उसका घोंसला ..
उसका घोंसला ..


गाँव की सड़क पर रमा तेज़ी से स्कूटर चलाती हुई अपनी माँ के घर की ओर बढ़ी जा रही थी। पिछले चार महीने में पहली बार वह उनके यहां जा रही थी।उनका क्या, वह तो उसका अपना घर था, रमा का। और आज वो घर क्या उस घर में आने तक की इजाज़त नहीं थी उसे। उस रमा को इजाज़त नहीं थी जिसकी प्रशंसा करते माँ की जुबां नहीं थकती थी।
रमा बचपन से ही होशियार थी और राज्य में सड़कें बनाने और पाठशालायें दुरुस्त होने से गाँव की लगभग सभी लड़कियों को उच्च शिक्षा की सुविधा प्राप्त होने लगी थी। रमा को भी हायर सेकेंडरी के लिए गाँव के सबसे नज़दीकी सब-डिवीज़न, निर्मलपुर, में दाखिला मिल गया था। उसके पिताजी की बहुत इच्छा थी की लड़की पढ़ -लिख कर लायक बने। रमा के दो भाई थे। पढ़ाई में वे भी ठीक ही थे पर उनका पढ़ाई की तरफ कुछ ख़ास झुकाव नहीं था। वे दोनों अपनी बहन की तरक्की देख कर उत्साहित रहते थे और अपने पिताजी का खेत -खलिहान में हाथ बटाँते थे। वे दोनों ही मीट्रिक कर के घर की खेती -बारी सम्हालने लगे। घर बहुत ही भरा पूरा था. .
अचानक रमा के पिता की तबियत खराब रहने लगी। जांच कराने पर उक्त रक्त चाप की बीमारी पता चली। इस बीमारी से जान का खतरा तो कुछ ख़ास नहीं हुआ, पर अब वे पहले की तरह खेती और उपज में साथ नहीं दे पाते थे। दोनों बेटे जी जान लगाते तो थे पर अपने पिताजी की तरह वे निपुण नहीं थे ,साथ ही शुरु से पुत्र होने का एक रौब उनके अंदर था। सो न उतनी मेहनत होती थी, और ना ही अपनी जीवन शैली में सादगी ही रख पाते थे। जो भी था, रमा की शिक्षा में कोई अड़चन नहीं आयी। देखते देखते रमा ने बी ए भी उत्तीर्ण कर लिया। एक छोटे से गाँव में रह कर, गाँव की बंदिशों वाली सोच के बीच रमा की ये उपलब्धि कम ना थी।
रमा के स्नातक होते ही उनके माँ- पिताजी पे रिश्तेदारों का दबाव पड़ने लगा ,उसकी शादी कराने का। कई तो उसके इतना पढ़ाने पे भी मुंह फुलाये बैठे थे। पर रमा के मन में तो नयी इच्छाएं पनप रही थी। वो तो एक पंछी की तरह पंख फैलाये , खुले आसमान की ओर नज़रें गड़ाए ताक रही थी। अपनी फाइनल परीक्षा के कुछ दिन पहले ही उसने अखबार में राज्य सरकार में गाँव की शिक्षिका के पद का विज्ञापन देखा तथा। उसके मन के पक्षी ने अपना आसमान ताड़ लिया था। बिना किसी को बताये उसने अपनी अर्ज़ी डाल दी थी। यहां उसके घर में ब्याह की बात हो रही थी, कथा पे कथा आ रहे थे, पर उसकी माँ की ज़िद थी की लड़का केवल पढ़ा लिखा ही नहीं , बल्कि भरे-पूरे खानदान का होना चाहिए -उनकी बेटी जो लाखों में एक थी। ऐसे रिश्तों की कोई कमी ना थी ,पर रमा की ज़िद थी की दहेज़ दे कर तो वो ब्याह करने से रही।
इसी उहा-पोह में गर्मी का लगन निकल गया और जुलाई महीने के आखिरी में वो खत आया जिसका रमा दिन-रात ,सोते -जागते प्रतीक्षा करती थी। राज्य सरकार से नियुक्ति का। रमा की अर्ज़ी स्वीकार कर ली गयी थी और उसे अपने निकट के गाँव में मिडिल स्कूल की शिक्षिका के पद पर नियुक्त कर दी गयी थी। रमा को तो मानो जैसे पर लग गए थे, वो नाच नाच के सारे घर में वो पत्र दिखा रही थी। रमा के माता-पिता की तो ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा, और भाई भी फूले नहीं समाये ! जहां उनकी ख़ुशी में कोई खोट नहीं था, वहीँ ये बात ज़रूर उन्हें तसल्ली दे रही थी की अब घर के खर्चे में थोड़ा हाथ बँटेगा ,क्यूंकि घर की हालत अब पहले की तरह नहीं रह गयी थी। अब खेत पाँचों का भार लेने में समर्थ नहीं था। उनकी प्यारी गाय भी बूढ़ी हो चली थी और दूध देना बंद कर चुकी थी।
इस बीच यह एक बेहद सुखद समाचार था। सारा घर उसकी नई नौकरी में, उसके बारे में चर्चा करने में जुट गया। भाइयों को तो लगता था जैसे की छोटी बहन कलेक्टर बन गयी है। क्या पहन के जायेगी, कैसे जायेगी, उस गाँव के लोग के बारे में जानकारी -यही सब में एक महीना निकल गया। स्कूल जाने का पहला दिन।
पहले दिन से ही रमा ने शिक्षिका की नौकरी को नौकरी की तरह नहीं ,बल्कि एक ज़िम्मेदारी की तरह लिया। गाँव के स्कूल में, न्यूनतम सुविधाओं के बीच भी वह पूरी कोशिश करती थी की विद्यार्थियों की सीखने की प्रक्रिया में कोई बाधा ना आये। दिन ,हफ्ते ,और हफ्ते महीने बनते चले गए। जब भी ब्याह की बात आती तो वह अनसुना कर देती ,क्योंकि घर की हालत उस से छुपी नहीं थी और सरकारी नौकरी की पगार हाथ से निकल जायेगी, ये सोच कर घर वालों ने भी धीरे -धीरे चर्चा करना छोड़ दिया। पहले एक भाई की शादी हुई, फिर दूसरे की। माँ ने बड़े की शादी के बाद बेमन से रमा की शादी की बात छेड़ी भी तो रमा ने टाल दिया- जिससे सबके मन को एक तसल्ली मिली।
अब घर में दो भाभियाँ थी ,जो रमा का ख्याल भी रखती थी, माँ की सेवा भी करती थी। रमा को भी अपना रूतबा भाने लगा था। ऐसे ही कई वर्ष बीत गए। रमा का प्रमोशन हो गया था और अब वो हाई स्कूल की शिक्षिका बना दी गयी थी। उन्ही दिनों शाला में एक नौ जवान अपनी बहन को छोड़ने स्कूल आता था। अक्सर रमा उस से उसकी बहन की पढ़ाई के बारे में चर्चा करती थी। बातों ही बातों में कब उनकी दोस्ती हो गयी, पता ही नहीं चला। वो लड़का, प्रवेश , अपने ही गाँव में कांट्रेक्टर था। वो ठेके पे ट्रेक्टर और टैक्सी चलाता था। उसके पास छोटा सा खेत था, घर में वही एक बहन और दो जोड़ी बैलें थी। माँ -पिताजी कुछ वर्ष पहले बीमारी से गुज़र चुके थे।
रमा को प्रवेश बहुत ही समझदार और सुलझा हुआ व्यक्तित्व का मालूम हुआ। दोनों अक्सर खेत की उपज, गाँव में पाठशालों की स्थिति और अपने परिवार के बारे में बातें किया करते थे। एक दिन वह हुआ जिसके बारे में रमा के अंतर्मन में इच्छा तो थी ,पर उस इच्छा को वह खुद से भी नहीं कहती थी- प्रवेश का उसके सामने विवाह का प्रस्ताव रखना। रमा कुछ कह ना पायी, पर उसकी चुप्पी में उसकी हामी थी।
रमा को पूरा विश्वास था की उसके घर वाले ना ही सिर्फ राज़ी होंगे बल्कि उससे उन्हें प्रवेश का भिन्न जाती से होना भी खलेगा। अब कहाँ लोग इन सब में इतना पड़ते हैं। थोड़ा बहुत शुरूआती नाराज़गी हो सकती है -रूढ़िवादी विचारों की वजह से , पर यह सब वह देख लेगी।
अचानक उसका स्कूटर एक गड्ढे में से उछला और रमा की ध्यान निद्रा भांग हुई। उसके सामने अपने घरवालों का तम तमाया चेहरा आ गया। वो माँ और वो भाई जो उसे एक तकलीफ़ नहीं होने देते थे, और जो बाकी समाज से भिन्न सोच रखते थे, प्रवेश की जाती पे बिफर गए। रमा को आश्चर्य हुआ, क्योंकि कुछ महीने पहले उसकी मौसी की लड़की ने भी तो ऐसी ही शादी की थी ,तब तो सब बड़ी राज़ी ख़ुशी साथ चल दिए थे ! रमाँ के साथ की ऐसा विरोध क्यों ?बहुत मन मार के रमा ,अपना घर छोड़ कर प्रवेश के साथ चली गयी। अब वह अपने घर में बहुत खुश तो थी पर अपने मायके से ये जो दूरी थी ,वह इसे कचोटती थी।
वही लोग जो उसका बखान करते नहीं थकते थे , उन्हें उसकी शादी से क्या द्वेष था।
जो बाकी लोग कहते थे वो बात उसके गले नहीं उतरती थी.. सरकारी नौकरी की पगार का जो अब बंटवारा हो जाना था। आराम से जीने के छिन जाने का डर ,और उसके पैसे पे अधिकार खो देने की कुंठा ने रिश्तों में खटास ला दी थी... सब यह बात जानते थे ,पर रमा का मोह भरा मन इसे कहाँ मान पता था, इसी सोच के साथ उसका स्कूटर अपने घर, नहीं अपनी माँ के घर के आगे रुका, और वह भारी मन से घर के अंदर बढ़ गयी। अपनी माँ को उसे महीने का घर खर्च जो देना।