उधड़े ख़्वाब
उधड़े ख़्वाब
ग्वालियर एक्सप्रेस गांधीनगर रेलवे स्टेशन से दनदनाती हुई निकल गई, मालाणी आज फिर लेट थी।
सर्द रात में किसी गाड़ी के जाने के बाद पेड़ो से गिरे पत्तों की अजीब सरसराहट के बाद छाई ख़ामोशी और भी भयावह लग रही थी। विचारों की ऊहापोह में डूबे युवा अफसर स्वरूप ने अपने पैरों को कम्बल से ढकते हुए सुनसान प्लेटफार्म पर निगाह डाली। पुलिया के ऊपर इक्के-दुक्के वाहन आ जा रहे थे। पड़ोस की बेंच पर एक कुत्ता ठिठुरन की वजह से कूँ-कूँ करते हुए खुद को समेट रहा था। चाय वाला भी जाने की तैयारी में था। कुछेक यात्री गर्म कपड़ो में डूबे प्रतीक्षालय में ऊँघ से रहे थे। उसे सुबह ही बाड़मेर पहुँचना है। 'मलाणी अपने निर्धारित समय से 1 घण्टा और बीस मिनट लेट चल रही है' सर्द रात के सन्नाटे को लाउडस्पीकर की आवाज़ चीर रही थी। इंतजार और सर्दी से बचने के लिए उसने सिगरेट जला ली और गानें सुनने लग गया। पर आज कुछ अच्छा नहीं लग रहा था। अधजली सिगरेट को जूते की नोंक के नीचे दबा दिया
"जिंदगी देने वाले सुन, तेरी दुनिया से जी भर गया"
मगर एफ.एम.पर चल रहे इस गाने ने मन को और ज़्यादा खट्टा कर दिया। वह परसों ही बाड़मेर बॉर्डर से छुट्टी लेकर जयपुर आया था, उसने जब पहली बार देखा तब से वो विधवा थी क्योंकि शादी के वक्त असिस्टेंट कमाण्डेंट की ट्रेनिंग में आ नहीं सका था। इस बात को लेकर उसका लगोटिया यार सूरज बहुत नाराज़ रहा और चार माह बाद ही उसकी कार एक्सीडेंट में डेथ हो गई।
इस बीच कदाचित आना भी हुआ तो वो पीहर या ससुराल गई हुई होती।
समाज की प्रथाओं को निभाते हुए उसने शुरू के दो तीन बरस एक बन्द कमरे में चार महीने की उन बिखरी मधुर यादों को भूलाने में लगा दिए, न किसी से मिलना न बात करना सिर्फ भाव शून्य साँस लेती एक ज़िन्दा लाश की तरह, घर के लोग खाना खिलाने का प्रयास करते तो कौर गले में अटक जाता और आँखों से आँसू झर झरते, मगर किसी रूह के रिश्ते को आँसुओ से थोड़ा ही पोछा जाता है। जितना भूलना चाहो उसे दुगुना गहरा होता जाता वो इश्क का सच्चा रंग।
आँसू भी कितना साथ देते आखिर वो भी सूख गए नैनों से।और पीछे रही शून्य में ताकती दो विधवा आँखे जिनका साथ सजल व साजन दोनों छोड़ गए, मगर उसका हियाँ रोता था भीतर ही भीतर, कभी-कभी तो अंदर इतना दर्द होता था कि साँस तक रुक जाती, अंदर अजीब-सी घुटन होती थी वो रोना चिल्लाना चाहती मगर आँखों के सूखे मरूस्थल से एक बून्द तक नहीं गिरती।
वो तड़पती वो दर्द में कराहती हुई पेट के बल दुहरी हो जाती थी, साँस लेने के लिए और इस प्रयास में, न जाने कब बेहोश हो जाती।
यह सच है कि गम और घाव कितना भी गहरा हो समय उसे मरहम लगा के भर देता है मगर उसके निशान पतझड़ी और बादल भरी शाम में फिर से गहरा जाते और भीतर-भीतर कचोटते रहते है जिंदगी भर।
उसने भी अपनी नियति को स्वीकार कर सार्थक जीवन को निरर्थक तरीके से जीने का प्रयास शुरू किया।
स्वरूप जब भी उनके घर आता तो भाभी से ज़रूर मिलता।वह हमेशा एक ही रंग के सादगी भरे कपड़े पहने हुए सलवटों से भरे चेहरे पर फीकी व उदास मुस्कान के साथ गम्भीर बातें करती थी। वो उसे देश दुनिया की बातें सुनाता तो कभी हल्के-फुल्के चुटकले। इससे उसकी शून्य आँखों में क्षण भर चमक आती और चेहरा लाल हो जाता दूसरी घड़ी वो खुद को संभाल लेती।
उसे क्षण भर ख़ुशी देने के प्रयास में जब कभी भी वो उसे हँसाता तो वो और ज़्यादा उदास हो जाती। वो भी जब कभी उसके घर आती, वह खूब बातें करता, कोशिश करता कि उसके गम से भरे दिनों में से आज के एक दिन को तो ख़ुशी से कटवा लूँ। उसने महसूस किया वो उसके साथ वो काफ़ी खुल कर बातें करती, अपने दर्द को साझा करती थी। मगर उसे वह दिन याद है जब वो गुहावटी पोस्टिंग से जयपुर आया था। एक दिन भाभी से मिलने गया तो अपने कमरे में फर्श पर लेटी रो रही थी।
आँसुओ से पड़े खारे निशानों को घुँघट की ओट में छिपाते हुए गंभीर मुस्कान लाने का प्रयास किया मगर आज वो भी गायब थी।
क्या बात है भाभीसा? कुर्सी पर बैठते हुए पूछा उसने कोई जवाब नहीं दिया, सिर झुकाये न जाने कहाँ गुम थी। स्वरूप ने पहली बार उसका चेहरा ऊपर किया तो वेदना दर्द छलक पड़ा। वो सिर्फ रो रही थी, रोते हुए उसकी हिचकियाँ बन्ध गई मगर कुछ नहीं बोल रही थी।
उसे समझ में नहीं आ रहा था क्या करे। वह कुछ देर बैठ कर अनमना सा घर आकर बिस्तर पर विचारों के उधेड़बुन में उलझ गया।
एक व्यक्ति के साथ सात फेरे लिए थे और वो बीच में छोड़ गया। न कोई अरमान, न सपने, केवल चार महीनों की यादों के सहारे पूरा जीवन काटना। कितना कठिन होता है देवरानी और जेठानी को वार त्यौहार सजते संवरते देखना।
कितना असहनीय होता है भरे यौवन की सर्द सिसकती रातों को काटना उनके मासूम बच्चों को गोद में खिलखिलाते हुए पलते बढ़ते देखना।
उसकी क्या गलती थी, जो यह सजा मिली, शायद यह उसका प्रारब्ध हो।
प्रारब्ध के नाम से उसे सूरज के साथ दिल्ली के जे.एन.यू. हॉस्टल की वो लम्बी चौड़ी बहसें याद आ गई।
एक बार समाज में विधवा विवाह को लेकर बहस में उसने यह तर्क दिया था कि ये सिर्फ लम्बी चौड़ी बाते हैं सूरज बाबू!
कोई नहीं स्वीकार पाता सेकंड हैण्ड पत्नी को और न ही परिवार से कोई विद्रोह कर किसी विधवा को हमसफ़र बनाता है, कहने को तो हम सैद्धान्तिक दावे कर देते हैं मगर यथार्थ का धरातल कुछ और ही निकलता है।
उस वक्त सूरज ने बौद्धिक भावुकता में कहा था कि अगर सच में कोई ऐसी जरूरत पड़ी तो वो पहल करेगा।
मगर नियति को कुछ और मंजूर था।
माँ ने खाने को तीसरी बार आवाज़ लगाई तो वो नीचे चला गया।
माँ! भाभी की दुबारा शादी क्यों नहीं करते ये लोग? उसने कौर को निगलते हुए पूछा- कौन करेगा अपने समाज में एक विधवा से? माँ ने एक और रोटी थाली में रख दी।
अगर उन्हें एतराज़ नहीं हुआ तो मैं करूँगा।
'पागल हो गए हो क्या, शुभ-शुभ बोलो
हमारे पास भगवान का दिया सब कुछ है, तेरे पास तो अच्छी नौकरी है, तेरी शादी तो बड़े घर में करूंगी, खूब सारा दहेज मिलेगा, कम से कम दो चार करोड़ तो देंगे ही'
'प्लीज बन्द करो ये नाटक, खाना तो ढंग से खाने दो माँ ' बहिन मनु प्लेट सरका के ऊपर चली गई।
वह भी बेमन खाना खाकर जैकेट पहन छत पर टहलने आ गया। वह भी सामने वाली छत पर शॉल ओढ़े घूम रही थी। इच्छा हुई कि वो शाम वाली घटना के बारे में पूछे मगर उससे हिम्मत नहीं हुई वो उसे फिर से रुलाना नहीं चाहता था उसे क्या हक कि वो उसके दर्द को कुरेदे। चार पाँच चक्कर घूमने के बाद वो खुद उसके सामने आकर पैर के अँगूठे से सख्त फर्श को रगड़ती हुई जड़वत सी हो गई।
स्वरूप को पता नहीं क्या सुझा उसके दोनों हाथ पकड़ दोनों छतों के बीच बनी दीवार पर बिठा दिया।
वर्षो के वैधव्य के पहाड़ तले दबी विस्मृत सी बदरंग अनुभूति प्रेम के हल्के ताप से पिघल गई।
मगर कुछ ही क्षण में हाथ छुड़ा कर एक तरफ खड़ी हो गई और सिकुड़ा हुआ सा कागज का टुकड़ा देकर वो धीरे-धीरे नीचे की और चली गई।
सलवटों से भरे उस कागज पर उसने अपनी भावनाओं को उकेरा था
"यह दुःखों से भरा जीवन अब सहा नहीं जाता, श्रद्धा विहीन रोटी के टुकड़े गले से नीचे नहीं उतरते और सहन नहीं होता यह सत्ता विहीन अस्तित्व या तो स्वीकारो या मुक्ति दो देव।"
उसने पत्र को आठ दस बार पढ़ा हर शब्द में छिपे उसके भाव को अपने अर्थ देने की कोशिश करता। कभी खुद के हिसाब से तो कभी वो बनकर। शब्दों की मात्राओं से हृदय के अंतरतम में उपजे भावों के सिरे को पकड़ने की कोशिश करता। कभी नैतिकता की दुहाई से फिसलता तो कभी बरसों जमी राख के नीचे दहकते शोलो की तपिश में तपता तो कभी दोस्त सूरज की बौद्धिकता भावुकता उसे याद आती तो बीच बीच में खाने के वक्त नैतिकता परिवार समाज और नौकरी को लेकर दिए माँ के तर्क याद आते।
रात भर दिमाग और दिल से लड़ते हुए उसने तय किया कि विधवा के निमन्त्रण को स्वीकारेगा, दोस्त की अधूरी प्रतिज्ञा को पूरा करेगा और अपने दिल के कोने में पनपे रहे प्यार को विकसित करेगा अगली बार जब लम्बी छुट्टी पर आएगा तो वकील साहब के सामने भाभी से विवाह का प्रस्ताव रखेगा।
उसके दूसरे दिन वो नई पोस्टिंग के लिए बाड़मेर जैसलमेर के बॉर्डर पर चला गया। मगर सप्ताह भर बाद बहिन ने व्हाट्सएप्प पर मेसेज किया 'शी इज़ नो मोर' वो चली गई।शायद मेरा बिना मिले ड्यूटी पे जाने को उसने "ना" ही समझा और आत्महत्या कर ली। आज उसकी जलती चिता में न गर्मी थी न ही धुंआ,शायद उसमे कई उधड़े ख़्वाब जल रहे थे...
उसके प्यार के, मेरी संवेदना के और सूरज की मानवीय सोच के।
'जिन यात्रियों को फुलेरा मेड़ता जोधपुर बलोतरा बाड़मेर की यात्रा करनी है वो प्लेटफार्म नंबर दो पर पहुंचे'
दोस्ती, संवेदना मानवता और बौद्धिकता को झटकाते हुए परिवार समाज, नैतिकता और झूठी आन, बान और शान से भरे बैग को कंधे पर लटका कर भारी कदमो से दो नंबर प्लेटफॉर्म के लिए सीढियां चढ़ने लगा।