Neeraj pal

Inspirational

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शिक्षक के रूप में मेरी यात्रा।

शिक्षक के रूप में मेरी यात्रा।

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कोई भी बच्चा जैसे ही चलना और बोलना सीखता है, तो अब उसे जीवन में जीने की कला सिखाने वाले एक शिक्षक कीआवश्यकता पड़ती है। अतः बच्चा विद्यालय में जाने लगता है जहां उसे अब अपनी तथा अपने भविष्य में एक नया मोड़ लेने के लिए पढ़ना होता है।

 मेरा मानना है बच्चा पैदा होते ही किसी ना किसी पर आश्रित हो जाता है, घरेलू परिवेश में माता-पिता जब तक बच्चे को संभालना और चलाना सिखाते हैं तो वही "प्रथम गुरू" होते हैं। इस शब्द का सही अर्थ निकाला जाए तो काफी विस्तार से परिभाषित किया जा सकता है।

 प्राचीन काल में शिक्षक को "गुरुजी" भी कहा गया है। संधि-विच्छेद विच्छेद अगर किया जाए तो " गु"- का मतलब अंधकार" और  "रु"- का मतलब प्रकाश। एक ऐसा व्यक्ति जो अंधकार से प्रकाश की तरफ ले जाता है।

 मेरा परिचय- मैं एक मध्यम वर्ग में पला- बड़ा हुआ। पिताजी आर्मी से सेवानिवृत्त, भूतपूर्व सैनिक में थे और माता एक कुशल गृहिणी थी। मेरी प्रारंभिक शिक्षा केंद्रीय विद्यालय से शुरू हुई, हाई स्कूल, इंटर भी केंद्रीय विद्यालय में हुई।

 सन् 1996 में ही मेरा चयन बीटीसी में हो गया सबसे पहले छात्र अध्यापक बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। प्रशिक्षण के दौरान सबसे पहले छात्रों को पढ़ाने का सौभाग्य मिला। शुरू- शुरू में बोर्ड के पास खड़े होकर छात्रों के साथ पहली बार गणित पढ़ाने का मौका मिला। डाइट के प्रवक्ता जी आलोचना पुस्तिका लिए हुए बैठे थे, डर लग रहा था कहीं कोई भूल न हो जाए। सर का यही जवाब था-" practice makes a man perfect।" खैर हौसला मिला और मैं पढ़ाने लगा इस प्रकार 2 वर्ष का समय व्यतीत हो गया।

 सन् 1999 में पहली नियुक्ति प्राथमिक पाठशाला रामपुर मुड़ेरी काजिम हुसैन (कन्नौज) में की गई। जो कि मेरे निज निवास छिबरामऊ से 60 किलोमीटर दूर था, लेकिन तब भी एक जुनून था शिक्षक बन गया हूँ। और कुछ अच्छा करके दिखाना है।

 विद्यालय में मेरा पहला दिन- पहले ही दिन हमारे प्रधानाध्यापक महोदय ने जब अपने श्री मुख से कहा-" मास्टर साहब कुर्सी पर पधारिए पहले कुछ हिचकिचाहट हुई और गुरुजी के चरण स्पर्श कर मैं कुर्सी पर बैठने की बजाय गुरु जी से मैंने कहा-" बैठने नहीं पढ़ाने आया हूँ। इस बात को सुनकर गुरु जी ने कहा- बेटा अब तो पढ़ाना ही पढ़ाना है।

 कक्षा में मेरा पहला दिन- मुझे कक्षा 5 में पढ़ाने को कहा गया हालांकि एकल विद्यालय था मैं जो कि अंग्रेजी माध्यम से पढ़ा लिखा था तो शुरू शुरू में हिंदी में थोड़ी दिक्कत आई। सबसे पहले बच्चों से परिचय शुरू हुआ, बच्चों से सबके मैंने नाम पूछा फिर बच्चों को अपना परिचय दिया। बच्चों से सबसे पहले मैंने पूछा -आज कौन सा विषय के बारे में पढ़ना चाहोगे। बच्चों ने एक साथ जवाब दिया कि "अंग्रेजी" गुरुजी पढ़ना चाहेंगे। कुछ बच्चे ऐसे थे जो बहुत कमजोर थे। मिला -मिला कर शब्द नहीं पढ़ पाते थे ।

मेरा पहला अनुभव -दूसरे दिन से जो बच्चे काफी कमजोर थे उनका एक ग्रुप बनाया और उन्हें आधा घंटा का समय अलग से देने लगा। इसका नतीजा यह हुआ कि अब बच्चे अक्षरों को मिला मिला कर शब्द पढ़ने लगे थे। यह मेरा पहला अनुभव था और अंतर्मन से बहुत खुशी भी।

इससे मेरे अंदर एक - "करत -करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान, रसरी आवत जात ते सिल पर परत निशान" वाली कहावत चरितार्थ होती दिखी ।

 आगे का सफर - 3 वर्ष बाद मेरा तबादला छिबरामऊ के ही प्राथमिक पाठशाला दिलू छिबरामऊ में हो गया। छात्रों की संख्या अधिक थी और अध्यापक भी पर्याप्त मात्रा में थे। यहां पर जातीय- समीकरण का मामला देखने को मिला। कभी ना भूलने वाली बात- एक दिन मैं कक्षा चार में पढ़ा रहा था बोर्ड पर सवाल देने के बाद मैंने एक बच्चे से कहा-" बेटा हमें एक गिलास पानी पिलाओ" वह बच्चा मेरी बात को अनसुनी करके बैठ गया। और पानी नहीं लाया। एक छात्रा बोली गुरु जी मैं पानी लेकर आती हूँ। मैंने कहा-" नहीं बेटी पानी उसी बच्चे को लाने दो मैं उसी बच्चे के हाथ से पानी पियूंगा। और जब मैंने उससे दो-तीन बार कहा तब वह बच्चा पानी लेकर आया ।

इसका मैंने कारण जानना चाहा- बाद में पता चला कि वह बच्चा अनुसूचित जाति से है, इसलिए हिचकिचा रहा था।

 अगले दिन मैंने सभी बच्चों को एक कहानी सुनाई- इस कहानी का सार यह निकला कि हम सभी एक मालिक की संतान हैं। कोई भी बच्चा किसी से भिन्न नहीं है। बच्चों से एक गीत सामूहिक रूप से गवाया।गीत के बोल थे-" सारे जहां से अच्छा हिंदुस्तान हमारा....... मजहब नहीं सिखाता, आपस में बैर रखना।

 इसका निष्कर्ष मुझे अगले दिन सुबह मालूम पड़ा वही बच्चा कक्षा में सबके साथ मिलकर पढ़ने में अधिक ध्यान देने लगा और कक्षा में प्रथम स्थान भी उसने प्राप्त किया।

सन् 2004 में विज्ञान अध्यापक के रूप में उच्च माध्यमिक विद्यालय हरिहरपुर में प्रमोशन हो गया। प्राथमिक से उच्च प्राथमिक में कदम रखने के बाद कुछ खुशी और भी ज्यादा हुई। पर कुछ अनुभव ऐसा हुआ कि कुछ बच्चों का ज्ञान प्रारंभिक स्तर तक आ रहा है। शुरू में पढ़ाने में दिक्कत का सामना करना पड़ा। मैंने ऐसे कमजोर बच्चों की प्राथमिक स्तर का ज्ञान पूरा करना पहले सही समझा, कोर्स पर ध्यान न देकर उनको किताब पढ़ने, लेख सुधारने, जोड़ -घटाना का अभ्यास पूरी तरह कराया ।


प्रत्येक बच्चे में कहीं ना कहीं विशेष कला छिपी होती है, जिसे एक शिक्षक को उसकी कला को बाहर निकालने की कोशिश करनी चाहिए न कि डराना। एक शिक्षक के रूप में कार्य करने का सबसे बड़ा महत्वपूर्ण कार्य है कि बच्चे का सर्वांगीण विकास हो।

 मैंने विद्यालय में प्रार्थना, योगा तथा 10 मिनट तक मैडिटेशन लागू किया। मैंने यह भी अनुभव किया कि बच्चा शारीरिक रूप से उपस्थित से रहता है, मानसिक रूप से नहीं । अतः एकाग्रता लाने के लिए 10 मिनट के लिए मेडिटेशन भी लागू कर दिया। जिसका प्रभाव प्रत्यक्ष रूप में देखने को मिला।


  इसके बाद मेरा तबादला उच्च प्राथमिक विद्यालय खानपुर कसावा छिबरामऊ में इंचार्ज प्रधानाध्यापक के रूप में हो गया।

 दिल को छूने बाली बात- मैं कक्षा 6 की विज्ञान की कक्षा ले रहा था उस समय पढ़ाते समय मैंने एक छात्रा जिसका नाम रुकसाना था, वह बिल्कुल ध्यान नहीं दे रही थी। मैंने देखा वह हाथ पर पेन से मेहंदी की डिजाइन बना रही थी। जब मैंने उसको अपने पास बुलाया तो वह सबसे पहले हिचकिचाई और मैंने प्रेम से उस बच्चे से कहा -"कि बेटी अपना हाथ दिखाओ" मैंने जैसे ही उसका हाथ देखा और मेहंदी की डिज़ाइन देखकर मैं दंग रह गया, फिर मैंने इसमें एक नया मोड़ दिया मैंने सभी बच्चों से कहा-" शनिवार वाले दिन सभी बच्चे रंगोली और मेहंदी की प्रतियोगिता में भाग लेंगे। जिसको मैंने संपन्न कराया और उसमें उसी बच्ची ने सबसे सुंदर मेहंदी लगाई और प्रतियोगिता में रुचि दिखाई और उसको मैंने प्रथम पुरस्कार देकर सम्मानित भी किया।

 इस प्रकार मैंने यह समझा कि बच्चों को समझना, उनकी रुचि और जरूरतों को समझना, बच्चों में तकनीकी ज्ञान और वह सामाजिक प्राणी बने, बच्चों की शंका और झिझक दूर करना, अंदर के डर को भगाना, बच्चों के अंदर की कला को निखारना न कि उसे डराना। यही सब कुछ बच्चों के सर्वांगीण विकास का सूत्र है। चित्रकला, बच्चों को ध्यान- विधि द्वारा समझाना, इस प्रकार बच्चे रुचि दिखाकर कक्षा में पढ़ते हैं।

 अंत में सार यही निकलता है कि शिक्षक होने के कारण उपर्युक्त सभी सामाजिक एवं नैतिक कार्य करने का भी मौका प्राप्त हुआ जो कि एक शिक्षक को ही किसी भाग्यवश चुना जाता रहा है।


 इससे मुझे यह ज्ञात हुआ कि एक शिक्षक न कि केवल बच्चों से, समाज के कई इकाइयों से जुड़ने का मौका प्राप्त होता है। अतः शिक्षक एक बहुत ही जिम्मेदारी पूर्ण एवं देश की एक ऐसी रीड़ की हड्डी है जिससे कई लोगों का भला एवं राष्ट्र के निर्माण में सहायक हैं।

अंत में मैं आपके सामने एक शायरी प्रस्तुत करना चाहता हूँ-' कल तलक था मैकदे में शुष्क साहिल की तरह, आज साकी ने मुझे कतरे से दरिया कर दिया।"


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