त्याग
त्याग
एक बार एक महात्मा बाजार से होकर गुजर रहे थे। रास्ते में एक व्यक्ति बादाम बेच रहा था। उस महात्मा के मन में विचार आया कि बादाम लेना चाहिए। लेकीन उनके पास तो पैसे नहीं थे। अपने मन को समझाया और वहाँ से चल दिए। किंतु महात्मा पूरी रात सो नहीं पाये। रातभर बादाम-बादाम दिखता रहा। सुबह होने पर वह जंगल की ओर चल दिये। वह जंगल से गुजर रहे थे। उन्हें सूखी लकड़ियाँ दिखाई दी। महात्मा ने सोचा, "मैं इन लकड़ियों को बेच दूँगा तो मुझे पैसे मिल जायेंगे। मनचाहे बादाम खा लूँगा।" यह सोचकर बहुत सारी लकड़ियों को इकट्ठा कर बड़ा-सा लकड़ी का गट्ठर बाँध लिया। वह गट्ठर उठा नहीं पाये। कोई मदद के लिये आ जाये, लेकिन वहाँ कोई नहीं था। लकड़ी के गट्ठर को खड़ा कर पेड़ का सहारा लिया, और खड़े-खड़े गट्ठर सिर पर उठा ही लिया। एक-एक कदम भारी हो रहा था। अभिलाषा में इन्सान क्या नहीं कर सकता। उन महात्मा ने अपने मन से कहा, "यदि तुझे बादाम खाना है, तो यह बोझ उठाना ही पड़ेगा।" महात्मा, थोड़ी दूर चलते, फिर गिर जाते, फिर चलते और गिरते। उनमें एक गट्ठर उठाने की हिम्मत नहीं थी। वह निहायत कमजोर वयस्क थे। लेकिन हौसला भारी था। गट्ठर उठाकर किसी तरह दो मील की यात्रा पूरी करके वह शहर पहुँच गये। और उन लकड़ियों को बेचकर जो पैसे मिले उससे बादाम खरीदने के लिए बाजार में चल दिये।
बादाम सामने देखकर महात्मा का मन बड़ा प्रसन्न हुआ। महात्मा ने उन पैसों से बादाम खरीद लिये। तभी उन्हें कुछ अलग मनके अंदर खलबली हुयी। महात्माजी का मन कचोट रहा था। मैं तो संत हूँ; मैं कैसा संत हूँ? महात्माजी ने अपने मन से कहा कि आज बादाम खाने की इच्छा हुयी है, कल फिर कोई और इच्छा होगी। परसों और कोई इच्छा होगी। मैं तो मायाजाल में फँस ही जाऊँगा! कभी कपड़ों की इच्छा, कभी स्त्री की इच्छा, अगर स्त्री आई तो बाल-बच्चों की इच्छा होगी। तब तो मैं पूरी तरह से माया में फँस जाऊँगा। नहीं मैं मन का गुलाम नहीं हो सकता। सामने से एक गरीब आ रहा था। महात्माजी ने उस गरीब को बुलाकर सारे बादाम उसे दे दिये। ऐसे संत आजकल कहाँ मिलते हैं। वह तो त्याग करना जानते थे। "वह त्यागी संत थे"।