तितलियों के जैसी मैं
तितलियों के जैसी मैं
वैसे तो मैं थोड़ी चिड़चिड़ी, थोड़ी मस्तमोली, थोड़ी सी दीवानी और थोड़ी सी पागल थी।
मुझे खुद के सिवा कुछ नहीं सुझता है इसलिये हमेशा मैं अपने खेलों में लगी रहती थी। इसलिए घर वाले भी ज्यादा कुछ नहीं कहते थे। मैं अभी सिर्फ 13 वर्ष की हुई थी। मैं स्कूल से घर लोटते ही बैग फेंककर सरसों के खेत में अपने दोस्तों के संग चली जाती थी। अगर कोई दोस्त नहीं मिलता तो मैं अकेले ही चली जाती थी। मुझे सरसों के खेतो में तितलियों संग झूमना व उड़ना बहुत अच्छा लगता था। मुझे उड़ते हुये तितलियों को निहारना अच्छा लगता है। जब वो उड़ती थी तो मैं भी उनके पीछे-पीछे हो लेती थी। मुझे उनके पीछे सुबह से शाम हो जाती थी। मेरे घर के मुझे इधर से उधर ढूंढ़ते रहते थे पर मैं तो खेतों में होती थी। जब मैं शाम को घर आती तो मुझे घर वालों की अच्छी खासी डाँट पड़ती थी और मैं तितलियों की भाँति सब कुछ सुन लेती थी जैसे कि वो मेरी सुनती थी। मेरे साथ हर रोज लड़ाई होती थी।
मैं स्कूल से लौटने के बाद में फिर भी वहीं पहुँच जाती थी। मैं अपनी आदत से मजबूर थी। मैंने तो उन खेतों में उड़ने वाली तितलीयों के नाम भी सुझ लिये थे। और में अपनी कक्षा में ये बात बड़े चाव से सबको बताती थी। कुछ दोस्त मेरा मजाक भी बनाते थे और तितली-तितली कहकर मुझे चिढ़ाते थे पर मुझे इन बातों से कोई फर्क नहीं पड़ता था।
मुझे ना हर रंग की तितली पंसन्द थी पर दिक्कत एक थी अब गाँवों को शहर में बदला जा रहा था। जंगलों को उजाड़ कर पेड़-पौधे को काटकर खेतों में पक्की सड़कें और बिल्डिंग नई-नई बनाई जा रही थी।
गाँव के सभी लोग खुश थे पर मैं उदास थी। मेरी उदासी का कारण सिर्फ तितलियाँ और जंगल के जीव-जन्तु थे।
मैं चाहकर भी कुछ नहीं कर सकती थी। मैं अपने पड़ोसी और घरवालों से कहती थी कि तुम सब इसका विरोध करो और किसानों से कहती कि तुम अपने खेतों का मुआवजा मत लो। सड़कें और बिल्डिंग मत बनने दो पर मेरी सुनता कौन।
मैं तो छोटी बच्ची थी। इन बातों पर मुझे बाहर व घर पर बहुत डाँट पड़ती थी। गाँव वाले हमेशा मेरी शिकायत मेरे पिता जी से करते, और तुम्हारी बेटी पागल हो गई मोहन, तितली हमेशा बकवास करती रहती हैं, इन बातों से तो मुझे और डाँट पड़ती। दादी और मम्मी-पापा लड़ते, घर में रहने को कहते।
उस दिन पता नहीं मुझे क्या हुआ मुझे भी गुस्सा आ गया मै रोती हुई बोलने लगी। चीख-चीख कर अगर तुम सब अपने खेतो को बेच दोगे तो वो और तितलियाँ कहाँ रहेगी और कहाँ जायेगी और क्या खायेगी।
पापा जी ने एक दम कहा- हमें क्या, वो कहीं भी जाये या मर जाये।
अगर मैं भी तितली होती तो क्या तुम मुझे भी मरने को छोड़ देते।
मेरी इन बातों का उनके पास कोई जवाब नहीं था। वो एक-दूसरे का मुँह देखने लगे। तभी मॉम आगे बढ़ी और मुझे गोद में उठाने लगी पर मैं मॉम को हटाते हुये रोती हुई बाहर भाग गई और अपनी तितलियों के पास चली गई। वहाँ खेतों में खुदाई हो रही थी। बड़े - बड़े मिट्टी के ढेर लगे हुये थे और पेड़ गिर कटे हुये पड़े थे। और उन्हीं मिट्टी के ढेरो के ऊपर पक्षी और तित्लियाँ मंडरा रही थी। मैं रोते हुये वही बैठ गई। चील, कौआ, कबूतर भी मेरे आस-पास मंडराने लगे और कुछ उसी मिट्टी के ढेर पर बैठ गये जिस ढेर पर मैं बैठी थी। तित्लियाँ भी मेरे आस-पास उड़ती रहती।
कभी मेरे सिर पर कभी मेरे हाथों पर। मैं रो रही थी और मेरे साथ वो भी रो रहे थे। मैं ये सब महसूस कर रही थी। एक कौवा जो बहुत ज्दाया विचलित था, छोटे-छोटे मिट्टी के ढेर को चोंच और पंजो से नीचे धकेलता जब वो नीचे गिरता फिर उड़कर दूसरे ढेर पर जा बैठता।
मैं रोते हुये ये सब देख रही थी। इतने मैं मेरे पापा वहाँ आ जाते हैं। मेरी प्यारी तित्तली मैने तुम्हें कहाँ-कहाँ नहीं ढूंढ़ा पर तुम यहा बैठी हो अपने दोस्तों के साथ।
ये सुनकर मुझे थोड़ी देर के लिए अच्छा लगा पर मुझे फिर से पुरानी बात याद आ गई। पापा जी मेरे साथ ही उस मिट्टी के ढेर पर बैठ गये और उन सब पक्षियों-जानवरों को देखने लगे जो मेरे आस-पास मंडरा रहे थे और बैठे थे मानों वो डेड से भी कुछ कहना चाहते हो जैसा कि वो सहायता माँग रहे हो।
मैं अब भी रो रही थी। मेरे पिता जी बोले- तुम कितनी भाग्य शाली हो कि तुम्हारे कितने अच्छे दोस्त हैं तुम्हारे साथ ये भी रो रहे हैं।
मैं रोते हुये आँखों को बंद करती हुयी हँसने लगी और इन सबको देखकर तो मुझे भी रोना आ गया। अब मैंने फैसला ले लिया कि अब मैं अपने खेत नहीं बेचुँगा और उन बिल्ड़र के पैसे लौटा दुँगा और इन खेतों में एक सुन्दर बंगीचा बनाऊँगा। पेड़-पौधे लगाऊँगा। इन पक्षी और जानवरों के लिये और तुम्हारे साथ मैं भी देखभाल करुँगा।
अब ये सुनकर मैं बहुत खुश थी और खुशी-खुशी मैं अपने घर चली गई। करने मेहनत करके पक्षी व जानवरों व मेरी प्यारी तित्तलीयों के लिए एक सुन्दर बगीचा तैयार कर दिया। वो सारे पक्षी व जानवर उसमें ही रहने लगे। रंग-बिरंगे फूल व फल वाले पेड़-पौधे जो मेरे व दादी और मम्मी-पिताजी ने मिलकर लगाये थे और मैं स्कूल से आने के तुरन्त बाद बगीचे में चली जाती थी और तितलियों के संग खेलती और वहीं पर रोज ताजे फल खाती।
