सोशल डिस्टेन्सिग
सोशल डिस्टेन्सिग
डॉ. रागनी आज सुबह से ही सोच में डूबी है। मेरी कोरोना वार्ड में ड्यूटी लग गई थी। मैं ड्यूटी पर जाने को तैयार हो रही थी कि कामवाली बाई आकर उसी समय दुखित मन से कहने लगी-‘ मैडम, मैं आज के बाद काम पर नहीं आ पाउंगी।’
मैंने पूछा‘ क्यों?’
‘मेरे मोहल्ले के लोग मेरे बच्चों को तंग करते हैं-तुम्हारी माँ डाक्टर के यहाँ काम करने जाती है। तुम लोग हमसे दूर रहा करो, नहीं तो हमें कोरोना हो जायेगा। मैडम, मोहल्ले वालों ने हमसे दूर रहने का प्रचार कर दिया है। इससे बड़ी बेइज्ज्ती हो रही है। ऐसे में मैं आपके यहाँ काम करने कैसे आऊँ? मैडम, आप क्षमा करना। थोड़ी राहत मिलेगी फिर काम पर आ जाउंगी।’ इस वक्त कामवाली बाई भी साथ छोड़ गई है। अकेली बूढ़ी सास मेरी नन्हीं बेटी को कैसे सँभालेंगी! ड्यूटी भी ऐसी कि चाहे जो स्थिति हो वहाँ से निकल कर बाहर आ जा नहीं सकते।
घर के कामकाज की चिन्ता में अखबार में छपे ‘सोशल डिस्टेन्सिग’ वाला शब्द सामने दिखते ही उसे पापाजी की बातें याद आने लगीं- जब आर्याें में कार्य के आधार पर सर्व सहमति से समाज का बँटवारा किया गया होगा। इससे सभी अपने अपने कार्य में लग गये और कार्य में निपुणता लाने का प्रयास करने लगे। पिता अपने पुत्र को अपना कौशल सिखाने लगे। इससे पिता की विरासत के पुत्र हक़दार होने लगे। इस स्थिति में लोगों को रोजगार खोजने की आवश्यकता नहीं रही। देश सोने की चिड़िया कहा जाने लगा।
बाद में समय के साथ इस व्यवस्था में दोष दिखाई देने लगे, शनैः-शनःकर्मणा संस्कृति जन्मना में बदल गई। इस स्थिति में लोग अपने समान रोजगार के कारण एक दूसरे केे अधिक नजदीक आते चले गये। अन्य कार्य करने वालों से दूरी बढ़ने लगी। इस तरह पहली वार समाज में सामाजिक भेदभाव पनपने लगा। इसमें ऊँच-नीच की भावना ने प्रवेश किया। जो आगे चलकर देश का अभिशाप बनकर हमारे सामने आ गया और इसी कारण देश गुलामी की जंजीरों में जकड़ गया।
मेरा अपना सोचना है, सम्भव है किसी एक वर्ग में कोई महामारी जैसी भावना पनप गई हो तो दूसरा काम वालों ने उनसे बच निकलने के लिये सामाजिक दूरी का मार्ग अपना लिया हो। यही से छुआ छूत ने समाज में प्रवेश पा लिया। सम्भव है यही संकेत देने के लिए यह महामारी प्रकट हुई है।
आज उसी स्थिति की पुनरावृति हो रही हैं। वर्तमान में लोगों को कोरोना जैसी महामारी ने जकड़ लिया है, इससे बचने के लिये आपस में दूरी बनाकर चलना ही विकल्प रह गया है। इसमें तो पिता- पुत्र, पति- पत्नी, भाई बहन एक दूसरे से दूर रह कर एक दूसरे के जीवन की रक्षा करने में सहयोग कर रहे हैं लेकिन इससे डर भी रहे हैं कहीं ये दूरी कोई अभिशाप बनकर हमारे सामने न आ जाये।
अस्पताल जाने से पहले मैं प्रतिदिन सासू माँ से मिल कर ही जाती हूँ। आज जाते समय मेरे मुँह से ये शब्द निकले-‘माँजी मेरी समझ में ही नहीं आ रहा है कि क्या करू? कामवाली वाई भी काम करने की मना कर गई है। मैंने दूधवाले और सब्जी वालें से तो कह दिया है वेे रोज समय पर दूध और सब्जी दे जाया करेंगे। अब आप अकेली और घर का इतना सारा काम, इधर इस नन्हीं परिधि बिटिया को कैसे सँभाल पायेगीं?’
वे बोलीं-‘ बेटी, तुम परिधि की चिन्ता मत करो। वह तो अपनी बूढ़ी दादी से पूरी तरह हिल-मिल गई है। तुम तो अपना बचाव कर मरीजों की सेवा करना, जान है तो जहान है।
‘जी माँजी, वहाँ तो संक्रमण से बचाव की किट पहनकर मरीजों के पास जाना पड़़ता है। आप अपना ध्यान रखें, मेरी चिन्ता न करें।’
बेटी परिधि के सोच में पता ही नहीं चला कब अस्पताल आ गया।
वहाँ पहुँचकर डॉ. रागनी ने हाथों में दस्ताने पहने, कोरोना महामारी से बचने के लिए पी पी ई किट पहनी और वार्ड में चक्कर लगाने निकल पड़ी। एक पलंग से दूसरे पलंग पर पड़ें मरीजों का अवलोकन करते हुए आगे बढ़ जाती। उसकी सहायक डाक्टर सुधा वर्मा उसके निर्देश पर पर्चे पर दवायें नोट करती उसके साथ साथ चल रही थी।
डॉ.रागनी मरीजों से हँस -बोल कर उनके दुःख-दर्द की पूछती जा रही थी। उसका चेहरा किट से ढका होने से उसकी हँसी, शब्दों के माध्यम से व्यक्त हो रही थी। वह कोरोना के मरीज को ढाढस बंधाने के लिये कहती- तुम तो जल्दी ही ठीक होकर घर जाने वाले हो। यों मरीजों का आत्म विश्वास बढ़ाते हुए सुबह से शाम तक अपने काम में लगी रही।
शाम होते ही उसे याद आने लगती चार माह की उसकी बिटिया परिधि की। हो सकता है इस समय वह रो रोकर घर भर रही हो। पति डॉ. योगेश उसे कैसे सँभाल पाते होंगे। वे भी क्या करें? मैं एक हफ्ते से घर ही नहीं जा पाई। यह सोचते ही उसका सीना भारी हो गया। उसके आँचल से दूध रिसने लगा। ससुरी यह बीमारी ही ऐसी है कि सभी से दूरी बनाये रखना पड़ रही है। इसी में सभी की भलाई है। इधर मेरी इस वार्ड से ड्यूटी बदलेगी। उधर पति डा योगेश की यहाँ ड्यूटी लग जायेगी। मुझे यहाँ से ड्यूटी बदलते ही चौदह दिन के लिये क्वारंटाइन में रहना पड़ेगा उसके बाद ही घर जाकर बेटी से मिल पाउंगी। इन दिनों बेटी का क्या हो रहा होगा? हमारे पड़ोसी भी बहुत अच्छे हैं लेकिन लॉकडाउन के चलते वे भी अपने घर से नहीं निकल पा रहे हैं। सासू माँ का ही सहारा है। वे भी क्या करें? अस्सी वर्ष की हो रहीं है। कैसे सँभाल रही होंगी उस नन्ही परी को!
उस दिन जब मुझे यहाँ आना था, उसे छोड़ा ही नहीं जा रहा था। वह भी कैसे मुझे टक टकी लगाये देखे जा रही थी जैसे वह जानती हो अब मैं बहुत दिनों बाद आकर उससे मिल पाउंगी। एक क्षण तो मुझे लगा था, मुझे यह नौकरी छोड़ देना चाहिए, लेकिन उसी समय मरीजों की कराहने की आवाजें कर्तव्य पालन का सन्देश लेकर सामने आ गईं। प्रभू ने मुझ से यह काम लेना चाहा है तभी तो मैं बिटिया की तरफ बिना मुड़े कर्तव्य पालन की धुन में घर से बाहर निकल आई थी।
इसी समय नर्स दौड़ी दौड़ी आई। मैडम बीस नम्बर पलंग वाले मरीज की तबियत बिगड़ती जा रही है। जल्दी चलें।
यह सुनकर डॉ. रागनी का सोच एक डाल पर बैठे पंक्षी की तरह फुर्र सा उड़ गया। स्टेथोस्कोप हाथ में लेकर जल्दी से उस मरीज के पलंग पर पहुँच गई।
देखा, उस मरीज की साँस फूल रही है। लग रहा है किसी भी क्षण उसकी मृत्यु हो सकती है। डाक्टर का कर्तव्य है अन्तिम सांस तक मरीज को बचाने का प्रयास करना। वह उससे दूरी की परवाह किये बिना धीरे- धीरे उसके सीने को सहलाने लगी। उसे तेज बुखार था। उसने गुलूकोज की चल रही बोतल की नली में इन्जेक्शन लगाया। वह वहाँ से हटी नहीं। कुछ ही देर में उसे थोड़ी सी राहत सी मिली महसूस हुई किन्तु उसकी झटके से अचानक सांस रुक गई। यह देख डॉॅ रागनी ने जोर जोर से उसका सीना दबाना शुरू किया, पाँच-सात मिनट तक दबाती रही। जब कोई लाभ नहीं दिखा तो उसने सीना दबाना रोक दिया और उसका पुनः परीक्षण करने लगी। कुछ देर परीक्षण में लगे रहने के बाद नर्सों को कुछ हिदायत देकर वहाँ से हट गई।
वह सोचने लगी-स्वतंत्रता से पूर्व कुछ महामारियों के नाम सुने थे। जिन बीमारियों से महामारी फैलती थी। आज वे बीमारियाँ लाइलाज नहीं रही है। चेचक, हैजा, प्लेग, पीलिया और टीबी ऐसी ही बीमारियाँ थी। आज इनका इलाज मिल गया है फिर भी लोग उनमें मर रहे हैं। आज जिस बीमारी से हम त्रस्त है, उसमें मृत्यु दर अन्य बीमारियों की तुलना में बहुत कम है। इसलिये चिन्ता की बात नहीं है। डरें नहीं कुछ ही दिनों में इसका भी इलाज निकल आयेगा। हमारे वैज्ञानिक इसका इलाज खोज रहे हैं।
जब जब कोई नया विषाणु पैदा होता है मानव जीवन त्राहमाम कर उठता है। सभी विषाणु शुरू शुरू में मानव को रुलाते है, लाइलाज होते हैं किन्तु धीरे धीरे वे पकड़ में आ जाते हैं। एक कहावत है-विश्व में जितनी बीमारियाँ हैं उनकी दवा भी मौजूद है किन्तु इस बीमारी की दवा अभी परख में नहीं आ पाई है।
आज जिस महामारी से विश्व जूझ रहा है, उसके मरीज भी ठीक होकर घर जाने लगे हैं। इसके संक्रमण सेे बचने के लिये उस क्षेत्र में लॉकडाउन करके सेफ डिस्टेडिंग ही इसका एक मात्र समाधान है।
मानव सभ्यता के लिये सोशल डिस्टेन्सिग बहुत ही धातक है। हमारे कुछ परम्परावादी लोग इसी कारण से इसे ठीक नहीं मान रहे हैं। वे मेल मिलाप की दूरी को संस्कृति के खिलाफ़ मानकर हमारे लॉकडाउन का विरोध कर रहे हैं।
आज उसका मन बहुत खिन्न है। वह सोच रही है कि क्या उपाय शेष रह गया कि वह उस मरीज के प्राण बचा पाती! इस घटना से उसके वार्ड के सभी कर्मचारी दुःखी दिख रहे हैं। वह यही सब सोच रही थी कि वार्ड की प्रभारी नर्स सिस्टर रज्जन ने मोबाइल से एक वाटसअप निकालकर मेरे सामने रख दिया।
जिसमें एक बस्ती में कुछ लोग स्वास्थ्य कर्मचारियों एवं उनके सहयोगियों को मारने दौड़ रहे हैं। वे वहाँ से भागकर अपने प्राण बचा रहे हैं। वाटसअप में अस्पताल के कुछ कर्मचारी आगे आगे भाग रहे है। कुछ लोग उनको पीछे से पत्थर मार कर उन्हें भगा रहे हैं।
डॉ. रागनी यह देखकर सोच रही है। हम हैं कि अपने प्राण संकट में डालकर मरीज को बचाने की कोशिश करते हैं। ये लोग कैसे ना समझ हैं कि हमें ही मारने दौड़ रहे हैं! समझ नहीं आता यह कौन सी संस्कृति जन्म ले रही है।
एक कहावत याद आ रही है। अपने हित अनहित की बात तो पशु- पक्षी भी जानते हैं। क्या ये लोग उनसें भी गये गुजरे है? अभी तक इस बीमारी की कोई दवा निश्चित नहीं हो पाई है। हम ही साहस करके नये नये प्रयेाग कर रहे है। आप कहेंगे नये नये प्रयोग मरीज के जीवन से खिलवाड़ है। ऐसा नहीं है ,डाक्टर को जब उस दवा पर पर पूरा विश्वास होता है तभी वह उसके लिये प्रिस्क्राइब करता है। ऐसा भरोसा ही मरीज के जीवन की प्राण रक्षा करता है।
महामारी के समय मानव समाज का दायित्व एक जुट होकर समस्या से जूझने का है। मैं यही सोच रही थी कि डाक्टर नेहा जाटव ने वार्ड से लौटकर हर वार की तरह आज भी अपने मन की यह बात कही-‘सोशल डिस्टेंसिंग जैसे शब्द हमारे पुरातन इतिहास की स्मृति कराने वाला शब्द है। इस शब्द को चलन से हटाने के लिए कुछ लोगों ने सुप्रीमकोर्ट में याचिका दायर की है। वे कहते है इस शब्द से सामाजिक कलंक जुड़ा हुआ है।
मैंने पूछा-‘तुम्हारे अनुसार इस शब्द के स्थान पर कौन सा शब्द उपयुक्त है।
उसने उत्तर दिया-‘ किसी महामारी से बचने के लिए इस शब्द के स्थान पर फिजीकल डिस्टेसिंग, इंडिविजुअल डिस्टेसिंग, सेफ डिस्टेसिंग या डिसीज डिस्टेसिंग जैसे शब्द का उपयोग करना चाहिए।’
मैंने कहा-‘ सम्भव है, प्राचीन काल में ऐसी ही किसी महामारी ने सोशल डिस्टेसिंग जैसे प्रयोग को जन्म दिया हो।’
वह बोली-‘ इस का अर्थ है,ऐसी ही किसी महामारी ने इस छुआ छूत की भावना को जन्म दिया होगा। ’
डॉ. रागनी ने आत्म विश्वास उडेला-‘तुम्हें पता है मेरे पिताजी समाज शास्त्र के प्राध्यपक रहे हैं। इसीलिए बचपन से हीे ऐसी बातें सोचने की अभ्यस्त रही हूँ।’
डाक्टर नेहा जाटव ने उसे समझाया-‘तब तो तुम ये रिस्की डाक्टरी छोड़कर समाज शस्त्र में शोध का नया काम करने लगो। आप लोग हमारी पीड़ा को नहीं समझेगीं। उस जमाने में हमारे लोगों को दबाव में लेकर समाज सेवा के काम लिये जाते रहे हैं। अरे! जो यथार्थ का इतिहास है उसे ऐसीं ही बातों से बदला जा रहा है। इतिहास के दोषों से बच निकलने के लिये नये नये तथ्य ढूंढें जा रहे हैं। आपने तो यह एक नया तथ्य ही हम सबके सामने रख दिया।’
मैंने कहा-‘मैं अपनी बात कहने में सम्भव शब्द का प्रयोग कर रही हूँ। कहें क्या उस जमाने में ऐसी कोई महामारी नहीं आई होगी?’
उसे कहना पड़ा-‘ क्या पता? इस सम्बन्ध में तो आप लोग ही अधिक कह सकते है।’
उसकी यह बात सुनकर डॉ. रागनी को लगा- यह तो प्रश्न का उत्तर मेरे पर ही टाल रही है। यह सोचकर वह वहाँ से हटकर मन बहलाने के लिये अपने ड्यूटी रूम में पहुँच गई।
उसे देखते ही वहाँ बैठी प्रभारी नर्स रज्जन बोली-‘ मैडम ,आज अनायास मरीजों की संख्या में इतना इज़ाफा क्यों हो रहा है?’
मैंने उत्तर दिया-‘अभी तक जितने मरीज बढ़ रहे थे उतने प्रतिदिन ठीक होकर भी जा रहे थे। इसलिये स्थिति संतुलन में आ गई थी। आज इतने मरीज क्यों बढ़ गये हैं यह देखकर मैं चिन्तित हूँ।’
वे बोलीं-‘इसका कारण मेरी समझ में आ रहा है कि सरकार ने लॉक डाउन को अनलॉक में बदल दिया है। लोग जल्द-बाजी में अपना पेंन्डिग काम निपटाना चाहते हैं इसलिये सोशल डिस्टेडिंग का पालन नहीं हो पा रहा है।’
मैंने उसे परामर्श दिया-‘अब तो लोग इस बीमारी से डरें नहीं बल्कि हमारी तरह सेफ रहते हुए मरीजों की सेवा में लगें। आगे चलकर टीवी मरीजों की तरह, इनके लिये भी घर में ही एक अलग कक्ष को सेनेटाइजर करके मरीज को रखने की हमें ही व्यवस्था करना पड़ेगी। सारे विश्व को अन्य महामारियों की तरह इस महामारी के साथ भी जीना सीखना पड़ेगा। ’
उन्होंने मेरी बात की पुष्टि की-‘ कल मेरे मेरे पति सेब बनवाने गये थे, तो साथ में मास्क लगाकर गये थे साथ में उसके सेबिंग के उपकरणों को अपने सामने सेनेटाइज कराने अपने साथ सेनेटाइजर ले गये थे। मैंने देखा लौटकर उन्होंने गरम पानी में डिटोल डालकर स्नान किया।
यह सुनकर मैंने निश्चय कर लिया कि अपनी कामवाली बाई को समझाना पड़ेगा कि वह महामारी के साथ जीना सीख ले।
अब मैंने नर्स रज्जन को एक नई समस्या से अबगत कराया-‘इधर लाखों मज़दूर दूसरे प्रान्तों से अपने अपने प्रान्तों में आ रहे हैं। वे उस प्रान्त से संक्रमण साथ लेकर आ रहे है। इन मजदूरों को लॉक डाउन प्रारम्भ करने से पहले ही वापस लाना चाहिए था।
यह कहते हुए डॉ. रागनी ने दिन भर के समाचार जानने के लिए, ड्यूटी रूम में लगे टीवी को ऑन कर दिया-कश्मीर में हुए आतंकी हमले में शहीद सुरेन्द्र की पत्नी, पति के संस्कार में बिना विलाप किये सम्मिलित थी। वह शहीद पति के सम्मान में खुद ताली बजाकर एवं अपने दोनों छोटे मासूम बच्चों से ताली बजवाकर अन्तिम विदाई दे रही थी।
कितनी बहादुर औरत है ये, आश्चर्य है उसके साहस पर। देश भक्ति का ऐसा जुनून देखकर मेरी आँखें भर आईं। शब्द निकले-‘धन्य है ऐसीं वीर बालायें, इन्हीं पर भारत माता की आन टिकी है।’
मेरी बात सुनकर रज्जन सिस्टर बोली-‘महामारी के समय अपनी जान जोखिम में डालकर हम जो देश की सेवा कर रहे हैं, वह भी तो ऐसी ही देश भक्ति है।’
यह सुनकर डॉ. रागनी कोरोना वार्ड में जाने के लिये उठ खड़ी हुई।