खालीपन

खालीपन

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शाम की थकी मेट्रो सी वो ऑफिस से घर आके चाय का कप लेकर या तो टीवी देखती या फिर सुबह के अख़बार के पन्ने फिर से पलटती। ये उसका रूटीन था। मगर कुछ महिने पहले बेटी ने फेसबुक चलाना सीखा दिया तो अब ये बोझिल शामें चाय के साथ फेसबुक पे सर्फिंग करते हुए कटने लगी।उसे अच्छा लगता था लोगों के चेहरे और दिमाग पढ़ना, यहाँ हर रंग के मुखौटे पहने लोग मिलते, यहाँ अलग-अलग तरीके से लोग अपने दर्द को साझा करते हुए दिखाई देते तो कहीं सहारा देने के बहाने सहारा ढूँढ़ते लोग, हरेक ने अपने हिसाब से ये आभासी दुनिया बना रखी थी, सभी चाहते थे अपनी हर बात को बयाँ करना, चाहे बड़ा गम हो या छोटी ख़ुशी ,सभी को बेसब्री से इंतज़ार रहता था, पसन्द के साथ कमेंट्स का, भले ही वो झूठमूठ के हो, मगर ये सब अहम को पुष्ट और दिल को वहम देते थे। पता ही नही चलता था घण्टो कैसे गुज़र जाते। इन्हीं चेहरों के बीच उसे वो दिखा। वो अक्सर रविवार को ही कोई कविता, कहानी और ग़ज़ल पोस्ट करता था। वो अपने पात्र में उतर कर हौले से मन की परतें उघाड़ता था। वो अपने पात्रों को मन की उलझनों में गूँथता था और काळजे की कोर की उस दाजती हुई गंध को महसूस करवाता था। वो दर्द की नब्ज़ को उस छोर से दबाता था जहाँ शब्दों में रिसता था वर्षों से दबा अनछुआ दर्द। उसकी ग़ज़लों के मिसरों में कसक होती थी भूले हुए पुराने प्यार को याद करवाने की। उसकी कहानी देह से फिसलती हुई उतरती थी आहिस्ता-आहिस्ता मन में और छोड़ जाती थी रूह में अजीब सी सरसराहट, जो पूरे सप्ताह उसे मीठा इंतज़ार करवाती थी। एक रात अचानक उसका इनबॉक्स में मैसेज चमका... उसने हाय हेलो से बात शुरू की।
अच्छा लिखते हो।
जी, शुक्रिया, ये सब आपका रहमो करम है।
नही ये आपका टेलेंट है।
अपने बारे में कुछ बताओगे मैडम?
क्या करोगे जानकर? हमे आपका पाठक ही रहने दो।
ठीक है, जो आपकी मर्ज़ी मैम, बाय, गुड नाईट
इस तरह उससे बातें होने लगी। वो अक्सर शाम को ही बात करती।
कभी-कभी पति घर पे नही होते तो रात को भी कर लेती। फिर पता नही कब मेट्रो में आते जाते मोबाईल नंबरो का आदान प्रदान हो गया तो व्हाट्सअप पर भी उसे वो कई अजब गजब के सवाल पूछता रहता, शायद वो उसके बारे में कुछ जानने की कोशिश कर रहा था,मगर वो हमेशा टाल देती। पर उसका इस तरह पूछना उसे अच्छा लगने लगा।
"आपके जीवन क्या कमी है?" उसने एक दिन फोन पर पूछ ही लिया।
मेरे जीवन में क्या कमी होगी? सब कुछ है मेरे पास, पति सरकारी अफसर है, बेटी डॉक्टरी की पढ़ाई कर रही है लड़का बैंक में है, दिल्ली में खुद का मकान है, सब तो है मेरे पास"

'फिर भी उस सब में 'कुछ' तो गायब है मैडम' वो अभी भी अड़ा था।
'मुझे तो कुछ नही लगता अगर तुम मन की बातें जानते हो तो तुम ही बताओ'
"मुझे लगता है आपके जीवन का कोई हिस्सा अधूरा ही रह गया" उसने कहा।
अधूरापन के नाम से वो हिल गई मगर जिज्ञासा और भी बढ़ गई।
'वो क्या है वो भी बता दो' उसने संभलते हुए पूछा।
"शायद प्यार" उसने कहा
अभी पति बुला रहे है रात को फेसबुक पर बात करते हैं कह कर फोन काट कर वहीं बालकनी में खड़ी हो गई। वो उदासी से भर गई। बार-बार उसका सवाल जेहन में आ रहा था। इस भागते हुए शहर में उसने कभी खुद के बारे में सोचा ही नही था। पहले पढ़ाई,नौकरी और फिर पिताजी की जिद से शादी।
45 साल के जीवन में जब कभी भी खुद को तन्हा पाती तो खुद को भीड़ में शामिल कर देती और उस कोलाहल को खुद के अंदर भर देती। मगर आज उसके सवाल ने खाली पड़े उस कोने में हलचल मचा दी।
सुबह से शाम ऑफिस में खपना फिर शाम को थक हार घर आना। कहने को तो घर है बाकी रात बसर के सिवाय और कुछ नही था। बच्चे दूसरे शहरों में है वो भी अपने अपने स्पेस के साथ। शादी अरेंज थी मगर दोनों अलग अलग से प्यार करते थे इसलिए शादी के बाद कभी प्यार दिखा नही, बस अपने अपने तरीको से जी रहे थे, शायद वक्त के हिसाब से दोनों ने हालातों से समझौते कर लिए थे। उनका अपना रूटीन था, अपनी दुनिया थी उसमें जीते थे। रातें अक्सर स्मार्टफोन की दूधिया रौशनी में उनींदा सी ही पता नही कब खत्म होती और फिर दिन में बन जाते महानगरीय भीड़ का हिस्सा। सिवाय कमाने और खाने के उसके जीवन का कोई मकसद नही था। कहने को तो वो हर वक्त लोगों से घिरी रहती चाहे ऑफिस हो, मेट्रो हो या फिर कॉलोनी का पार्क मगर यहाँ के सारे रिश्ते औपचारिकतावश थे, रिश्तों में न जान थी न जज़्बात। वो अक्सर चुप और उदास रहती थी। साँझ के साथ ही उसके चारों तरफ उदासी भी पसर जाती थी जिसे वह टीवी और अख़बार में जज्ब करने की कोशिश करती, मगर फेसबुक ने उसे काफ़ी सहारा दिया। इस खाली पड़े कोने में उसने कब दस्तक दी उसे पता ही नही चला।
वो उम्र और अनुभव के लिहाज से काफी छोटा था मगर उसके साथ अपने को शेयर करना उसे अच्छा लगने लगा। वो धीरे-धीरे दिल की गिरह खोलने लगी। अपने पति की बीमारी से लेकर बाई की किचकिच उससे शेयर करती।उससे बात कर हल्का महसूस करती, अपनापनसा लगता।कभी कभी वो ऑनलाइन नही होता या कुछ नही लिखता तो अक्सर फोन कर पूछ लेती।
"मैडम आपको मुझसे प्यार हो गया" उसने एक दिन छेड़ते हुए कहा।
रहने दो, तुम्हारी उम्र जितनी तो मैंने नौकरी कर ली है, तुम्हारी उम्र के मेरे बच्चे है और तुम प्यार की बाते कर रहे हो" वो बोली।
क्या प्यार अपनी उम्र के लोगों से ही होता है मैम?
नही फिर भी
फिर भी क्या? तो हमारे बीच में क्या है?
प्यार व्यार कुछ नही है, बस तुम्हारी बातें अच्छी लगती है, दिनभर की थकान उतर जाती है कुछ सुकून सा मिल जाता है, बस यही। वो चुप हो गई, उसे लगा कही कुछ ज़्यादा बोली तो वो फिर से पकड़ लेगा। वो नही चाहती थी उनके बीच रिश्ते को नाम मिले लेकिन वो ज़िद्दी था बार-बार टटोलता था।
मुझे पता है आप इसे कभी स्वीकार नही करोगी, हमारे बीच उम्र का अन्तर है आप शादीशुदा हो।
"सब जानते हो तो फिर बार-बार सवाल पूछ मुझे उलझनों में क्यों डालते हो"
जीवन की यह अजीब विडम्बना थी कि एक तरफ जवानी का उभरता प्यार देह के आगोश में पिघलना चाहता था। उधर ढ़लती जवानी का प्यार भावनाओं का सहारा तलाश रहा था।दोनों प्यार तलाश रहे थे मगर अपने अपने तर्कों से।
'तुम्हें मुझसे प्यार नही है मेरे जिस्म से है' एक दिन विवाद में बोल पड़ी
क्या जिस्मानी प्यार नही हो सकता ? वो बोला
'कभी नही,वो सिर्फ वासना होती है'
तो क्या ये सारी दुनिया वासना का ही खेल रही है?
'मैं सबका नही कह रही हूँ मगर तुम मुझे दिल्ली की प्यासी आंटी ही समझ रहे हो' वो उबल पड़ी
सुनो भी! क्या स्त्री पुरुष के दैहिक माँग में प्यार नही होता?
नही प्यार पवित्र होता है जहाँ कोई माँग नही होती कोई अपेक्षा नही होती।
तो क्या आपकी कोई अपेक्षा नही मुझसे
नही, मैं सिर्फ प्यार करती हूँ तुमसे
मैडम, आप ढहती हुई दीवार हो जो सहारा ढूढ़ रही हो।आपके जीवन में शून्यता थी जिसे भरने की कोशिश कर रही थी। आपको भावात्मक सहारा चाहिए था जो इस भागते हुए शहर में आपके लिए कोई वक्त निकाले
आपके दर्द-ए-गम को समझ सके उसे मरहम लगा सके। हरेक आदमी अपने खालीपन को भरने के लिए पात्र ढूढ़ता हैं चाहे वो प्यार का हो वासना का हो पैसो का हो या गरीबी का हो
वो चुप थी मगर वह अपनी रौ में बोले जा रहा था।
वो बोलते-बोलते अचानक चुप हो गया। तूफान से पहले की ख़ामोशी दोनों के बीच छा गई।
हेल्लो सुन रही हो ना? चुप क्यों हो?
हाँ, हाँ मैं सुन रही हूँ।
तो जवाब क्यों नही देती?
किस बात का?
मैं तुमसे दिल्ली आकर मिलना चाहता हूँ मगर तुम इसे टाल क्यों रही हो?
"ओफ़्फ़ो! तुम समझने की कोशिश ही नही करते। हाँ मैं मानती हूँ मेरे इस सूने जीवन में तुम खुशियाँ लाये, मुझे तुमसे बाते करना अच्छा लगता है, मगर..."
मगर क्या? वो सुनने को आतुर था।
मगर हम दोनों विपरीत ध्रुव पर है, ये हो नही सकता तुम्हारे आने से मेरी पारिवारिक ज़िन्दगी बर्बाद हो जायेगी
प्लीज समझा करो, हम एक दूजे को मोबाइल पर बात कर लिया करेंगे, मैं समझती हूँ आपके प्यार को मगर हमारे इस प्रेम की अपनी सीमाएं है।
वाह मैडम आपकी माँग तो पूरी हो जाये मगर मेरी ज़रूरतों का क्या?
क्या रिश्ते सिर्फ दैहिक ज़रूरतों पर टिके हुए होते है? वो बोली
आप मुझसे मिलोगी या नही? वो इस वक्त रिश्तों की दार्शनिक व्याख्या में नही पड़ना चाहता था, सिर्फ निर्णायक ज़वाब चाहता था।
ठीक है अगर तुम्हारी ये ज़िद है तो आज के बाद तुमसे कभी बात नही करूंगी बाय...
ठीक है भाड़ में जाओ! तुम जैसे मतलबी लोग ऐसे ही होते हो। वो भी गुस्से में उबल पड़ा।
वह फोन स्विच ऑफ कर खाना बनाने चली गई। वो काफ़ी राहत महसूस कर रही थी कि उम्र के इस मोड़ पर उसने यह निर्णय लेकर खुद व परिवार के सकून को बचा लिया।
रात को सोने से पहले उसने फेसबुक को डीएक्टिव कर दिया उसके व्हाट्सएप्प नंबर डिलिट कर दिए। रविवार को सुबह कॉफी का कप लेकर बैठी तो सर कुछ भारी सा लग रहा था, देह से परे कुछ टूट सा रहा था, मन में अजीब सी रिक्तता रिस रही थी और कुछ ही देर में वो ख़ालीपन से भर गई। कॉफी का घूँट आज ज़्यादा ही कड़वा लगा। उसने जीभ और मन के कसैलेपन को दूर करने के लिए शक्कर के डिब्बे के साथ तकिये नीचे रखे मोबाइल को ले आई।
फेसबुक फिर से एक्टिव कर कुछ ढूंढने लगी...शायद उस खालीपन को भरने के लिए।


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