सुशील गंठा
सुशील गंठा
उनके मरने पे जितनी भी सिसकियाँ फ़ूटी थीं सब का रंग एक दूसरे से बहुत अलग था. करते क्या थे, यह बयाँ करना मुश्किल है, पर जो भी था, बड़ा ही भारी काम रहा होगा। अपने दिल का बोझ हल्का करने के लिए उन्हें ट्रेन के नीचे जो आना पड़ा था. लोगों ने हवा में उछले उनके सर पे निशाना भी लगाया था. किसी का तीसरी मंज़िल तक गया, किसी का दूसरी और किसी का कटहल के पेड़ तक. कटहल का पेड़ मेरे बगीचे में था. और वो रेल की पटरी, मेरे घर के सामने वाले घर के सामने थी. वैसे उसे मेरे घर के सामने भी कहा जा सकता है, क्योंकि आस-पास के माँ-बाप मेरे ही बरामदे से अपने बच्चों को ट्रेन दिखाते थे. उस दिन वो सारे बच्चे बहुत रोए, किसी ने उन्हें छुक-छुक गाडी नहीं दिखाई। उस दिन वो पटरी और ट्रेन बड़े ही बड़ों को दिखा रहे थे, और उनकी जिज्ञासा बच्चों से कहीं ज़्यादा थी. पटरी सड़क से ज़रा ऊपर को थी. उस ढ़लान या चढ़ाई पर, जो कि इस बात पर निर्भर करती है कि आप कहाँ खड़े हैं, दूध वाले की बीवी, जिसे कई लोग धीमी आवाज़ में उसकी भाभी भी बताते थे, अपनी चार गायों और आठ बच्चों को बाँध कर कण्डे बिछाती थी. पर इससे भी ज़्यादा अजीब बात यह थी कि मोहल्ले का कोई भी घर इस दूध वाले के यहाँ से दूध नहीं लेता था, पर उसके गायों को बची-खुची रोटियां सब ज़रूर खिलाते थे. और आज लोग उसी ढ़लान या चढ़ाई पर कण्डों से पैर बचाते, और अलग-अलग पड़े, सर और धड़ से बराबर दूरी बनाये हुए इकठ्ठा थे.
मैं तीस चालों वाला कॉण्ट्रा खेल रहा था. मेरे घर के सामने वाले हिमांशु ने सिखाया था मुझे, तीस चालें कैसे पाते हैं. पर उन्हें खोना मैंने खुद सीख लिया था. वैसे भी, किसी भी चीज़ को ठीक से समझ पाने में थोड़ा वक़्त लगता ही था मुझे। तभी तो जब माँ ने टीवी का वोल्यूम कम् करते हुए सुशील भईया के ट्रेन के नीचे आ जाने वाली बात बताई, तब भी मैं अचानक से चौंका नहीं। न ही माँ मुझे चौंकता देखने के लिए रुकी। वो बरामदे की तरफ गई, जहाँ बच्चे रो-रो कर चुप हो चुके थे. कुछ देर बाद, जब हर बार की तरह मैं बात समझ गया, मुझे एकाएक खुद से घिन आने लगी. हर घटती चाल के साथ मेरी आत्मग्लानि बढ़ रही थी. शायद इसलिए क्योंकि कमरे की खिड़की खुली थी, और उस खिड़की के सामने ही मेरा स्कूल का बैग रक्खा था जिसपे डब्ल्यू डब्ल्यू ऍफ़ लिखा था. डब्ल्यू डब्ल्यू ऍफ़ तो मैंने लिखवाया था, पर बैग सुशील भईया ने बनवाया था. वो भी जिस दिन मार्किट बंद था. उन्होंने रास्ते में एक पीसीओ से फ़ोन घुमा के दुकान खुलवा ली थी. जब वो फ़ोन पे थे, मैं मिडिल स्टैंड पर खड़े बजाज स्कूटर की स्टेपनी से सट के बैठा था. और झूठ-मूठ का स्कूटर चला रहा था, जिसके ब्रेक और हॉर्न, दोनों एक बराबर शोर करते थे. सुशील भईया, दुबले-पतले और बिना फ़िज़ूल की चर्बी वाले , भारी मुँह के, रुतबे वाले आदमी थे, यह मुझे पता था. पर उस रुतबे की धूप-छाँव का मुझे कोई ख़ास ज्ञान नहीं था. मुझे तो बस इतना पता था की फकरुद्दीन का मैदानी मांझा पाने के लिए और मेरी बगिया में गिरने वाली पतंग से लड़को को दूर रखने के लिए सुशील भईया थे. और उन्हें भी यह पता था. मेरी माँ उन से मांझा मांगने के लिए , मना करती थी, वो पैसे जो नहीं लेते थे. हर बार यही कहते थे "चाची, जब दुकान वाले ने मुझसे नहीं मांगे, तो मैं आपसे क्या मांगू?" और चरखी मेरे हाथ में थमाने से पहले, मांझा ढ़ील का है या खेंच का यह ज़रूर बता देते थे. हमारे शहर में, वजह नहीं पता क्यूँ, पर पतंगबाजी के लिए रक्षाबंधन का दिन मुकर्रर था. और उस दिन मुझे सुबह जल्दी से उठा कर छत पे ले जाने का जिम्मा भी उन्ही का था. दो गली छोड़ कर मेरे दोस्त के पापा रहते थे, रहता तो दोस्त भी था पर इस बात से उसका कोई लेना देना नहीं है. मेरे उस दोस्त के पापा कई बार घुमा फिरा के मुझे समझने की कोशिश कर चुके थे कि सुशील भईया के स्कूटर के पीछे वाली सीट छोड़ दूँ, पर जब एक दिन मैंने झल्ला के बोला की सुशील भइया को बोल दूंगा तो उन्होंने स्कूटर से हाथ हटा लिए. वो सिगरेट या शराब पीते थे ये मुझे नहीं पता, क्यूंकि उन्होंने मेरे सामने कभी नहीं पी, और अगर पी तो मेरे सामने नहीं आये. एक बार शर्मा पान वाले ने उन्हें सलाम बजाते हुए सिगरेट की डब्बी के आस-पास हाथ ले जाने की कोशिश करी थी, पर उन्होंने अपनी आँखों से पीछे वाली सीट की तरफ इशारा करते हुए, बगल वाले डब्बे से मुट्ठी भर मैंगो बाईट निकलवा कर, तीन गियर वाले स्कूटर का पहला गेयर मार दिया।
जब तक मैं कमरे से बाहर आया, सूरज की मम्मी इस पूरी घटना को जैसी करनी वैसी भरनी बता चुकी थीं. रावत साहब की नयी किराएदार के हिसाब से अपनी तबियत से तंग आके उन्होंने ऐसा किया था. मुझे दिक्कत ये थी की दोनों की ही बातों पे बाकि सारी औरतें हामी भर रहीं थी. और आदमी अलग झुण्ड में किन्ही और दो या उससे ज़्यादा बातों पर. सब बड़ी जल्दी में मालूम पड़ रहे थे. मेरी उम्र क़े बच्चों को आज नया खेल मिला हुआ था। हर कोई ये साबित करने में लगा था की इस हादसे को उसने सबसे ज़्यादा अच्छी तरह से देखा या सुना था। एक तो यहाँ तक दावा कर रहा था की ट्रेन के नीचे आने से पहले सुशील भईया ने उसकी तरफ हाथ भी हिलाया था. दांया या बांया, यह उसे भी याद नहीं। ऐसा उसने तब बताया जब स्वीटी ने बड़ी गंभीरता के साथ उससे यह सवाल पूछा। वैसे बाकी बच्चों को पता था की वो उसकी टांग खींच रही थी. हम इस खेल में जल्दी ही बोर हो गए, मगर बड़े लोग नहीं हुए थे. आज मोहल्ले में बहुत से लोग थे, ज़्यादातर मोहल्ले के बाहर से थे. कुछ को मैंने आज पहली बार देखा था, और कुछ को मैंने पहले भी देखा था, पर कब, ये याद नहीं। बरामदे में बच्चे सोकर उठ गए थे. यह मुझे ऐसे पता चला की उन्होंने रोना शुरू कर दिया था. मुझे लगता था सिर्फ मेरा भाई ही एक ऐसा है जो नींद से जाग कर रोता है. असल में बच्चों का रोना, रोना होता ही नहीं है. क्यूंकि बड़े होकर तो हम उस तरह से कभी नहीं रोते। बड़े होकर तो हम वैसे रोते हैं जैसे सुशील भईया की मम्मी रो रहीं थी. उनका मुंह बंद था और खुली आँखों में सन्नाटा भरा हुआ था. सब उन्हें रुलाने में लगे थे. थोड़ी देर बाद तो मुझे लगने लगा की उनके कान ख़राब हो गए हैं, पर जैसे ही किसी ने बोला की पुलिस बॉडी लेने आएगी और वो इस पर शोर मचाने लगी, तब मुझे लगा कि शायद मेरा दिमाग ख़राब हो गया है. कुछ हद तक तब शांत हुईं जब दिलासा मिला कि पुलिस सुबह से पहले नहीं आएगी। सुनने से लग रहा था कि आंटी नींद में होंगी तब बॉडी ले जाएंगे, जैसे बच्चो के नाखून नींद में काट दिए जाते हैं. पर सुशील भईया उन्हें नाखून से कहीं ज़्यादा प्यारे थे, वो सोयी ही नहीं।
अब तक लोग कई तरह की बातें कर चुके थे, और कई तरह की कर रहे थे. उनमें से एक मेरे कानों में भी पड़ गयी."भई, मोहल्ले के लिए तो बोहोत अच्छा था. गली क्या, पूरे एरिया में किसी की मजाल नहीं थी कि मोहल्ले की लड़की के पास से गुज़र भी जाए.
"तभी एक आवाज़ और पड़ी कान में. हालांकि यह आवाज़ में पहचान गया था, पर क्यूंकि मैंने मुड़ के देखा नहीं था इसलिए नाम नहीं लूंगा।
"खम्बे पे तार ढ़ीले पड़ जाते, तो एक बार में आते थे बिजली वाले, वो भी सीढ़ी सर पे उठाए."
"यह सब छोड़िये, बड़े तन्नू की साइकिल याद है, वही जो चोर पट्टेदार की छत के रास्ते से चुरा के ले गया था? शाम से पहले बड़ा तन्नू दोबारा अपनी साइकिल दौड़ा रहा था, शर्मा जी की बगिया में."
सबने अपने गले की खाल को ऊपर की तरफ खींचते हुए एक ही सुर में हामी भरी और और एक ही कोण में सर को हिलाया।
फिर इस तरह की कई आवाज़े कान में पड़ने लगीं, शायद उन्हें मेरे कानों का रास्ता पता लग गया था. इसलिए मैंने जगह बदल ली और एक बोहोत ही अजीब सी चीज़ देखी - लोगों को हंसी की तलब सी लग रही थी. बारी-बारी से दो या चार के झुण्ड में जाते और थोड़ी दूर पे एक कोना पकड़ के, पेट भर हँसने के बाद लौट आते. कभी चाय के कप के साथ, कभी उसके बिना। पर आते ज़रूर थे, ताकि दूसरे जा सकें।
लाइट जाने का वक़्त तय था, इसलिए जा चुकी थी. आने का नहीं था. आज सारे घरों की इमरजेंसी लाइटें और गैस के हण्डे एक ही तरफ मुड़े हुए थे. लोग और उनका ध्यान भी. तभी सत्यम, शिवम और सुंदरम के पापा ने बोला- “पहले तो बॉडी सिली जाएगी तब कुछ होगा”। मैंने पुलिया के पास वाले थ्री एक्स टेलर को कई बार सिलाई करते हुए देखा था, पर बॉडी की सिलाई? मैं इस दृश्य को अपनी सोच में बैठा न पाया। न ही मैंने किसी से पूछा, क्यूंकि अगर पूछता तो सबसे पहले तो इस तरह की बातें सुनने का जुर्माना भरना पड़ता, ऊपर से जवाब नहीं मिलता सो अलग. खैर, वैसे भी माँ ने मुझे दो किलो चीनी लाने के लिए भेज दिया. पटरी के साथ-साथ चलने वाली सड़क पे चल ही रहा था कि एक ट्रेन भी पीछे से आ गयी. अब उसके ड्राइवर को क्या पता इस पटरी पे क्या हुआ है? और जैसी की मेरे आदत थी, उस ट्रेन से रेस लगाने लगा. जीता कभी नहीं, पर हार कभी नहीं मानी। मगर इस बार मेरी फिनिश लाइन यानी पुलिया की सूरत बड़ी अजीब सी थी. विशम्भर की दूकान के सामने आते-आते मैंने हाँफना बंद किया और महसूस करना शुरू। ऐसा लग रहा था की हर दूकान वाला मुझे देखकर एक ही सवाल पूछ रहा है - क्यों बे? कहाँ है तेरी स्कूटर के पीछे वाली सीट? मानो शर्मा पान वाला , मैंगो बाईट के डब्बे के ढक्कन को अपनी हथेली से दबाये पूछ रहा था - आज कितनी? शम्भू पतंग वाले की दुकान की तरफ तो मैंने देखा ही नहीं, वरना जितनी देर तक उसकी दुकान पर खड़े हो कर हर मांझे की धार को अपनी ऊँगली पर परखा था, ना जाने उसके लिए कितनी चर्खियाँ भरवाता। मैंने उतना ही बोला जितना ज़रूरी था और हिना जनरल स्टोर से दो किलो चीनी खरीद के पलट लिया। मोहल्ले की गली के मोड़ पे मैंने सुशील भईया के चौथे भाई को जो मुश्किल से साल में दो बार आते हैं, स्कूटर ले जाते हुए देखा।
अगली सुबह
मैँ आँगन में रक्खी खाट पर धूप के बगल में जा कर बैठ गया, और किसी का जूठा अखबार पढ़ने लगा. आपका शहर वाला पन्ना खुला हुआ था और साथ ही साथ एक हैडलाइन का मुँह भी - "हिस्ट्री शीटर सुशील गंठा ने करी आत्महत्या।"