सुकून और मैं
सुकून और मैं
कभी-कभी मुझे लगता है कि सुकून इंसान को उन आखिरी क्षणों में भी मिलता होगा क्या ?, जब वह अपने अतीत के पन्नों को पलटता होगा, उन बातों को, उन यादों को सोचता होगा, उन गलतियों को, उन अच्छे फैसलों को। क्या सुकून उसे आखिरी में क्षणों में भी मिलता होगा क्या? खैर, बाकीयों का तो पता नहीं है, लेकिन कभी-कभी या फिर ये कहे कि अक्सर मुझे ऐसा लगता है कि सुकून को मैं या मुझे सुकून इतना नहीं भाता। और ये आज से नहीं है, पहले भी कुछ ऐसा ही था, बस बीच में मैंने सामंजस्य बिठा लिया था, या सुकून को मैं कुछ साल अच्छा लगने लगा था। लेकिन फिर से मैं और सुकून दोनों नदी के दो छोर जैसे हैं, जैसे अत्यधिक सुखा पड़ जाने पर कैसे कभी-कभी पानी सूख जाने पर नदी के दो किनारे कुछ समय के लिए मिल तो जाते हैं, पर पानी की एक छोटी धार काफी है उसको दो हिस्सों में बाँटने के लिए। ठीक वैसा ही है, कुछ पल, कुछ घंटों के सुकून के बाद फिर से मैं खुद को वही पाता हूं, फिर वही कशमकश, वही निराशा जैसे जीने की वजह ही नहीं बच पाई होगी। अक्सर मैं ये सोचता हूं कि जब लोगों के पास जीने की वजह खत्म हो जाती होगी तो वो क्या करते होंगे? क्या वो बस दिन पर दिन या घंटों दर घटे बस जी लेते हैं या फिर एक बुरा वक्त है कहकर उसे बस जी जाते हैं? कुछ समय बाद या कुछ पल बाद शायद कुछ अच्छा वक्त आएगा, शायद कुछ के जिंदगी में आ भी जाता होगा और कुछ की ज़िंदगी बस उम्मीदों के दरबदर निकल जाती होगी बस, उनका एक दिन कब हफ्तों, हफ्ते कब महीनों और महीने अबक साल में निकल जाता होगा, पता नहीं चलता होगा, ऐसी ही जिंदगी मायूसी में निकल देते होंगे पूरी, या फिर कुछ लोग नई वजह ढूंढ़ लेते होंगे, जिनके सहारे वो जी सकें। अक्सर मैं सोचता हूं कि समाज इतना ज्यादा क्यों लोगों को बच्चों के लिए प्रेरित करता है? क्योंकि समाज को पता है कि एक समय बाद शायद ज्यादातर इंसान खुद के भरोसे जीने की इच्छा ख़त्म कर लेते हैं, उन्हें नहीं झेलना ये सब। और अगर माता-पिता के जीवित तक तो वो खुद को चलो ढंग से रख भी लेकिन, उनके देहांत के बाद क्या उनके पास वजह रहेगी तो एक बच्चा जिसे वो खुद से ज्यादा चाहेगा। वो अब खुद के लिए नहीं जीएगा, वो अब उसके लिए जीएगा । एक वजह, उसे अपना दुख, अपनी मायूसी, अपनी ख़ुशी, अपना लाचारपन को परे रखते हुए इस चीज़ को ऐसे देखने की हा, तुम अपने बारे में नहीं सोच सकते। और फिर तुम कभी भी उस चीज़ के बारे में नहीं सोच सकते, खुद से छुटकारा पाने के बारे में, इस ज़िंदगी से छुटकारा पाने के बारे में। देखते हैं, खैर, अक्सर कविताओं और कहानियों में नदियों को हमेशा हरा-भरा रखने की कायदतान होती है। मैं तो बस मेरे और मेरे सुकून के बीच की नदी को सूखा देना चाहता हूँ, ताकि विरह की इस बेला को खत्म किया जा सके। क्योंकि अगर ये विरह की बेला लंबी चल गई तो न जाने ये अंदर का तूफ़ान मुझसे क्या करवाएगा, किस और ले जाएगा और कहां-कहां तबाही मचाएगा।