सकारात्मक सोच :-
सकारात्मक सोच :-
एक ऐसी शारीरिक प्रतिक्रिया है जो केवल तीन प्रकार से ही देखी जा सकती है। पहला पैतृक माहौल और वंशाकुल प्रभाव । दूसरा परिवेश, जिस माहौल में व्यक्ति का बचपन गुजरा और उसने युवा अवस्था में कदम रखा। तीसरा मुख्य कारक किसी भी माहौल से सम्बन्ध नहीं रखता है । ये तो केवल व्यक्ति को पूर्व जन्म के अपने योग-कर्म से ही प्राप्त होते है। इस में कोई अन्य कारक किसी भी तरहां सहायक नहीं बनता । ऐसे व्यक्ति जन्म से ही बहुत गुणी होते हैं और एक उत्कृष्ट व्यक्तित्व रखते हैं। चलो, इस से सम्बंधित आप को एक कहानी गढ़ कर सुनाता हूँ:
मेरे अपने काल से पहले की घटना है, जो मैंने अपने दादाजी से सुनी थी। एक साधु टहलते हुए, किसी गाँव में आया और मुखिया के द्वार पर अपना ठिकाना लगाया । क्यूंकि ऐसे ही व्यक्ति के पास अमूमन गॉंव के लोग आते- जाते रहते हैं, अपनी समस्या का समाधान करने के लिए । कुछ समय बीतने में ही वो साधु बहुत प्रसिद्ध हो गया । उस के बौद्धिक स्तर को देखते हुए, सरपंच ने एक उचित स्थान साधु महाराज को प्रवचन के लिए दे दिया और खाने पीने का बंदोबस्त भी कर दिया।
एक दिन महाराज के पास प्रवचन सत्संग चल रहा थी । उसी दौरान ही एक गांव का सत्संगी, साधु जी के पास आया, अपनी समस्या को लेकर । साधु महाराज ने उस की घरेलू समस्या को बड़े ही ध्यान से सुना, जो सांसारिक प्राणी के जीवन काल में अक्सर लगी रहतीं हैं, जैसे व्यापार या कारोबार का न चलना, घर में दुःख बीमारी का लगा रहना, शादी -ब्याह में अड़चन का आ जाना, पारिवारिक कलह या फिर ऊपरी हवा का असर होना, पैतृक प्रभाव या वास्तु दोष का होना आदि -आदि ।
स्वामी जी, सत्संगी की समस्या के समाधान को सुलझाने के विचारों में डूबे हुए थे । उसी दौरान उन का पाला हुआ कुत्ता, कहीं से लड़- झगड़ कर आ जाता है । उसे दूसरे कुत्तों ने बहुत बुरी तरहां से काटा होता है । वह बहुत घायल, लहूलुहान अवस्था में होता है । बहुत चिल्लाते- शोर मचाते हुए, स्वामी जी के चरणों में लेट जाता है । जोरों से रोने लगता है ।
स्वामी जी, अपने कमण्डल से कुत्ते को, कटोरे में थोड़ा पानी डाल देते हैं, जिसे वह पी लेता है, पर साथ ही साथ घाव के कारण चिल्लाता भी रहता है । साधु भी उस के दुःख से बहुत दुखी होते हैं, पर क्या करते, सिवाय उस के सर पर प्यार से हाथ फेरने के और पुचकारने के। साधु जी फिर अपने विचारों में खो जाते हैं। कुछ समय गुजर जाने पर कुत्ता भी स्वामी जी के चरणों में सो जाता है। उसे गहरी नींद आ जाती है और वह व्यक्ति, जो अपनी समस्या ले कर आया होता है, उठ कर चला जाता है । साधु के इस व्यवहार से अन्य सत्संगी नाराज से हो जाते हैं। सोचते हैं, स्वामी जी ने कुछ भी बेचारे को सुझाव व सलाह नहीं दी । हमारे गाँव का भाई उदास चला गया । उन में से एक सत्संगी से रह नहीं गया। वह उत्सुकता वश, स्वामी जी से सवाल कर बैठता है कि आप ने बेचारे हमारे सतसंगी की किसी भी प्रकार से मदद नहीं की । स्वामी जी, आप ने ऐसा क्यूं किया ?.
साधु ने बहुत ही शांत-स्वभाव से उस सत्संगी को देखा और सकारात्मक उत्तर दिया कि वत्स, “ कुत्ते के सामने इस व्यक्ति का कष्ट बहुत ही कम था, जानवर तो लाचार होता है । स्वामी पर ही निर्भर रहता है । स्वामी अपने समर्थ के अनुसार ही उस जानवर की मदद कर सकता है । पर मैं तो इंसान हूँ, खुद का स्वामी । हर तरहां से समर्थ, “ तो मेरा गम तो इतना ज्यादा नहीं है, जितना की इस जानवर कुत्ते का” जो चैन की नींद ले कर सो सकता है, तो क्या मैं ऐसा नहीं कर सकता ? उस सत्संगी ने अपनी समस्या का समाधान ढूंढ लिया था, इसी कारण वे चले गए। सत्संगी खामोश हो कर अपने स्थान पर बैठ गया और अन्य लोगों को भी अपनी गलती का अहसास हो गया ।
तो दोस्तों, इसे कहते हैं सकारात्मक सोच, जो औरंज़ेब ने किया था वो गुरु गोविन्द सिंह जी ने नहीं किया। शहंशाह के गुजर जाने पर, पूरे राज्य पर अपना कब्जा नहीं किया । केवल इंसानियत को ही धर्म माना, कोई द्वेषता नहीं रखी । एक अच्छी सोच,” जो आज इतिहास में, अपने आप में, एक मिसाल है। दुनिया में कितना गम है, मेरा गम कितना कम है। एक सकारात्मक सोच।