संगीत मेरी रूह है
संगीत मेरी रूह है


यादें इंसान को ज़िंदा ही नहीं बल्कि उसको जीने का सार सिखाती है बचपन से ही एक माहौल,आपको अगर संगीत का मिला हो, तो आप अच्छे गायक तो पता नहीं लेकिन संगीत के अच्छे श्रोता तो बन ही जाते हैं।
जबलपुर मेरा जन्मस्थान है जो संस्कारधानी के नाम से भी प्रसिद्ध है बेशुमार संगीत का दौर देखा तो नहीं, पर घर में दादी, पिताजी और चाचा कि ज़बानी , मॉं और हम बहनों ने महसूस ज़रूर किया था। सुबह चिड़िया की चहचहाहट हो, कोयल की कूक हो, तेज़ बारिश में बिजली की कड़कड़ाहट हो या ठंड का गहरा कोहरा, रेडियो मात्र हमेशा चलता रहता। घर पर रिश्तों के जुड़ने का मानो जैसे संगीत ही माध्यम था ।
“भातखंडे संगीत महाविद्यालय “ से विशारद और संगीत अलंकार की डिग्री प्राप्त कर बुआजी ने शादी के बाद भी औरंगाबाद रेडियो स्टेशन से अनेक कार्यक्रम प्रस्तुत किये।वे हिन्दी व मराठी भावगीत और ग़ज़ल के प्रोग्राम भी दिया करती थी।
शायद मुझ मे ग़ज़ल के संस्कार वहीं से आये हैं ।
उनसे सुने हुई कुछ गीत ग़ज़ल याद आते हैं।
“सरगशता हूँ मंज़िल के लिए, याने कि तेरी महफ़िल के लिए “, ”जहां गाते हैं वो मेरी ग़ज़ल आहिस्ता आहिस्ता “, “उघड्या पुन्हा जहाल्या जखमा उरातल्या”, ”धुंदी कळ्यांना, धुंदी फुलांना”, ”शब्द शब्द जपून ठेव, बकुळीच्या फुलापरी” आदि ।
घर के लोगों का शास्त्रीय संगीत के प्रति प्रेम देखा ओर सुना बहुत है। जिन लोगों ने वो सुनहरा दौर देखा हो जहां उस्ताद बिस्मिल्ला खां, उस्ताद अल्लाह रखा, विलायत खां साहब, पंडित रवि शंकर,प्रोफ़ेसर वी जी जोग ,पंडित जसराज ,विदुषी परवीन सुल्ताना,निर्मला देवी,श्रीमती गिरिजा देवी , श्रीमती शोभा गुरटू ओर किशोरी अमोनकर जैसे महान कलाकारों को रुबरू सुना हो उन्हें उस पुराने दौर के संगीत समारोहों कि यादों की गूंज ,तेज़ी से बदलते हुए वक़्त में ,ज़रूर सुनाई देती होगी
मैंने कोई फ़ॉर्मेट नहीं तैयार किया है आपको क़िस्से सुनाने का, बस जो याद आता जा रहा है बयां कर रही हूँ ।
१९७९ की एक धुँधली सी याद है...
दिन भर का सफ़र तय कर जगजीत सिंह जी और चित्रा सिंह जी कार्यक्रम करने जबलपुर में आए थे लेकिन हमें घर पर छोड़ कर, सभी उन्हें सुनने चले गए.....खैर ये कसर बाद में पूरी हुई थी और उनसे मिलने का सौभाग्य भी प्राप्त हुआ। उनके साथ तबले पर संगत करने वाले अभिनव उपाध्याय जबलपुर से ही है। जगजीत सिंह जी और मेरे पिताजी में अनेक समानताएँ थी। अब पिताजी भी नहीं रहे। उनका सुनाया हुआ क़िस्सा आज भी याद है।
एक बार कि बात है, शास्त्रीय संगीत के महारथी पंडित जसराज जी का कार्यक्रम शुरू ही हुआ था और पंडित जी अचानक रुक गए। सामने की सीट पर, पैर फैलाए एक सज्जन को इशारा कर नाराज़ हुए, कहा कि हम यहाँ देवी की स्तुति कर रहे हैं और इस बात का आपको इल्म नहीं..कृपया यहाँ से तशरीफ़ ले जाइए। हॉल में सन्नाटा छा गया था। फिर थोड़ी देर बाद पंडित जी ने ध्यान शुरू कर दिया।
ये वे लोग हैं जो संगीत को ईश्वर मानते हैं और ध्यान कर,उनसे एक हो जाते हैं। ऐसे में उनकी साधना में ख़लल उन्हें क़ुबूल नहीं
संगीत को जो शिद्दत से पूजते थे और जिनकी साधना से घटनाएँ घट जाती थी एसी ही एक घटना याद आ रही है जो कुछ ही दिन पहले चाचा कि ज़ुबानी फिर सुनने को मिली...
ऑडिटोरियम खचाखच भरा था, क्योंकि संगीत जगत के दिग्गज, संगीत के गुणीजन पंडित रविशंकर जी सितार पर, प्रोफ़ेसर वि.जी जोग वायलिन पर ओर उस्ताद अल्लाह रखा साहब तबले पर...
ऐसी पेशकश और ऐसा नज़ारा क़िस्मत वालों को ही देखने को मिलता है । कार्यक्रम अपनी चरन सीमा पर था और अचानक एक आवाज़ आई ..... प्रोफ़ेसर जोग के वायलिन का एक तार अचानक टूट गया था। पूरे हॉल में सन्नाटा छा गया, वे उठकर पंडित जी के पैरों पर नतमस्तक हो गये...सभी स्तब्ध थे ।तत्पश्चात् श्रोताओं की तालियों से लगभग दो मिनट तक हॉल गूँजता रहा।
संगीत का यथार्थ ज्ञान समर्पण है।समर्पण अपने अस्तित्व का अपने गुरु के समक्ष।
एक ज़माना एस.पी, ई.पी और एल.पी रिकॉर्ड का भी था...
“ ज़िन्दगी में तो सभी प्यार किया करते है ( मेहदी हसन साहब) ,“हंगामा है क्यों बरपा ,थोड़ी-सी जो पीली है” (ग़ुलाम अली साहब),पुकारती हैं ख़ामोशी मेरी ( हेमलता जी),आहिस्ता आहिस्ता (जगजीत सिंहजी) .
मेंहदी हसन साहब , ग़ुलाम अली साहब और फिर जगजीत सिंह जी का आना।
हमारा घर ग़ज़लों से महकता था।
सुनकर गुनगुनाकर उन आवाज़ों से प्यार करता था। जहां शायद अपने होने का अहसास हर वक़्त होता था।
“अफ़साने यूँ ही बनते रहेंगे, गर
अहसास को आगोश में रखेगा तू”