सही और गलत की कशमकश

सही और गलत की कशमकश

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मैं नींद के समुंदर में ख़्वाबों की किश्ती पर सवार था। तभी कमरे के बाहर से माँ ने अपने मधुर स्वर में मुझे आवाज़ लगाई और बोली कि बेटा उठो, आज तुम्हें मुझे बस स्टैंड तक छोड़ के आना है। मैंने अपनी नींद से इक छोटी से लड़ाई की और आखिरकार जीतकर कमरे से बाहर आ गया। थोड़ी सुस्ती में अपनी मोटरसाइकिल बाहर निकाली। इतने वक़्त में माँ एक बैग लिए घर के बाहर आ गयी। मैं और माँ मोटरसाइकिल पर बस स्टैंड के लिए निकल गए।

मौसम बहुत सुहावना था। सुबह की हवाओं में इक ताजगी थी और जब वो शरीर से टकराती थीं तो अच्छा महसूस होता था। बस स्टैंड घर के करीबन 7 किलोमीटर की दूरी पर था। इतवार होने के कारण सड़कों पर कोई भीड़ नज़र नहीं आ रही थी। मैं भी अपनी मस्ती में गुनगुनाता हुआ मोटरसाइकिल चला रहा था। मेरे आगे एक कार जा रही थी जिसकी स्पीड 60 किमी प्रति घंटा होगी और मैं भी 40-50 की स्पीड पर था।

अचानक मेरे आगे वाली कार किसी चीज़ से जोर से टकराई। उसकी आहट ने एक दम से मेरे कान खोल दिए। मैं पूरे ध्यान से देखने के कोशिश करने लगा कि वो कार किससे टकराई। पर इतने में उस कार ने 60 से 80 की स्पीड पकड़ ली। थोड़ा सा आगे आकर मैंने देखा कि एक 45-50 साल का आदमी, जिसका सिर खून से लथपथ था, सड़क पर गिरा पड़ा था। और वो कार उसी आदमी से टकराई थी। वो सड़क काफ़ी लम्बी थी। उस आदमी को देखने के बाद मैंने कार की तरह देखा और उसका नंबर याद कर लिया और देखा की कार का आगे वाला शीशा पूरी तरह टूट चुका था। कुछ ही पल में वो कार आँखों से ओझल हो गई और मैंने देखा कि वो आदमी सड़क पर बेहोश पड़ा है।

अब दिमाग में सवाल पे सवाल आने लगे। क्या उसने जान-बूझ कर उस आदमी को मारा है? या उससे गलती से ये हादसा हो गया? पर इतनी बड़ी गलती वो कैसे कर सकता है क्योंकि सूरज पूरी तरह खिल चुका था और सब कुछ साफ़-साफ दिखाई दे रहा था। क्या ड्राइवर ने शराब तो पी रखी थी? फिर मैं ड्राइवर की तरफ होकर सोचने लगा कि हो सकता है कि उस आदमी (जिसका एक्सीडेंट हुआ है) उसने शराब पी रखी हो और एकदम से सड़क के बीच आ गया हो। ड्राइवर से ब्रेक ना लगी हो और इस कारण ये हादसा हो गया हो। ड्राइवर डर के कारण इतनी स्पीड पर भाग गया हो कि कहीं अगर वो आदमी ना बचा तो उस पर खून का इल्ज़ाम ना आ जाए।

इन सब सवालों से हटकर मेरे मन में एक अहम सवाल ये आया कि अब मेरी क्या ज़िम्मेदारी बनती है? मैंने कार वाले का नंबर तो नोट कर लिया था और वो आदमी मेरी आँखों के सामने सड़क पर खून से लथपथ बेहोश पड़ा है। ये सब कुछ देखकर मेरे मोटरसाइकिल की स्पीड भी 10-20 तक हो गयी थी। मेरे पास सोचने के लिए सिर्फ चंद सेकंड्स थे। मेरी इंसानियत मुझे आवाज़ लगा रही थी कि तुम्हें एम्बुलेंस को फ़ोन करके उस आदमी की मदद करनी चाहिए और साथ ही पुलिस स्टेशन में उस कार वाले की शिकायत दर्ज करनी चाहिए। मेरी माँ ने ये फैसला मुझ पर छोड़ दिया था कि जो तुझे ठीक लगता है वो कर ले।

पर दूसरी तरफ़ मेरी सोच में हिंदी फिल्मों में दिखाए झमेले याद आ रहे थे कि कहीं ऐसा ना हो कि वो आदमी ना बचे और उसे मारने का अंजाम मुझ पर आ जाए। अगर मैं पुलिस स्टेशन गया तो मुझे बार-बार पुलिस स्टेशन चक्कर लगाने पड़ेंगे पर इतना वक़्त कहाँ है मेरे पास। अगर एम्बुलेंस को बुलाऊंगा तो हो सकता है मुझे उसके साथ जाना पड़े या एम्बुलेंस को किए फ़ोन से पुलिस पता लगा ले कि वो मेरे नंबर से काल आई थी और पुलिस मुझपर शक न करने लगे। इस उम्र तक आकर मेरी सोच शायद ऐसी बन चुकी थी मैं पुलिस के चक्करों में पड़ने से बहुत डरता था। इसलिए मैंने भी अपने मोटरसाइकिल की रफ्तार फिर से तेज की और उस आदमी को उसके हाल पर छोड़ कर बस स्टैंड की तरफ चला गया।

वापिस घर आकर भी मेरे मन में वही बात चलती रही कि मैंने ठीक किया या गलत। मेरे खुद के पास खुद को सही साबित करने के कई तर्क थे पर साथ ही खुद को गलत साबित करने के भी। मैंने ये कई बार महसूस किया है कि इन्सान के मन में कई बातों के लिए इक कशमकश चलती रहती है और अक्सर इन्सान इस कशमकश से निकलने के दिल को झूठी तसल्ली देकर खुद को सही साबित कर देता है और मैंने भी तब वही किया।

हर इन्सान के पास कोई ना कोई ऐसा शख्स होता है जिससे वो अपनी हर बात कह देता है और कुछ दिनों बाद मुझे मेरा वही दोस्त मिला जिससे मैं अपनी हर बात कह सकता हूँ। उस दोस्त ने मुझे एहसास करवाया कि अगर तुम मेरे नजरिए से देखोगे तो तुम सही होकर भी गलत थे। ज़रा सोचो अगर उस आदमी (जिसका एक्सीडेंट हुआ था) की जगह मैं होता या तुम्हारा कोई और अपना होता तो तुम वही करते जो तुमने तब किया था। नहीं, तुम फिर ज़रूर उसके लिए एम्बुलेंस बुलाते, उसके साथ अस्पताल तक जाते और उसके बाद उस ड्राइवर की भी शिकायत पुलिस को करते।

और अगर तुम्हारे किसी अपने का वहाँ पर ऐसे ही एक्सीडेंट हुआ होता तो तुम उम्मीद करते कि कोई ना कोई उसे अस्पताल तक ज़रूर ले के जाएगा और जिसने वो हादसा देखा होगा वो उसे जरूर सजा दिलाएगा। हकीक़त में हम दूसरों से इंसानियत की उम्मीद रखते हैं पर जब हमें इंसानियत दिखाने का मौका मिलता है तो हम पीछे हट जाते हैं। तुमने तब ये सोचा कि फिल्मों में दिखाते है कि शिकायत करने वाला खुद ही फंस जाता है पर फिल्मों में ये भी तो दिखाते हैं कि जो मदद करता है, असली हीरो भी वही कहलाता है।

हम अब सच में मतलबी हो चुके हैं। हम किसी के फायदे के लिए अपना हल्का सा नुकसान नहीं करते, चाहे वो वक़्त का ही क्यों ना हो।

मेरे दोस्त ने मुझे एहसास करवा दिया कि मैं तब गलत था। कुछ गल्तियों को सुधारा तो नहीं जा सकता पर उनसे सबक सीखकर आगे के लिए खुद को सुधारा जा सकता है। मैंने अब ये निर्णय लिया कि किसी की जान से बढ़कर तो कुछ नहीं। खुदा-ना-खास्ता फिर कभी मुझे ऐसा हादसा देखने को मिले, पर अगर ऐसा कभी हुआ तो तब मैं पीछे नहीं हटूंगा।

“कुछ हादसे बहुत रुलाते हैं,

कुछ हादसे सबक सिखाते हैं।

और कुछ ऐसे होते जो दिल में,

इंसानियत को जिंदा कर जाते हैं।”


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