तर्पण - जिंदा पितरों का
तर्पण - जिंदा पितरों का


गांव के सबसे बड़े घरों में से एक ठाकुरों के घर में आज बहुत चहलकदमी थी। बृजलाल ठाकुर के तीनों पुत्रों विजय, रघुवीर और शंकर ने अपने पिता की पहली बरसी और पितरों के श्राद्ध के लिए एक बड़े आयोजन की तैयारी की है। पूरे गांव के साथ-साथ आसपास के गांव के बड़े-बड़े लोगों को भी बुलाया गया है।
बृजलाल ठाकुर गांव के प्रतिष्ठित सज्जन होने के अलावा कभी गांव के सरपंच भी हुआ करते थे, तो बहुत लोगों से उनके अच्छे संबंध थे। अपनी उम्र आते-आते सज्जन होने के नाते उन्होंने सब चीजों से संन्यास ले लिया और शांत जीवन की तरह ही शांति से एक रात आंखें बंद करके सोए तो जरूर पर उठे नहीं। शोक के नाम पर इतना ही मनाया गया कि बड़े- बूढ़े तो समय पर जाते ही अच्छे लगते हैं। घर के सबसे छोटे शहजादे शंकर के नौ वर्षीय बेटे विकास ने अपनी मां से पूछा - "मां,ये सब क्या हो रहा है?"
उसकी मां ने जवाब दिया "बेटा जो घर के बुजुर्ग हमें छोड़ कर चले गए हैं, हमारे पास जो कुछ भी है उन्हीं की वजह से है तो हम श्राद्ध तर्पण दे कर उनकी आत्मा की भूख प्यास को तृप्त करते हैं और वो दिव्य रूप में आकर ग्रहण करते हैं।" विकास जवाब पाकर पूरा दिन जोश में पितरों को ढूंढता रहा कि वो कैसे होते हैं और उनकी सेवा के लिए तत्पर था।
आयोजन बडे जोरों शोरों से मनाया गया सब लोग बड़ी तारीफ करते गए कोई खाने की तो कोई आवभगत की, कोई तो यहां तक भी कह गया कि बृजलाल खुश हो गया होगा इतना स्वादिष्ट खाना खाकर। मृत तो सब खुश हो गए होंगे, पर एक जीती हुई मां की खबर किसी ने न ली। बस एक बार विकास की मां ने दादी को खाना खिलाने के काम विकास को जरूर सौंप दिया था। और उस मासूम आत्मा ने, जो पितरों को ढूंढ कर थक चुका था, खुशी खुशी दादी को खाना खिला दिया। सब कार्य पूर्ण करने के बाद शाम को सब काम खत्म करके सब आराम से सो गए
बस कहानी शुरू हुई अगले दिन बृजलाल के कमरे से, बृजलाल ठाकुर अपनी पत्नी प्रेमवती के संग उसी कमरे में रहते थे। वह बूढ़ी विधवा पूजा-पाठ करते उसी कमरे में जीवन व्यतीत कर रही थी। अब दुख की बात यह है कि ज्यादातर बुजुर्गों का काम घर में तब तक ही रहता है जब तक बच्चे थोड़े बड़े ना हो जाए। वह बच्चों को पालने तक ही जरूरी रहते हैं। बाकी बाद में तो घर के लोगों में अजीब सी घिन रहती है, जो वो लोग भी बयां नहीं कर सकते जैसे कि बुजुर्गों के कमरे में से बदबू आती हो, या फिर छू लिया तो उनके हाथ जैसे गंदे से हों। कोई नहीं समझता कि शरीर के संग संग किसी इंसान की भावनाएं तो बुड्ढी नहीं होती हैं और न उनके प्यार की चाहत ही। यही हाल बृजलाल की पत्नी प्रेमवती का था। पति के रहते तो दोनों आपस में कुछ बात कर लेते थे पर उनके जाने के बाद अब कोई हालचाल पूछने वाला भी न रहा हो जैसे। बाहर वाले बैठक के कमरे में बैठी बैठी आते जाते लोगों से राम-राम लेती रहती और कमजोर निगाहों से देखती रहती कौन आ रहा है, कौन जा रहा है।
कहते हैं जो लोग जाने वाले होते हैं उन्हें कुछ अलग दैविक अनुभव होने लगता है। प्रेमवती के लिए वो अनुभव बन कर बृजलाल जी आए। जो आत्मरूप होकर भी प्रेमवती को स्पष्ट दिख रहे थे। ठकुराइन ने समझदारी दिखाते हुए किसी को कुछ न कहा, लोग बुढापे में सठिया गयी है ही बोलेंगे। ठाकुर जी बोले,"प्रेमवती, तुझे लेने मैं खुद आया हूं। मेरे बिना तेरी ये हालत मुझसे देखी नहीं जा रही। कल मेरे बेटों ने पूरे गांव में बहुत वाहवाही कमाई कि पितरों की अच्छी सेवा की। बस इस कोठरी में पड़ी उन्हें जिंदा देवी याद न आई। तू चल मेरे संग। यहां मरे हुओं तृप्ति की ज्यादा परवाह है, जिन्दे बूढ़ों के तो बस मरने का इंतेजार रहता है। फिर तुझे क्यों जीना है।" प्रेमवती साल भर से शायद यही तो मांग रही थी। पर पुत्रों और पोतों से बहुत मोह था। रुंधी सी आवाज में कहा तीन दिन और जीना चाहूंगी तीनों बेटों के लिए। उन्हें एक बार और देख लूं। बृजलाल जी मुस्कुराये और बोले मैं भी साथ रहूंगा। तीन दिन वह बुढ़िया कमरे में कैद न रही। कुछ बोलती खुद हंसती और मन ही मन सबको आशीष देती रहती, फर्क न पड़ता किसी की नाक भी चढ़ रही है तो। थोड़ा रहस्यमयी ये था कि इन तीनों दिन विकास दादी से चिपका ही रहा, जैसे उसे सब सुन गया हो या उसने भी दादा को देख लिया हो उस दिन कमरे के बाहर खेलते हुये।
अब वह घर में बनी दादा दादी की समाधि पर रोज जल चढ़ाता और भोग लगाता है, साथ ही जैसे माफी भी मांगता हो सबकी तरफ से। मन ही मन निश्चित करता है अपने माता पिता के साथ ऐसा नहीं करेगा। ये सब देख एक दिन उसकी माँ ने पूछा तो जवाब दिया कि साल में बस एक बार खाएंगे तो मेरे दादा दादी भूखे नहीं मर जाएंगे?