सीटी
सीटी
सीटी की आवाज नश्तर सी चुभ जाती थी,
छोटे शहर की बेटी जब घर से स्कूल जाती थी,
थे उसके कुछ सपने जिन्हें पूरा करने के लिए
घर की दहलीज से पांव निकालती थी,
थे गली में डेरा जमाये कुछ आवारा शोहदे,
जिनके निशाने पर वह नजर आती थी,
था रोज का आलम जुमले और अश्लील इशारों का,
नजरअंदाज करने की मजबूरी चेहरे पर उसके झलक जाती थी,
टूट चुकी थी पूरी विरोध जताने में वह असमर्थ नजर आती थी,
न था उसका कोई दोष, पर वह अब फोटो में नजर आती थी,
बजती है सीटी गली में आज भी,
फिर कोई बेटी सपनों को अपने समेटते दिख जाती है।