Rekha Pancholi

Inspirational

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Rekha Pancholi

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हैप्पी मदर्स डे

हैप्पी मदर्स डे

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नेहा ने आशु के कमरे को अंतिम रूप से सजा दिया था। बेड पर कार्टून वाली गुलाबी रंग की चादर बिछाई थी। कमरे की दीवारों का रंग भी गुलाबी था और परदे भी बेबी पिंक कलर के जंगल के नज़ारे वाले थे। उसने आशु के बेड पर साफ्ट टॉयज और टेडी बीयर भी सजा दिए थे। साइड वाली टेबल पर उसके बचपन के खिलोने थे। डिसप्ले में भी फ्रेम में कैद उसके बचपन के अटखेलियाँ करते क्षण , ट्राफियां और प्राइजेज थे।

अरे ..नेहा ये क्या कर रही हो तुम, आशु क्या अब भी बच्चा है ?अरे 21 वर्ष का हो चुका है वो अब , इंजीनियरिंग कर रहा है।अमित मैं जो पहले अपने बच्चे के लिए नहीं कर सकी वो अब करना चाहती हूँ। याद है जब हम जॉइंट फैमली में रहते थे ,आशु के लिए अलग कमरा भी नहीं था ,कोई सुविधा भी नहीं थी। आज जब हमने अपने लिए सुविधा जनक मकान बना लिया है। आशु के लिए अलग से अटेज्ड लेट-बाथवाला कमरा है तो ये कैसी विडम्बना है की वो ही यहाँ हमारे साथ नहीं है। थोड़े समय के लिए ही सही , वो जितने दिन भी यहाँ हमारे साथ रहे मैं सब सुख के साधन उसके लिए जुटा देना चाहती हूँ। नेहा के शब्दों में भावुकता स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रही थी।

आशु के कमरे का दरवाजा बंद करते हुए उसने अमित को सामानों की लिस्ट देते हुए कहा ये सब सामान बाजार से लाने हैं। 

"ओह ! इतनी लम्बी लिस्ट लगता है तुमने पूरे दो महीने का मीनू बना रखा है, आशु के लिए चलो इस बहाने इस बेचारे पति नामक जीव को भी स्वादिष्ट व्यंजनों का स्वाद चखने को मिल जायेगा।" अमित लिस्ट लेकर गाडी बहार निकलने लगे।

रसोई घर में आकर नेहा धीमी आंच में बेसन सेंकने लगी। आशु को बेसन के लड्डू बेहद पसंद हैं। हाथ काम में व्यस्त हो गए किन्तु चेतना मस्तिष्क के बंद घर में विचरण करने लगी। ये मस्तिष्क भी एक अलग ही प्रकार का अजायब घर है ,जिसमें न जाने कितनी प्रकार की छोटी बड़ी अनेक कोठरियां हैं ,और इन कोठरियों में अनगिनत बक्से हैं। यादों का एक बक्सा खुल जाये तो फिर पता ही नहीं लगता कितना समय उस बक्से में ही समा जायेगा। उसे याद आया वह दिन जब आई .आई .टी. में सिलेक्ट होने के पश्च्यात आशु को रेलवे स्टेशन छोड़कर वे लोग वापिस लौट रहे थे। घर आ कर नेहा फूट-फूट कर रो पड़ी थी वह। इसलिए नहीं की वह दो चार वर्ष के लिए बाहर जा रहा था। बल्कि इसलिए कि अब वह हमेशा के लिए मेहमान बनकर आने वाला था। इतनी हायर एजुकेशन लेने के बाद भला यहाँ उसका स्कोप ही कहाँ था। शहर में ही नहीं अब वह इस प्रान्त में भी नौकरी नहीं कर पायेगा। बेटी को तो पराये घर जाना ही है। एक ही बेटा है वह भी दूर चला जायेगा तो अभी तोss फिर भी वक्त कट जायेगा...किन्तु जीवन की सांध्य बेला ! कितना अकेलापन व सूनापन लगेगा ? 

क्यों यह मेला इस आंगन में इतने कम समय के लिए लगा ? क्यों ये किलकारियां .....ये अठखेलियाँ ..ये रौनक इतने कम समय के लिए इस आंगन में बसंत बन कर छाई और फिर पतझड़ सी लौट भी गईं।  उस दिन नेहा के आँसू थम ही नहीं रहे थे। उस दिन अमित ने आश्चर्यचकित हो कर कहा था "नेहा तुम्हारा तो सपना पूरा हुआ है, आज फिर ये आंसू क्यों ? तुमने आशु को पढ़ाने के लिए कितनी मेहनत की है, और आज जब तुम्हारा सपना साकार हुआ है, आशु ने अपना लक्ष्य पा लिया है, तो इन आंसुओं का क्या अर्थ ..? "

अमित हमारे सपने ने ही उसे हमसे दूर कर दिया है। वे लोग ज्यादा सुखी हैं जिनके बच्चे ज्यादा नहीं पढ़ पाए , कम से कम उनके पास तो हैं। क्या किया मैंने... निरी मूर्खता....उसका खेल कूद बंद करके ,उसको तीन-तीन घंटे बैठ कर पढ़ाती रही। उसकी शिक्षा-दीक्षा हम अच्छे स्कूल में करवा सकें इसलिए ..मैं घर से बाहर निकल कर नौकरी करने लगी, वो समय मेरे अपने बच्चों का था अमित ! जो में दूसरे बच्चों में बांटती रही। नेहा ने रुंधे गले से कहा।

"नहीं नेहा ! आत्मालोचन की इस मन स्थिति से बाहर आ जाओ ,तुमने गलत नहीं किया जो कुछ किया अपने बच्चों की भलाई के लिए किया। ऐसी स्वार्थी माँ नहीं हो तुम, जो सिर्फ अपना भला सोचे। " इस तरह उस दिन अमित ने उसके डूबता मन को उभारा था।

नेहा ने लड्डू बना कर डिब्बे में रख दिए। हाथ धो कर किचन से बाहर आई तो अमित ढेर सारे सामान और सब्जियाँ लेकर वापस आ चुके थे। कल सुबह ही तो आशु आ जायेगा।

ट्रिन...ट्रिन....ट्रिन अचानक फोन की घंटी ने उसका ध्यान अपनी और किया। उधर से आशु की आवाज थी। हैल्लो ! कैसी ही माँ ! आशुss ! कल आ रहा है न बेटा। हाँ माँ कल आ रहा हूँ। सुनो ss एक खुशखबरी है माँ ! मुझे एक बड़ी कम्पनी में इन्टर्नशिप का ऑफ़र मिला है। मैं पूरे दो महीने वहां काम करूँगा , इससे मुझे बड़ी कम्पनी में जॉब मिल सकेगा और माँ पापा से कहना की वो मेरा तीन दिन बाद का वापसी का रिजर्वेशन करवा दें।

"आशु ये खुशखबरी है क्या ? जो तुमने मुझे दी है। मगर बेटा तुम तो हमारे पास पूरे दो महीने रुकने वाले थे न !" 

"माँs इसमे इतना दुखी होने की क्या बात है। आपने ही तो मुझे समय का सदुपयोग करने की शिक्षा दी है सदा।" इससे अच्छा समय का सदुपयोग क्या होगा भला।वहां दो महीने रुक कर व्यर्थ समय ही तो गवाऊंगा न।

'बहुत समझदार हो गया है रे तू। हाँ सही कहा तूने मैंने तुझे समय का सदुपयोग करना ही सिखाया है। पर क्या करूँ माँ का दिल इतना समझदार नहीं होता न बेटा s। तीन साल हो गए बेटा तू जब से गया है बस ऐसे ही आता है। पिछली छुट्टियों में तुमने अतिरिक्त जानकारी के लिए वर्कशॉप ज्वाइन करली थी| तुम ये क्यों नहीं सोचते बेटा की मम्मी-पापा को तुम्हारी याद भी आती होगी।' नेहा के स्वरों में आर्द्रता और स्वरों में नमी उतर आई थी। जिसे आशु ने महसूस कर लिया था।

'नहीं माँ ऐसा मत कहो। माँ का दिल समझदार भी होता है और हिम्मतवाला भी होता है और मेरी माँ तो बहुत समझदार भी है और बहादुर भी।' आशु ने मानो उसे छोटी बच्ची की तरह बहलाया। अंतिम वाक्य ने मानो उसे झकझोर दिया, आईना दिखा दिया उसे। 'ठीक है, बेटा जैसा तुम उचित समझो।' कह कर नेहा ने फोन रख दिया और अमित के लाये हुए सामानों को सहेज कर रखने में जुट गई। आशु का कहा गया अंतिम वाक्य उसके मन मस्तिष्क में गूंज रहा था - 'मेरी माँ तो बहुत समझदार है और बहादुर भी।' ये उसी का कहा गया वाक्य था जो उसने आशु से सैंकड़ों बार कहा था। उसे लगा मानो ये वाक्य चारों और से प्रतिध्वनित हो कर वापस उसकी ओर लौट रहा है। 'मेरी माँ बहुत समझदार है और बहादुर भी।' 

वह आँखें बंद करके सोफे पर बैठ गई। उसे याद आया वह दिन जब आशु ढाई वर्ष का था और उसने उसका एडमिशन एक पब्लिक स्कूल में प्ले ग्रुप में करवा दिया था। रोज सुबह स्कूल बस उसे लेने आती थी और नन्हा सा आशु रो-रो कर उसकी टांगों से चिपक जाता था और वो रोज ये एक ही वाक्य मेरा बेटा तो बहुत समझदार है और बहादुर भी वो इसे रोता थोड़े ही है कह कर उसे बस में जबरदस्ती बिठा देती थी। आशु का एडमिशन करवा कर निश्चिन्त हो कर उसने नौकरी ज्वाइन कर ली थी। आशु और उसकी छुट्टियाँ कभी अलग अलग आती तो वह घर के बहार जाती हुई माँ का आँचल खींचता। कभी बीमार हो जाने पर माँ से न जाने का आग्रह करता। नेहा के कदम पीछे-पीछे खिंचे जाते ,पर नौकरी की विवशता उसे जाने को बाध्य करती | तब भी वह यही वाक्य दोहरा देती -'मेरा बेटा तो बहुत समझदार है और बहादुर भी।' वो ऐसा नहीं करता।

समझदारी और बहादुरी का पाठ पढ़ाते -पढ़ाते उसका बेटा कब इतना समझदार और बहादुर बन गया नेहा जान ही नहीं पाई। उसे याद आया वह जब पांचवीं कक्षा में पढ़ रहा था, उसे चिकन पॉक्स निकल आई थी तब और वह 20 दिन बिस्तर पर रहा था। सूनी आँखों से माँ को स्कूल आते जाते देखता ,पर कुछ कहता नहीं। शायद यही वह समय था जब नेहा द्वारा रोज पढाये उस पाठ को वह आत्मसात कर रहा था। नेहा का दिल जानता था कि वह कैसे बिस्तर पर उसे अकेला छोड़ कर जा पाती थी। आशु घर आया और तीन दिन रुका और वापस चला भी गया। ये तीन दिन कैसे पंख लगा कर गुजर गए पता ही नहीं चला और घर आँगन फिर सूना हो गया।

आशु को वह जैसा बनाना चाहती थी वो वैसा बन चुका था , समझदार समय का सदुपयोग करने वाला फिर भी उसका मन ये दुखी था .... आख़िर क्यों ? वह समझ नहीं पा रही थी। बच्चे को बहादुरी और हिम्मत का पाठ पढ़ाते-पढ़ाते ममता के वशीभूत हो कर वह स्वयं शायद एक कमजोर माँ बन चुकी थी। वह सोच रही थी की उसे कब अधिक ख़ुशी होती। क्या आशु समय की बरबादी करता तब ? या वो अधिक पढ़ ही नहीं पाता तब ? 

नहीं ...नहीं वह खुश है , वह ऐसा ही चाहती थी। अब तो बस उसे अपनी कमजोरी पर विजय पाने की आवश्यकता है। नेहा ने अपना कंप्यूटर खोल कर अपना मेल बॉक्स चेक किया ,आशु का मेल था - मोटे मोटे हर्फों में चमक रहा था ' हैप्पी मदर्स डे 'और एक तरफ था आशु का बचपन का फोटो आर्मी युनिफोर्म में ...कितना प्यारा लग रहा था ! नेहा के होंठों पर मुस्कान फ़ैल गई। आशु कक्षा 3 का छात्र था, उस समय का ही था। फैंसी ड्रेस में भाग लिया था तब और प्रथम पुरस्कार भी जीता था। 

वह मन ही मन कह उठी - समझ गई की इस फोटो के माध्यम से तुम क्या कहना चाहते हो। इस फोटो के जरिये तुम मुझे ये सन्देश देना चाहते हो की माँ आप उन माताओं के बारे में भी सोचो जिन्होंने मजबूत जिगर करके अपने जिगर के टुकड़ों को भारत माँ की रक्षा के लिए सीमा पर भेज दिया है। धन्यवाद बेटे , याद दिलाने के लिए। वास्तव में तो वही माताएं मजबूत और साहसी हैं। इस मदर्स दे पर उन्हीं बहादुर माताओं को मेरा शत-शत नमन। जिन्होंने अपने स्वार्थों से ऊपर उठ कर अपने आँगन की रौनक को भारत माँ के आँगन की सुरक्षा में लगा दिया। उन सभी को मेरी ओर से ' हैप्पी मदर्स डे।'



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