शहर का... चाचा चौधरी
शहर का... चाचा चौधरी
रात के12:00 बजने को थे। अशीष अभी तक घर पर नहीं पहुंचा था। पिताजी ने सारा घर सिर पर उठाया हुआ था। मां को डांट पड़ रही थी कि तूने उसको ज्यादा ही सिर पर चढ़ाया हुआ है। पता नहीं क्या करता रहता है सारे शहर का चाचा चौधरी बना हुआ है। अपने घर की कोई चिंता नहीं कि वह कहां जा रहा है।आशीष घर पर पहुंचा ही था। छोटी बहन निकिता ने पूछा.... "भाई..... बैठो पानी लाती हूं।" मां ने पूछा "खाना... खाया।"," नहीं... माँ अब नहीं खाऊंगा।" इसको तो बाहर के खाने की आदत पड़ गई है पिताजी ऊंचे स्वर में बोलते हुए कमरे से बाहर आ गए।
"हां........ हां सेवा करो लाट साहब की। सारे शहर का बोझ तो इसने अपने कंधों पर उठाया हुआ है इसके बिना तो कोई समस्या नहीं सुलझती। आज कितनी समस्याएं सुलझा के आए हैं............ चौधरी साहब।" पिताजी ने व्यंग करते हुए आशीष को कहा- पिताजी को कुछ कहने से बात और बढ़ जाती, "महेश के साथ गया था मुश्किल में है।उसके काम के सिलसिले में...." उसकी बात मुंह में ही रह गई और पिताजी बोले........."दूसरों के काम के सिलसिले तो आपके खत्म नहीं होगे घर में आटा चावल है..... या नहीं। यह आपको पता नहीं है।"
बिना कुछ कहे अशीष अपने कमरे में चला गया मां को और निकिता को सो जाने को कहा...... उसके दिमाग में अभी भी दो शब्द घूम रहे थे............. चाचा चौधरी । जो उसे पिताजी ने नाम दिया था। इन दो शब्दों से वह बचपन की कॉमिक में चला गया था जिसे वह किताबों में छुपा कर पढ़ता था। चाचाचौधरी और साबू कितना अच्छा लगता था चाचा चौधरी हर किसी की मदद को हमेशा तैयार रहते थे। आशीष भी ऐसा ही था हर किसी की मदद को तैयार... सब उसका सम्मान करते थे। दिल से..... हर किसी की समस्या को दूर करने के लिए दिन -रात एक कर देता था और घर में अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करते हुए भी सम्मान ढूंढता ही रह जाता था।