Rekha Pancholi

Inspirational

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Rekha Pancholi

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सेतु निर्माण

सेतु निर्माण

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पिताजी के देहावसान को पूरा एक वर्ष बीतने वाला था। उनकी बरसी की मेरी तैयारी पिछले कई दिनों से चल रही थी। मैं उनकी पुण्य तिथि पर अपने पहले काव्य संग्रह का विमोचन करवाना चाहता था। ये कहानी संग्रह मैंने उन्हीं को समर्पित किया था।

 पुस्तक प्रकाशित हो कर आ चुकी थी। अपनी पहली पुस्तक को हाथ में ले कर मैं आत्म विभोर हो रहा था। ठीक उसी तरह जैसे कोई माँ अपने नवजात शिशु को अपने हाथ से स्पर्श करके होती है। मेरा जन्म गाँव में हुआ था, वहां उस समय कोई आठवीं-दसवीं से अधिक नहीं पढ़ पाता था ,माँ अनपढ़ थीं। पिताजी हिसाब.... किताब भर कर लेते थे पर दोनों ने हम बच्चों को पढ़ाने लिखाने में कोई कमी नहीं रखी थी। गाँव में आगे स्कूल न होने की वजह से उन्होंने मुझे और मेरी दोनों बड़ी बहनों को शहर में कमरा ले कर रखा। उस ज़माने में कोई बेटियों को पढ़ा ने के लिए इतनी जोखिम नहीं उठता था जितनी मेरे किसान माता-पिता ने उठाई और जमाने भर के व्यंग्य - कटाक्ष सुने। पर जब मेरी दोनों बहनें सरकारी नौकरी में आ गई बड़ी दी विज्ञान की व्याख्याता और छोटी दी हिंदी की व्याख्याता बन गईं तो सबके मुंह बंद हो गए और माता पिता का सिर गर्व से ऊँचा हो गया। मैं अपनी साहित्यिक अभिरुचि कृषि संबंधी जानकारी व क्षैत्रिय भाषा पर अच्छी पकड़ के कारण आकाशवाणी में चयनित हो गया, अभी सहायक निदेशक के पद पर कार्यरत हूं। मेरी आवाज आकाशवाणी पर सुन -सुनकर माता-पिता बहुत खुश होते गांव का लक्खी अब लखन कुमार व लखन बाबू के नाम से जाना जाने लगा था । अपने गांव का ही नहीं आसपास के सभी गांव का हीरो बन गया था मैं ,जब गांव जाता तो लोग मिलने को आतुर रहते।

पुस्तक हाथ में लिए आंखें बंद किए में अतीत की पगडंडियों से गुजरता गांव की गलियों में पहुंच गया । छोटे से तालाब में नहाना ,गायों -भैंसों के पीछे जंगल में जाना ,बेर की झाड़ियों से ढेर सारे बेर तोड़ना। खेत - खलियान में घूमना । कई सारे मेरे स्वयं के चित्र और कई माता-पिता के चित्र मेरी आंखों के सामने से गुजरने लगे।  

लहंगा ओढ़नी पहने मां, उपले थापती मां ,ज्वार के आटे से गोल गोल फिरकियों सी रोटी बिना चिमटे के सेंकती ...दूध दूहती मां..… बिलौनी से छाछ बिलो कर मक्खन निकालती मां । अनेक रूपों में आ खड़ी हुई वह मेरे सामने।

और पिता! हल को कंधे पर रखकर बैलों की रस्सी थामे खेतों की ओर जाते पिता। खेत में पिता के पीछे पीछे चलती गेहूं के दाने डालती मां। बैलों वह हाली की सहायता से पिता जब लाओ चड़स से सिंचाई करते पानी से भरा हुआ चड़स उनके चरणों में आकर गिरता तो उनके खुरदरे पैरों को पखारता सा जल ढाणे में होता हुआ, धोरों की ओर बढ़ता जिसमें टप -टप टपकते ,उनके स्वेद बिंदु भी उसी में मिल जाते.... कैसे निखर जाते थे उनके पैर इन दिनों ,जब फसल के अंकुर फूट आते और नन्ही नन्ही पत्तियों पर उसके कण चमकने लगते तो मुझे पिता का वह स्वेद बिंदुओं से भरा चेहरा याद आ जाता । जब फसलें थोड़ी बड़ी हो जाती तो हवा चलने लगती तू खेत समंदर से जान पड़ते। और हवा से फसलें हिलोरे लेने लगती तो मां और पिताजी के चेहरे पर भी ऐसी ही संतोष की लहरें उठती । जब गेहूं और सरसों की बालियां खेतों में झूमती तो झूमते खेतों की परछाई उन दोनों की आंखों में नजर आने लगती । और फसल की रखवाली की चिंता में पिता रात रात भर पलक झपकना भूल जाते। हाड़ कंपा देने वाले कड़ाके की ठंड में वे रात भर अलाव जलाकर खेतों की मेड़ पर बैठे रहते । आज पिताजी ना रहे .....होते तो कितना खुश होते। मैं स्मृतियों में डूब उतर रहा था कि मां का फोन आया, थारा बाबूजी री बरसी आने वाली है बेटा, तू गांव कदे आसी ।

पर मां बाबू जी की बरसी की तैयारी तो मैंने यहां कर रखी है। मैं अपनी कहानी संग्रह का लोकार्पण उसी दिन करवाना चाहता हूं । यह कहानी संग्रह में बाबूजी को समर्पित किया है । अच्छी बात है, बेटा। पर गांव में तो पूरी रीत रिवाज से बरसी होनी जरूरी है । बेटा गांव के रीति-रिवाज तो तू जाने हैं ।

'तो फिर ऐसा करते हैं मां पुस्तक का लोकार्पण तारीख के हिसाब से कर देते हैं । और गांव में बरसी तिथि के अनुसार कर लेते हैं। ' मां ने हामी भर दी। समस्या का हल निकल गया था तैयार हो गई थी तारीख और तिथि में दो-तीन दिन का अंतर था‌। पुस्तक लोकार्पण 3दिन पहले होना था । गांव के कार्यक्रम की जिम्मेदारी मां पर छोड़कर मैं पुस्तक लोकार्पण की तैयारी में जुट गया । लोकार्पण के दिन सुबह -सुबह अचानक गांव के पड़ोसी काका रामदीन के साथ मां को साथ आया देखकर मैं चौंक पड़ा । मां तुम यहां ! मेरे मुंह से आश्चर्य से निकल पड़ा । तू किताब लिख्यो है छोटू वो भी थारा बाबूजी ने समर्पित है‌। बता मैं कियां नीआती। मैं पल भर को शर्मिंदा सा हो गया । इस कार्यक्रम के लिए मैंने कई नामी-गिरामी हस्तियों को आमंत्रित किया था और मां को बुलाना ही भूल गया था । नहीं ! शायद भूला नहीं था। मैंने शायद इसकी आवश्यकता ही नहीं समझी थी।

मुझे कार्यक्रम स्थल पर पहुंचने की जल्दी थी मैंने मां के पैर छूकर, रवाना होते हुए कहा मैं आप लोगों को लेने गाड़ी भेज दूंगा। अपनी पत्नी सुरभि से मुखातिब होते हुए मैंने उसे रामदीन काका और मां को पहले भोजन करवाने की हिदायत दी ।

'ना बेटा तू म्हारी चिंता ना कर, थारो काम देख, सारो काम आछो होनो चा वे । मां ने दोनों हाथ उठाकर आशीर्वाद देते हुए कहा । कार्यक्रम स्थल पर मां सुरभि और बच्चों के साथ अग्रिम पंक्ति में कोटा डोरिया की हल्के रंग की कलफ लगी साड़ी पहने बैठी थी। मां को हमेशा लहंगा -ओढ़नी में देखा था । इस रूप में पहली बार देख रहा था । कार्यक्रम की समाप्ति पर लोग मेरे साथ मां को भी बधाई दे रहे थे। मां के चेहरे पर प्रसन्नता की लहरें थी । आंखों में कुछ वैसा ही चमक रहा था जैसा खेतों में झूमती बालियों और फसलों को देखकर चमकता था ‌। उसकी उपस्थिति ने कार्यक्रम की गरिमा को बढ़ा दिया था । घर आकर मैंने सुरभि से कहा मां को तुमने साड़ी बड़े सलीके से पहनाई थी। यह तुम्हारी साड़ी होगी । कब खरीदी थी ,याद नहीं आ रहा । जी नहीं !तुम्हारी तैयारी के साथ, मां की तैयारी भी चल रही थी गांव में स्कूल की किसी टीचर से साड़ी मंगवाई थी। और जूड़ा बनाना भी सीखा । वह मुस्कुराई।


अगले दिन हम सभी गांव के लिए रवाना हो गए पिताजी की बरसी पूरी रस्मों- रिवाज से हुई । जात बिरादरी के लोग रिश्तेदार आज ही सभी बुलाए गए । भोजन के साथ स्मृति चिह्न में तांबे के लौटे बांटे गए वहीं बहिन - बेटियों को विदा में कपड़े दिए गए । बरसी का कार्यक्रम भली-भांति संपन्न हो गया था।

अब गांव से वापसी का समय आ गया था। मैं अपनी कुछ पुस्तकें गांव के कुछ मिलने वालों के लिए लेआया था । जो मैंने अपने कुछ गिने-चुने शिक्षित रिश्तेदारों व परिचितों को दी थी । अभी -अभी गांव के सरपंच का डॉक्टर बेटा मेरे पास से गया था । उसे भी मैंने यह पुस्तक भेंट की थी । सुरभि चलने की तैयारी कर रही थी । मैं बाहर बरामदे में बैठा था । गर्मी की छुट्टियां हो चुकी थी। अतः मां बच्चों को रोकना चाहती थी। पर सुरभि मानने को तैयार नहीं थी। उसका मानना था कि बच्चे गांव में रहकर बिगड़ेंगे। यहां की बोली सीखेंगे, मैंने उसे समझाया कि तुम्हारा और हमारा बचपन भी तो गांव में ही बीता है। तब कहीं वह बड़ी मुश्किल से बिटिया को वहां छोड़ने पर राजी हुई ,शायद उसे यकीन था कि वह ग्रामीण बच्चों के साथ नहीं खेलेगी। 'बहु छोटू थी किताब म्हारे लिए भी तो ला । 'मां ने सुरभि को कहा । तो उसने चौंक कर मां की और देखा । क्यों नहीं मां आपका तो सबसे पहले हक बनता है । आप ही ले लीजिए ना उनसे। उनका वार्तालाप सुनकर अनायास कि मेरी नजर खिड़की से दिखाई देती मां और सुरभि की ओर चली गई । नहीं तू ले आ .... काईं कहसी छोटू 'अंगूठा छाप मां काईं करसी किताब रो ‌। 'मां ने थोड़े संकोच से कहा। सुरभि आई और मां को तुम्हारी किताब चाहिए । कहते हुए बैग से एक किताब निकाल कर ले गई। मैंने देखा किताब को आंखें बंद किए मां उसी तरह सहला रही थी । जैसे मैं अपनी कृति को पहली बार स्पर्श करते हुए आत्म विभोर हो उठा था। वैसे ही वह भी भाव विभोर हो रही थी जैसे कोई मां अपने नवजात शिशु को पहली बार स्पर्श करके होती है। मैंने मां के उन हाथों को हमेशा मिट्टी और गोबर से सने देखा था, जो अभी बड़ी कोमलता से किताब के अक्षरों को स्पर्श रहे थे। उसने मेरी किताब को आंख से लगाया जैसे कोई धार्मिक पुस्तक को लगाता है और उसने अपने भगवान आले में गीता और रामायण के ऊपर रख दिया। वेदव्यास जी और तुलसीदास जी की महान कृतियों के साथ उसके छोटू की कृति भी उसने रख दी। यह दृश्य देखकर मेरी आंखें भर आई। एक मां अनपढ़ मां जिसके बेटे ने हाल ही में किताब लिखी थी उसके मनोविज्ञान को समझने की चेष्टा करते हुए मैं अंदर आ गया । मैंने पुस्तक उठाई अंदर के पृष्ठ पर लिखा आदरणीय माता जी को सादर भेंट। और पैर छूकर मां को पुनः हाथ में थमाया, कुछ बोल नहीं पाया, मेरा गला रूंधा हुआ था। शायद वह भी समझ गई हों । मैं और सुरभि बेटे सहित उसी दिन लौट आए बिटिया को वहीं छोड़कर।

डेढ़ माह गुजर गया, गर्मी की छुट्टियां समाप्त होने वाली थीं। मैं बिटिया को लेने गांव आया, घर के अंदर आंगन में नीम के पेड़ के नीचे खटिया पर दोनों दादी -पोती सटी बैठी थीं । उन दोनों की पीठ मेरी और थी । सिर आपस में जुड़े हुए थे । अचानक मुझे आया देखकर कुछ तकिए के नीचे छुपा दिया गया था। न जाने क्या चल रहा था दादी- पोती के बीच। सांझ को मां के हाथ की मक्खन लगी मक्की की गरम रोटियां बैंगन की सब्जी व कचरी की चटनी खा कर सोने के लिए आंगन में रखी खटिया उठाने आया तो चौंक पड़ा तकिए के नीचे मेरी किताब व स्लेट बत्ती रखी थी

तो मां पढ़ना सीख रही थीं।

क्या चल रहा था उनसे जुड़े हुए सिरों के बीच मुझे अब समझ में आ गया था उन दो सटे हुए मस्तिष्कों के बीच ज्ञान की गंगा बह रही थी । पोती द्वारा दादी को साक्षर बनाने की मुहिम चल रही थी। एक मां एक अनपढ़ मां अपने बेटे की पुस्तक को पढ़ने के लिए स्लेट पर अक्षर और मात्राएं उकेर रही थी । किताबों की और पढ़े -लिखों की दुनिया में प्रवेश करने को आतुर थी । मेरी आंखें फिर से नम हो गई थी । जिस मां ने हमें पढ़ाने के लिए अपना जीवन लगा दिया था । आज वह स्वयं पढ़ने के लिए कितनी व्याकुल है । क्यों नहीं पढ़ा सके हम उसे मैं स्वयं, मेरी पढ़ी-लिखी पत्नी, मेरी पढ़ी-लिखी बहने आज जो वह अपनी पोती से सीख रही थी । हम भी तो सिखा सकते थे उसे । उसने तो कभी कहा ही नहीं । शर्मिंदा होती होगी हमारे सामने स्लेट बत्ती लेकर खड़े होने में ,पर हम तो प्रयास कर सकते थे ना । मां -पिताजी ने कितना कुछ किया और हम पढ़ लिख कर एक अलग ही दुनिया में निकल आए, उनकी दुनिया छोड़कर। क्या कोई एक भी सेतु नहीं बना सकते थे हम इन दो दुनियायों के बीच । पीढ़ी अंतराल की विशाल खाई बन गई थी हमारे बीच। कभी उन्हें अपने स्कूल कॉलेज के फंक्शन में नहीं लेकर ग्रे। उन्होंने आना भी चाहा तो हमने उन्हें आने नहीं दिया वह हमारी शिक्षा पर गौरवान्वित होना चाहते थे। पर हम उनकी अशिक्षा के कारण हीन भावना से ग्रसित थे । वह हमारे कदमों से कदम मिलाकर चल सकते थे। बल्कि चलना चाहते थे। जिन्होंने उंगली थाम के चलना सिखाया उन्हीं का हाथ थाम कर चलने की सामर्थ्य कहां थी हम में। उसी पीढ़ी अंत उसी पीढ़ी अंतराल का सामना तो आज हमें करना था बच्चे अंग्रेजी स्कूल में पढ़ रहे थे। मैंने मां को साथ चलने के लिए कहा तो वह नहीं मानी । वैसे भी वह समय बुवाई का था। पर अब सेतु निर्माण की जिम्मेदारी मेरी थी। उस समय तो लौट गया पर जल्दी ही छुट्टियां लेकर वापस गांव आया । राम दीन काका बंट पर दे दिए । घर बहुत बड़ा था तो आधा दो हालियों को रहने के लिए दे दिया । पशुओं की जिम्मेदारी भी निश्चित तनख्वाह पर उन पर छोड़ दी। दूध का प्रबंध डेरी से बात कर दिया था। मां को गांव से साथ ले आया था । पर गांव आना -जाना बरकरार था। कभी मां गांव जाती तो कभी-कभी छुट्टियों में ,सुरभि, बच्चे और मैं वहां रहते गृहस्थी के जंजाल से छुटकारा पाकर मां को पढ़ने का बड़ा शौक लगा था । वह अखबार के अतिरिक्त मेरे साथी साहित्यकारों की पुस्तकें भी पढ़ने लगी थी । कभी-कभी मौखिक टिप्पणी किया करती थी । घर में तीन भाषाओं की त्रिवेणी बह रही थी राष्ट्रभाषा हिंदी तो पहले से घर में बोली जाती थी। अब मातृभाषा राजस्थानी का भी प्रयोग मां के साथ करने लगे थे । मातृभाषा राजस्थानी का गौरव बच्चों को सिखाने का एक प्रयास हो रहा था। पर मजे की बात यह थी कि मां बच्चों से अक्सर हिंदी में ही बात करतीं, अंतरराष्ट्रीय भाषा अंग्रेजी का प्रयोग मैं और सुरभि अक्सर बच्चों से बात करते समय किया करते, सेतु निर्माण का कार्य प्रगति पर था । डालिया आकाश में फैले -फले फूले इसके लिए जरूरी था जड़ों की ओर लौटना

लाव =कुएं से सिंचाई हेतु पानी खींचने का मोटा रस्सा

चड़स = सिंचाई हेतु चमड़े का बना पानी का खींचने का बड़ा थैला।



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