Khayal-e- pushp

Tragedy

3.3  

Khayal-e- pushp

Tragedy

वारिस

वारिस

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"आप किसी को ढूंढ रही हैं?"

"वह जो यहां रहते थे!"

"किस जमाने की बातें कर रही हैं आप?"

"यही कोई बीस वर्ष हुए!.यहां नीचे उनकी परचून की दुकान हुआ करती थी।"...

वह अधेड़ उम्र की महिला यूं बताने लगी मानो यह कल की ही बात हो। खैर उस बुजुर्ग ने उसे हवेली की ओर आने का इशारा किया।

"हाँ!.यहां उस्मान मियां की एक दुकान हुआ करती थी!.कभी-कभार उनके बेटे भी बैठते थे उस दुकान में।" बुजुर्ग की बातें सुन वह उम्मीदों से भर तनिक मुस्कुराई।

"भरा पूरा परिवार था उनका और तब इस इलाके में ऐसा कोई घर न था जिसकी बहू-बेटियां उनकी अम्मी से अपने दुपट्टे में गोटा लगवाने ना आती होगी लेकिन अब यहां कोई नहीं रहता।"

"क्यों?"

"उनके साथ एक हादसा हो गया था।"

"कब?.क्या हुआ था?" उसने अपने दुपट्टे के किनारों पर चढ़े गोटे को मुट्ठी में भींच लिया। 

"उनकी बेटी किसी गैर बिरादरी वाले के इश्क में पड़कर घर से भाग गई थी! और सजा उन्हें भुगतनी पड़ी।"

"सजा!..कैसी सजा?"

"बिरादरी ने उन्हें परिवार सहित यह इलाका छोड़कर कहीं और चले जाने का फरमान सुना दिया था लेकिन".. बुजुर्ग बताते-बताते चुप हो गया।

"लेकिन क्या?"

"मेरे लाख समझाने और अल्लाह पर यकीन दिलाने के बावजूद उस्मान मियां यह सदमा बर्दाश्त न कर सके और पूरे परिवार के साथ उन्होंने जहर खाकर इसी घर में खुदकुशी कर ली।" 

"खुदकुशी!"...इस शब्द पर वह यकीन ना कर सकी।

"अल्लाह को शायद यही मंजूर था!.आप उन्हीं से मिलने आई थी ना?"

"मैं उन्हें एक खत पहुंचाने आई थी।" अपने आंसुओं पर काबू पाने का असफल प्रयास करती खुद को संभाल वो वहां से जाने को हुई।

"कैसा खत?"

"उनकी बेटी का खत!"

थोड़ी देर के लिए उन दोनों के बीच एक सन्नाटा सा छाया।

"उस्मान मियां मेरे अच्छे दोस्त थे! अगर आपको ऐतराज ना हो तो वह खत आप मुझे दे सकती हैं।" बुजुर्ग ने चुप्पी तोड़ी।

"असल में मुझसे वह खत खो गया! मैं तो बस उन्हें उनकी बेटी के विषय में कुछ बताने आई थी लेकिन"..

"आप वह बात बेहिचक मुझे बता सकती है!.यकीन मानिए यह राज हम दोनों के बीच ही रहेगा।"

"नहीं! मैं आपको नहीं बता सकती।"

"क्यो?.क्या अपने अब्बू की तरह तुम्हारा यकीन भी मुझसे उठ गया नूरी!"

अपने नाम के साथ उन बुजुर्ग आंखों में छलक आए अपनेपन में डूबने से वह खुद को रोक नहीं पाई।

"आपने मुझे पहचान लिया असलम चाचा?"

"मैंने तो तुम्हें देखते ही पहचान लिया था!.लेकिन तुम वक्त रहते क्यों नहीं लौटी नूरी?"

"मैं मजबूर थी चाचा!" उसने बुजुर्ग का हाथ थाम अपनी मजबूरी का यकीन दिलाने की कोशिश की।

"इश्क में इंसान मजबूत हो जाता है!.तुम मजबूर कैसे हो गई?" 

"मैं अपनी अम्मी के कुछ गहने ले उसके साथ यह शहर छोड़ ट्रेन से मुंबई जा रही थी लेकिन"..वह फफक कर रो पड़ी।

"आखिर हुआ क्या था?.बताओ नूरी!"

"उस जनरल कंपार्टमेंट में पहले से मौजूद कुछ उचकों ने हम पर हमला कर मेरे गहने लूटने चाहें और हाथापाई के दौरान चाकू घोंप कर उसकी हत्या कर दी!"..

"किसी ने तुम्हारी मदद नहीं की?"

"मैं सदमें में बिल्कुल गूंगी हो गई थी चाचा!".

वह रो-रो कर अपनी आपबीती बताती रही और वह बुजुर्ग सन्नाटे में कहीं खो गया।

"मैं अपने पक्ष में कोई बयान दर्ज ना करा सकी लेकिन उसकी जेब में मेरे कुछ गहने और उसके सीने में धंसे चाकू पर मेरी उंगलियों के निशान को सबूत मानकर अदालत ने उसकी मौत के इल्जाम में मुझे उम्र कैद की सजा दी।"

"उम्रकैद!" बुजुर्ग को मानो यकीन नहीं हुआ।

"हाँ चाचा!.पूरे बीस वर्ष बाद जेल से बाहर आई तो मेरे पास अपना बस एक ही पता था जो अब वीरान पड़ा है।"

खंडहर बन चुके अपने अब्बू की हवेली निहारती नूरी आंसुओं से तर अपने बेनूर हो चुके चेहरे को अपनी अम्मी के हाथों गोटा जड़े दुपट्टे से पोंछती खुद से सवाल करती रही..

"अब कहां जाऊं मैं?" 

"तुम्हारे वालिद का एक खत मैंने वर्षों से संभाल रखा है।" 

उसे सांत्वना दे हवेली के बाहरी कमरे के भीतर जा कई तहो में मुड़ा कागज का एक टुकड़ा लाकर बुजुर्ग ने उसके हाथ पर रख दिया।

पुरानी डायरी के एक पन्ने पर चंद शब्दों में लिखा वह खत पढ़ वो वहीं घुटनों के बल जमीन पर बैठ नि:शब्द आसमान की ओर टकटकी बांध निहारती मानो पश्चाताप करने लगी।

खत में उसके अब्बू ने उसकी गलती को नासमझी करार दे दुआओं संग

माफ कर उसे अपनी लावारिस हवेली का इकलौती जिंदा वारिस बताया था।

 


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