सोसाइटी हू प्रोडूसड किन्नर

सोसाइटी हू प्रोडूसड किन्नर

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एक सभ्य समाज़ को आप किन रूपों में परिभाषित करेंगे??

पारदर्शिता कि शौल ओढ़ें ये समाज़ असल में ख़ुद के बनाये हुए रूढ़िवादी विचारों, नियमों, और खोखले बयानों पर विचरती है।

:चलो एक छोटा सा क़िस्सा सुनाता हूँ..

बिहार के सहरसा जिले में एक गाँव है, बेलवाड़ा।

छह लोगों कि एक फैमिली रहती है..आर्थिक तंगी, बद्तर हालात, भुखमरी और सोलह -सत्रह साल की दो जवान बहनें, कपड़ों कि तंगी इतनी है साहब की नंगी स्त्रीयों का ओलंपियाड हो तो पूरा बेलवाड़ा उसे गोल्ड बनवाकर दे दे..बाप घर-बार छोड़ कर कब का परायी औरत के साथ भाग गया।

माँ ने गाँव के मुखिया, परिषद, पंचों और जमींदारों को ख़ुद कि ब्लाउज बेच कर दोनो जवान बेटियों के पेटिकोट सिलवाने के बजाय अपने चारों बेटों के लिये उसका लंगोट ख़रीदना ज़रूरी समझा.. चिथड़े कपड़ों को उन दोनो बहनों ने ना जाने कितने सालों तक ख़ुद के बदन को आधा-अधूरा ढ़क कर रखा।

पर क़यामत कि आहट तो अभी दस्तक़ देनी बाक़ी थी, कालचक्र के बीते दिनों के साथ, गाँव वालों का उसकी माँ से मन भर गया।


अब वो बुढ़िया उनके होठों में काली स्वाद की तरह थी, अब मुनिम उसकी माँ को ब्लाउज ग़िरवी रखने के पैसे नहीं देता था। किराने वाला सामान देकर अब बुढ़िया के क़मर नहीं पकड़ता था। वो साल था २००२ महीना अगस्त ; मौसम : अशाढ़…

उस रात शायद इन्द्र-देव भी उनके बदन को देखने की ज़िद्द कर चुके थे, दिन भर की हुईं बारिश ने, गाँव के 150 घरों को छोड़कर उनकी झुग्गी-झोपड़ी पर बिजली के बवण्डर गिराये। उस परिवार का घर उनके सामने जल रहा था, माँ और बहनें चिखें मार कर रो रहीं थी। सबसे छोटा भाई बाढ़ में बह गया।

उन दोनो लड़कियों ने मदद माँगने के लिये कई घरों के दरवाज़े खटखटायें, सबने हाथ पकड़ कर बस उन बहनों को हीं अंदर खिंचना चाहा।

बहनों के अलावा किसी भी घर ने बाक़ी परिवारों को पौ फटने (सुबह की किरण) तक कि भी समय के लिये अंदर ना जाने दिया। जब गाँव के सरपंचों को पता चला तो पाँच पंचों की एक टोली उनके यहाँ पहुँची ।

उन्होंने कहा ;

हम, तुम पाँचों को एक साथ तो अपने यहाँ नहीं रख सकते, पर एक-एक कर तुम लोगों को हम आपस में सहमती से अपने यहाँ समय-समय रख सकते हैं।

अपनी तुच्छ-बुधिमता का पासा फेंकते हुए उन लोगों ने इसका लॉजिक भी दिया, एक-एक रखने से ना तो हमारे उपर तुम्हारा कोई बोझ बढ़ेगा और ना ही हमारे घर में भीड़ बढ़ेगी।

चंद पलों के सन्नाटे, उसने वापस बोलना शुरू किया :

प्रकृति या भगवान आप जो भी कह लो साहेब, प्रकृति का अभिशाप या भगवान कि यंत्रणा-यातणा, कह लो साहेब, जब एक जहाज़ पानी में डूब रहा होता है

तो डूब रहा हर वो शख़्स भगवान से उन्हें बचाने कि स्तुति(प्रार्थना) करता है.. हाथ फैलाकर उनसे मिन्नतें करता है, पर क़िस्से-कहानियों को हम-आप कहाँ मानते हैं, जब तक कि कोई हमारा अपना इन हादसों में नहीं मरता। फ़िर आप दोषी किसे मानते हैं, उस इंजीनियर को, जिसने जहाज़ के मेकनिज़्म को सही से नहीं प्लॉट किया, या फ़िर उस समुद्र का, जिसने अपना रूप अचानक दानव सा फैलाकर जहाज़ को ख़ुद में निगल गया, क्या कभी ये ख़याल भी आया होगा, की भगवान को पुकारने से, उससे हाथ फैलाकर माँगने पर अगर वो आपको पानी में डूबने से निकाल लेगा, तो ये भी सोचो फ़िर वो आपको डुबोता हीं क्यूँ ??? अमूमन, आप इन सबका दोष किनके मथथे मढ़ते हैं।


मैं और मेरे साथ के बेचमेट्स उसे इस तरह बोलते देख अस्तंभ(अचम्भित) थे..जवाब ना मिलता देख हम सभी एक दूसरे के चेहरे देखने लगे।हम सभी अपने किये-कहे पर शर्मिंदा थे। हमने उस किन्नर को छेड़ने के लिये ना जाने उससे क्या-क्या नहीं कहा, ट्रेन कि सफ़र अब लम्बी लगने लगी थी। बनारस स्टेशन पर चढ़ी किन्नरों के ग्रुप ने हमारा इठलाता मिजाज दोज़ख़ के अन्धेरों में घुसेड़ दिया था। वो अनपढ़-छक्का-हिजड़ा, उसने अपनी बातों से हमारे हृदय को अभिभूत कर हमें बीच का बना दिया था। पर वो, वो अलग थी उनमें, उसने एक दम में इतना कुछ कह दिया..


मैंने तो सिर्फ़ इतना हीं कहा था ;

व्हाट इट फील्स लाइक टू यू टू बी( बीइंग) ट्रांसजेंडर

वो हँसते हुए बोली;

जेंडर ट्रान्सफर बिटवीन द लेग्स...!

साथ वाले दोस्त ठहाके लगाने लगे,पर मैं शांत उसे हीं देख रहा था,वो मुझे देखकर बोली..

"और तू क्या सोचता है चिकने ??"

मैंने मेरे हाथ में खुली पड़ी नावेल को बंद करता हुआ बोला ; "पुरूष के जिस्म में बंधी एक औरत"

मेरे इस ज़वाब से जैसे सभी का हँसना अचानक रुक गया, और वो हमारे सामने अब तक निर्भीक खड़ी वो किन्नर ,उसे मैंने ख़ुद के चेहरे पर आत्मग्लानि और पश्चाताप के भाव को उभरते देखा, इतने में मेरा दोस्त बीच में बोल पड़ा ;

"तुम लोगों के माँ-बाप होते हैं या भी नहीं ?" क्यूँकि तुम्हारे जैसों की संरचना किसी मनुष्य के बस की नहीं। अर्जुन का पूछा गया यह बुद्धिरूद्ध(मुर्ख़) सवाल जितना बेहूदा सुनने में हमें लगा, उससे कहीं ज़्यादा दर्द की लहर और तकलीफ़ उस किन्नर को हुई थी, और अब वो हमपर ओले बनकर पड़ने वाली थी।

वो हमारे सामने वाले बर्थ पर अपने दोनो पैर फैला कर बैठ गयी। और फ़िर उसकी वो कहानी हमने सुनी। उसकी सुनते-सुनते हमारी ट्रेन जोधपुर रेल्वे स्टेशन पर पहुँच चुकी थी, एक-एक करके मेरे सारे फ़्रेंड्स ट्रेन से नीचे उतर गये, पर मैं वहीं उसके सामने बैठा रहा। वो गंभीर मुस्कान बिखेरते हुए बोली;

"तुझे क्या हुआ, तू भी जा" पर मैं निशब्द बैठा उसे ही देखता रहा। वो असमंजस की स्थिति में मुझसे बोली, "क्यूँ ऐसे देख रहा है तू, तुझे क्या मेरे से प्यार हो गया चिकने ??" मैं अब भी उसे हीं देख रहा था। दोबारा वो मुझसे नज़रें नहीं मिला सकी। झुकी हुई नज़रों से उसने उसने कहा;

"तुझे कुछ पूछना है ???"


मैं : बताओ मुझे! बेलवाड़ा कि कहानी का वो हिस्सा जिसमें उस लड़की ने स्त्री होकर भी जीने के लिये किन्नर के नर्क़ की ज़िंदगी चुन ली !!

मेरे इस प्रश्न को पूछते ही उसे जैसे हजारों वोल्ट का झटका एक-साथ लगा था। उसकी आँखों की पुतलियों ने फैलकर अब सालों पड़ी परत को हटाने लगी थी..देखते-देखते हीं उसकी आँखों ने बरसना शुरू कर दिया..आँसुओं ने उसके चेहरे पर पड़ी किन्नरों वाली स्याही को मिटाने लगी..।

अब मैं उसकी स्वाभाविक ख़ूबसूरत सी मुरत को देख रहा था। वो कर्कश आवाज़ अब धीमी होकर मीठी हो चुकी थी..फैले हुए पैरों को बंद करते हुए बोली;

"अट्ठारह महीनों में चार बार प्रेग्नेंट हुई मैं, और चारों बार गर्भपात। मेरी छोटी बहन लाडली उन्हीं अट्ठारह महीनों में पाँच बार गर्भपात करवायी।

गाँव वालों ने अचरित्र और कुंठा बोलकर उसे ज़िंदा गाँव के बीचों-बीच जला दिया। मुझे भी पंचों ने वैश्या, डायन की ख्याति देकर आग में जलाना चाहा, पर एन वक़्त पर माँ ने यह बोलकर मुझे बचा लिया की, मैंने किन्नर को जना(जन्म देना) है। गर्भवती कभी हुई ही नहीं मेरी बेटी। माँ के जल्दबाज़ी में लिये हुए फ़ैसले ने गाँव वालों को सोच में डाल दिया..कौन सबूत पेश करता की मैं किन्नर नहीं हूँ ! गाँव में उसे भी आग में जलने की सज़ा दी जाती, मुझसे नाजायज़ संबंध होने के डर ने सब की बोलती बंद कर दी। लेकिन उस दिन से मैं सामाजिक नज़रों में किन्नर हो गयी। गाँव वालों ने ख़ुद की करतूत को दबाने के लिये मुझे समाज़ से बहिष्कृत कर निकाल दिया। माँ ने किन्नरों को बुलाकर मुझे इनके हवाले करते हुए कहा; "बेटी, मरना है तो मेरे साथ मर जा, वर्ना, दुनिया देखनी है तो किन्नर बन जा, शादी अब तुझसे कोई करेगा नहीं, पर तू अपने स्त्री होने का कलंक अपने माथे पर लिये हर सुबह किसी मर्द के साथ सोकर धोयेगी।"


इतना बोलकर मेरे सामने बैठी वो, उसने मेरे सामने अपने हाथ जोड़ लिये..और दस का एक नोट निकालकर मुझे थमाते हुए बोली..

"अपना नोट वापस रख ले चिकने, तेरा पैसा लिया तो तुझे भूल जाऊँगी, पर अब तू हमेशा याद रहेगा मुझे", फ़िर वो मेरे कम्पार्ट्मेंट से चली गयी।

मैंने बैग उठाया और अपने काँधे पर रखकर ट्रेन से नीचे उतरकर प्लैट्फ़ॉर्म पर आ गया। ट्रेन की सीटी बजी.. ट्रेन ने आहिस्ते से अपनी धीमी रफ़्तार तेज़ कर दी..मैं वहीं खड़ा ट्रेन के हर बोगी को गुज़रता हुआ बेसब्री से देखने लगा..पर मुझे वो वापस नहीं दिखी। थोड़ी देर बाद मैं अपने हॉस्टल आ गया..

पर कुछ था जो अंजाना होकर भी अपना सा कर गया, उस दिन उस सफ़र ने ना जाने कितने अनछुए एहसासों को कुरेदा, पर हर सवाल दिल की गहराइयों में धड़कनों के शोर में गुम हो गया॥



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