनिकों में अभी आत्मविश्वास नहीं है। वे एक नहीं हुए हैं। मगर विश्वास रखो, तुम अकेले नहीं हो। जब तुम बगावत के लिए खड़े रहोगे तब वायुसेना के सैनिक भी तुम्हारे साथ होंगे।’’ शेरसिंह ने विश्वास दिलाया।
और फिर वर्तमान परिस्थिति पर कुछ देर बात करके गुरु और दत्त ने शेरसिंह से बिदा ली।
गोरे अधिकारी और नौसेना की पुलिस पूरी बेस में घूम–घूमकर कहीं कोई सुराग पाने की कोशिश कर रहे थे। 30 नवम्बर की रात को जो सैनिक ड्यूटी पर थे उनकी फ़ेहरिस्त बनाई गई और फिर एक–एक को रेग्यूलेटिंग ऑफिस में बुलाया गया। पहला नम्बर लगा सलीम का। सवालों की बरसात हुई। मगर सलीम शान्त था। वह एक ही जवाब दे रहा था, ‘‘जब मैं ड्यूटी पर था, उस दौरान यह नहीं हुआ। मुझे इस बारे में कुछ भी पता नहीं है।’’
2 दिसम्बर की रात को परिस्थिति पर विचार करने के लिए आज़ाद हिन्दुस्तानी हमेशा के संकेत स्थल पर इकट्ठा हुए थे।
‘‘क्यों, सलीम, आज धुलाई हुई कि नहीं ? या सिर्फ सवालों पर ही मामला निपट गया ?’’ गुरु ने हँसते हुए पूछा।
‘‘आज तो धुलाई से बच गया, मगर अगली बार बच पाऊँगा इसकी गारंटी नहीं।’’ सलीम ने कहा।
‘‘क्या–क्या पूछा रे?" दत्त
‘‘अरे, जो मर्जी आए वो। खाना खाया क्या ? तेरे भाई कितने हैं ? बाहर कब गए थे ? ऐसे बेसिर–पैर के सवालों के बीच अचानक पूछ लेते, नारे किसने लिखे थे ? बीच ही में, डराने के लिए कहते, ‘नारे लिखते हुए तुझे किसी ने देखा है ? तू जब पहरा दे रहा था तो तुझसे कौन मिला था ? तुझसे कौन बात कर रहा था ?’ सभी सवालों का मेरे पास एक ही जवाब था, ‘मुझे मालूम नहीं।’ करीब घण्टाभर सताया सालों ने!’’ सलीम के चेहरे पर गुस्सा झलक रहा था। आखिर में उस गोरे एल.पी.एम. जेकब ने कहा, ‘‘तुझे 48 घण्टों की मोहलत दे रहे हैं। सोच–विचार करके सच उगल दे। वरना तुझे फँसा देंगे।’’
‘‘फिर क्या सोचा है?” मदन ने पूछा।
‘‘सोचना क्या है ? मेरा जवाब वही है, ‘मुझे मालूम नहीं।’ मगर...’’ सलीम ने आधा ही वाक्य कहा।
‘‘मगर क्या ?” गुरु का सवाल।
‘‘मैं मार से नहीं डरता। यदि वे मेरी चमड़ी भी उधेड़ दें तो भी मैं डगमगाऊँगा नहीं। मगर यदि उन्होंने मेरे पिता और भाई को पकड़ने का फैसला किया तो...।’’
‘‘अरे मगर क्यों पकड़ेंगे और ये तुझसे किसने कहा?” मदन
‘‘आज बोस मिला था...।’’
‘‘कौन बोस?” दत्त
‘‘अरे वो माता के दाग़ वाला, काला–कलूटा, नकटी नाकवाला, हम लोग उसे हब्शी कहकर चिढ़ाते हैं ना, वही। आजकल वह डे ड्यूटी कर रहा है।’’ गुरु ने जानकारी दी।
‘‘वह मेरे ही गाँव का है। वह और एल.पी.एम. जेकब दोस्त हैं। वह आज मिला था और कह रहा था, तू जब पहरे पर था उस समय जो कुछ भी हुआ वह सच–सच जेकब को बता दे, वरना मैं उनसे कह दूँगा कि तेरे पिता के और भाई के क्रान्तिकारियों से सम्बन्ध हैं। इसका खामियाजा तेरे घरवालों को भुगतना पड़ेगा।इसलिए सँभल जा और सब कुछ सच–सच बता दे।’’ चिन्ता के स्वर में सलीम ने बतलाया।
‘‘मगर तू क्यों डर रहा है? ” गुरु
‘‘बोस सिर्फ मेरे गाँव का ही नहीं, बल्कि मेरे घर में उसका हमेशा आना–जाना होता है। मेरे पिता और भाई क्रान्तिकारी नहीं हैं, मगर वे क्रान्तिकारियों की सहायता करते हैं। मेरा एक मामा भूमिगत हो गया है। उसके ऊपर हजार रुपये का इनाम भी लगा है। वह कभी–कभी हमारे घर आता है, और बोस को यह बात मालूम है, इसीलिए मुझे दोनों ओर से खतरा है।’’
‘‘तू चिन्ता मत कर। बोस का इन्तज़ाम हम कर देंगे,” खान ने सलीम से वादा किया। हममें से यदि एक भी घबरा गया और सच उगल गया तो हम सब नेस्तनाबूद हो जाएँगे। सैनिकों को अपने साथ लेते समय हमें सावधान रहना चाहिए। जब तक पूरा यकीन न हो जाए, उन्हें दूर रखना ही अच्छा है। यदि किसी के बारे में थोड़ा–सा भी सन्देह हो, तो औरों को सतर्क करना चाहिए। बोस का बन्दोबस्त कैसे करना है, यह मैं, गुरु और मदन तय करके बताएँगे। अर्थात् तुम्हारी मदद की जरूरत पड़ेगी।’’ दत्त ने दिलासा दिया।
''Now you may go in.''
मुम्बई के फ्लैग ऑफिसर के दफ्तर के बाहर करीब–करीब घण्टेभर से बैठे हुए कोल से रिअर एडमिरल रॉटरे के सचिव ने कहा। कोल ने इत्मीनान की साँस ली। इन्तजार खत्म हो गया था। रॉटरे ने जबसे मिलने के लिए उसे बुलाया था, तब से कोल परेशान था।
''May I come in, Sir?'' कोल ने पूछा।
''Yes, Come in.'' रॉटरे की कड़ी आवाज आई।
कोल भीतर आया। रॉटरे ने सिर से पैर तक कोल को देखा और उसकी नज़र से नज़र मिलाकर पूछा, ‘‘‘तलवार’ पर क्या हो रहा है ?’’
‘‘मैं पता लगाने की कोशिश कर रहा हूँ, सर।’’ नजरें झुकाते हुए कोल ने जवाब दिया।
‘‘मगर यह हुआ ही क्यों ? तू कमांडिंग ऑफिसर है, क्या तू यह नहीं सोचता कि ऐसा न होने पाये, इसका ध्यान रखना ज़रूरी था?" कोल के पास रॉटरे के सवाल का कोई जवाब नहीं था। "I am sorry, Sir!" कोल अपने आप में बुदबुदाया।
‘‘कमांडर–इन–चीफ का ख़त मिला था तुझे ?’’ कोल ने गर्दन हिला दी।
‘‘ख़त में सभी कमांडिंग ऑफिसर्स को सावधान किया गया था। यह आशंका व्यक्त की गई थी कि नौसेना एवं वायुसेना के सैनिक भूदल के सैनिकों की अपेक्षा ज्यादा सुशिक्षित हैं और विभिन्न राजनीतिक पक्षों का प्रभाव होने के कारण उनके गड़बड़ करने की सम्भावना है। युद्ध काल में इन सभी सैनिकों को ठीक से देखा–परखा नहीं गया था इसलिए सब कमांडिंग ऑफिसर्स सतर्क रहें और उनके जहाज़ के सैनिक गड़बड़ न करें इसका ध्यान रखें, ऐसी सूचना देने पर भी तू…।’’
''I am sorry, Sir!'' कोल ने बुझे हुए चेहरे से क्षमायाचना की।
''No use of sorry now. मुझे ये क्रान्तिकारी सैनिक चाहिए। मैं तुझे एक महीने की मोहलत देता हूँ। महीने भर में यदि इन सैनिकों को ढूँढकर न निकाला तो...’’ रॉटरे ने कोल को धमकाया।
''I shall try my level best.'' कोल बुदबुदाया।
'' You may go now.''
कोल उतरे हुए चेहरे से फ्लैग ऑफिसर के चेम्बर से बाहर आया। उसे समझ में ही नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए।वह उलझन में पड़ गया था। अपनी ओर से वह कोशिश तो कर रहा था, मगर हाथ कुछ भी नहीं आ रहा था।
‘‘तलवार’ पहुँचते ही कोल ने ले. कमाण्डर स्नो को बुलाया.
"'May I come in, Sir?''
''Yes, Come in''
स्नो भीतर आया। कोल ने इशारे से उसे बैठने के लिए कहा। स्नो कुर्सी पर बैठ गया।
‘‘तलाश का काम कहाँ तक आया है ? मुझे कल्प्रिट्स चाहिए।’’
‘‘सर, 30 नवम्बर को रात को ड्यूटी पर तैनात सैनिकों के बयान लेने का काम चल रहा है।’’
‘‘सिर्फ बयान लेने से क्या होगा ? ये लोग ऐसे थोड़े स्वीकार कर लेंगे। इन ब्लडी इंडियन्स को तो डंडा ही दिखाना चाहिए। मेरा ख़याल है कि तुम उनसे बहुत नरमाई से पेश आ रहे हो। चौदहवाँ रत्न दिखाए बगैर वे मानेंगे नहीं। कोई सुराग भी नहीं मिलने देंगे।’’ कोल उतावला हो रहा था।
“नहीं, सर, इस तरह चरम सीमा पर पहुँचना ठीक नहीं। पहले ही सैनिक विभिन्न कारणों से बेचैन हैं। उस पर जानकारी हासिल करने के लिए यदि एक भी सैनिक के साथ मारपीट की गई तो सारे सैनिकों में खलबली मच जाएगी और हालात एकदम दूसरी ही दिशा में मुड़ जाएँगे।’’
कोल को स्नो की यह राय सही लग रही थी मगर वह इन क्रान्तिकारी सैनिकों को पकड़ने के लिए बेताब हो रहा था। रॉटरे ने उसे बुलाकर चेतावनी दी इससे वह और भी व्यग्र हो गया था।
‘‘मैं कोई वजह नहीं सुनना चहता। पन्द्रह दिनों के अन्दर अपराधियों को मेरे सामने पेश करो।’’
‘‘मेरी कोशिश जारी है और, मेरे ख़याल से, मैं उचित मार्ग पर हूँ। मेरा ऐसा विश्वास है कि अपराधियों को हम इसी मार्ग से पकड़ सकेंगे।’’ स्नो ने कहा।
‘‘कोई भी मार्ग पकड़ो; मगर पन्द्रह दिनों में कल्प्रिट्स को मेरे सामने खड़ा करो।’’ कोल ने निर्णायक सुर में कहा, उसके क्रोध का पारा नीचे आ गया था।