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सरहद

सरहद

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"आज यहाँ पे आये हुए १ साल हो गए। दिन यहाँ बहुत लम्बा गुज़रता है। आने से पहले तुमने मुझसे एक वादा माँगा था। और मेरी ख़ामोशी को मेरा जवाब मानते हुए कहा था, की तुम इंतज़ार करोगी। काश उस वक़्त में तुम्हे मना कर पाता। बड़े ताक़त से तुम्हारे सवाल का जवाब अपने अंदर छुपाया था। तुम्हारे इस ज़िद से लड़ने की ताक़त कहाँ से जुटा ता में ? पर एक बात ये भी थी की कहीं न कहीं मेरे अंदर भी एक उम्मीद थी, के शायद में लौट के आऊँ।

ये जगह बहुत ही खूबसूरत है। यहाँ हम २० लोग कैंप में, एक परिवार की तरह रहते हैं। बहुत ठंडी जगह है ये। कभी कभी -६० तक टेम्परेचर पहुँच जाता है। बयान नहीं कर सकता हूँ, ऐसी जगह है ये। यहाँ तुम अपनी ख़ामोशी सुन सकते हो। यहाँ बस हवाएं ही बातें करती है। मानो उन्ही को हक़ है कुछ भी करने का। न उन्हें सरहद का मलाल है, न ही दुश्मनों की परवाह। दूर दूर तक बस वादियां, सफ़ेद बर्फ से ढकी हुई। जहाँ नज़र फिराओ, बस सफ़ेद चादरें, और बड़े बड़े पहाड़।

मानो हमें देख के कह रहे हो। आओ दोस्त कभी तुम भी आओ, बैठे कभी और बातें करें। चाय और पकोड़े के साथ अपने दिन भर की थकावट लिए। तुम चल चल के थक गए हो, में रुका हुआ यहाँ। मज़बूर दोनों ही हैं, आओ करें अपनी मज़बूरी बयान। यहां मीलों है खामोशी, और कहते हैं दुश्मन उस पार है। उसे भी बुला लो कभी, बैठें कहीं और बातें करें। उसके भी अपने दर्द होंगे, अंदर कहीं वो छुपाया होगा। इस विराने की खामोशी में वो भी अक्सर भूल जाता होगा। हंस पड़ेंगे सुन के हम एक दूसरे के चुटकुले, कुछ चुटकुले अभी नए हैं, आओ बैठे कहीं और बातें करें। यहाँ रूह तक जम जाती है, आंसुओं की क्या औकात है। नज़र भी नहीं पहुँचती दूर, जहाँ कहते हैं दुश्मन तैनात हैं। सुनसान सी इस वादी में आओ कुछ आवाज़ों को आज़ाद करें बात करने से ही बात होती है, आओ बैठे कभी और बातें करें।

तुमने मुझसे कहा था की चिठी भेजता रहूँ। शायद यही एक चीज़ तुम्हारी उम्मीद को जगाये रखती की हम फिर मिलेंगे। सच कहूँ तो मैंने न जाने कितनी चिट्ठियां लिखी है, पर भेजने की हिम्मत नहीं हुई। पर आज पता नहीं क्यों लिखने का मन किया। माँ के गुज़र जाने के बाद कुछ था भी तो नहीं वहां जाने को। और तुम्हे वहां देख के शायद लौट के नहीं आ पाता। अब मुझे नहीं पता के में कब वापस आऊंगा।शायद न भी आऊँ। अभी तो तुम्हारी शादी भी हो गयी होगी।अब यही मेरा प्रायश्चित है, और यही तुम्हारा प्रतिशोध।

और कुछ लिखने का हक़ में खो चुका हूँ। कभी हो सके तो मुझे माफ़ कर देना। समझ लेना एक कमजोर इंसान से प्यार कर बैठी थी तुम।"

( १० साल बाद एक फौजी का शव मिला। ये चिट्ठी उसकी पॉकेट में थी, सियाचेन में लापता होने के एक रात पहले लिखी थी ।)

....

( १० साल पहले, उसी शाम किसी ने अपनी डायरी में कुछ लिखा था। )

"आज का दिन बहुत अच्छा था। बच्चो ने तो जिद ही पकड़ ली थी, की कहानी सुने बगैर नहीं जाएंगे।अब में भी क्या करती ? सब कहते हैं की मैंने बच्चों को बिगाड़ रखा है। इस लिए मेरे सिवा किसी की बात नहीं मानते। बहुत प्यारे हैं ये। रोज़ अगर न देखूं तो दिन ही नहीं शुरू होता। तुम्हे याद है, हमने भी कभी ये सपना देखा था ? पर में जानती थी इतना आसान नहीं था कुछ।मेरे और तुम्हारे बीच जो अमीरी और गरीबी की सरहद थी, वह तुम्हे हमेशा दिखाई देती थी। और जब पिताजी ने मुझे भूल जाने को कहा तो तुमने उनकी बात रखते हुए ये फैसला लिया।तुम्हे पता था की मुझ पे उनका हक़ ज्यादा बनता है। कमजोर नहीं थे तुम, पर मुझे टूटता हुआ नहीं देखना चाहते थे। शायद इस लिए मेरे सवाल का जवाब नहीं दिया था तुमने। मैंने एक बार पूछा था तुमसे, की अगर तुम फ़ौज में भर्ती नहीं होते, तो क्या करते। बड़े ही मासूमियत से कहा था तुमने, दूर सिक्किम की पहाड़ियों में, शरहद के पास एक गाँव है, जहाँ बच्चे स्कूल नहीं जा पाते हैं। तुम वहां पढ़ाना चाहते थे। ज़िन्दगी तो नहीं बाँट सकी, तुम्हारा सपना बाँट लिया मैंने। मैंने शादी नहीं की। घर से लड़ पड़ी। आज मैं यहाँ, हरे सफ़ेद पहाड़ों के बीच इस गाँव में पढ़ाती हूँ। तुम्हारे साथ नहीं, पर तुम्हारे सपने को जी रही हूँ। कोई शिकायत नहीं है अभी। न ही उम्मीद कम हुई है। मुझे यकीन है, तुम आओगे। और में इंतज़ार कर रही हूँ। मैं यहीं मिलूंगी तुमको। तुम्हारे सपने के साथ...।"


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