साँस - भाग 1

साँस - भाग 1

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शाम के 6 बज चुके थे। अक्टूबर महीने की नर्म हवा और शाम के पिघलते सूरज की हल्की रौशनी एक जर्जर होते सरकारी मकान की खिड़की से उसके लिविंग रूम में आ रही थी। वही रखे एक छोटे से दीवान पे निर्जरा लेटे हुए टीवी पर यूँ ही चैनल बदल रही थी। घर के सारे काम वो पहले ही कर चुकी थी। अब बस समय काटना था उसे, जब तक टीवी पर उसका मनपसंद धारावाहिक नहीं आता। पर उसमे समय था।

बोरियत में एक लम्बी सी उँघाई लेते हुए निर्जरा ने चैनल फिर से बदला जब उसकी नज़र चैनल पर आते एक ऐड पर पड़ी। दो लड़के गला फाड़ फाड़ कर एक प्यारी सी घड़ी का विज्ञापन कर रहे थे। निर्जरा ने कुछ पल उस विज्ञापन को देखा। बिलकुल ऐसी ही एक घड़ी अनंत को भी चाहिए थी दो महीने पहले। एक ऑनलाइन वेबसाइट पे दिखाया था अनंत ने उसे उस घड़ी का दाम। पर पैसे ना होने की वजह से वो अपने एकलौते बेटे की ये ख़्वाहिश पूरी नहीं कर पाई। पर आज टीवी पर ऐसी ही एक घड़ी सस्ते दाम में देख कर निर्जरा को लगा की शायद वो इस दीवाली अपने बेटे को एक अच्छा तोहफ़ा दे पाए। 


चेहरे पर एक मुस्कान लिए, निर्जरा ने अपना फ़ोन उठाया और टीवी पर दिखाई जाने वाली घड़ी की फोटो खींचकर अनंत को भेज दी। "ज़रा देखो तो मैं तुम्हारे लिए क्या ले रही हूँ " निर्जरा ने बड़े ही प्यार से ये मैसेज फोटो के नीचे, टूटी फूटी इंग्लिश में लिखकर भेजा। अब बस वो इंतज़ार करने लगी की कब अनंत वो मैसेज पढ़े और खुश होकर उसे कॉल करे। कुछ ही पलों में अनंत ऑनलाइन आया और मैसेज देख कर वापस ऑफलाइन हो "शायद अभी ऑफिस में होगा।" निर्जरा ने सोचा और एक हल्के से उदास मन लिए वापस टीवी पर चैनल बदलने लगी। पर अब उसका मन कुछ देखने को कर नहीं रहा था। 


निर्जरा दीवान से उठी और अपने कमरे का दरवाज़ा खोले कर बाहर देखा। बाहर कोई भी नहीं था। इस कॉलोनी में मकान अलॉट होने कम हो चुके थे। पुराने मकान गिरकर नए बनने लगे थे। अब जब तक वो नहीं बन जाते, तबादला हुए आये नए कर्मचारियों को सरकारी कॉलोनी के बाहर ही किराए के मकानों में रहना पड़ रहा था। फायदे का तो पता नहीं, पर सरकार के इस फैसले से कॉलोनी की मरम्मत रुक सी गयी थी। जगह जगह पर जंगली घास उग रही थी। टंकी से होने वाली सीलन से सस्ते प्लास्टर दीवारों से गिर रहे थे। निर्जरा उन कुछ लोगों में से थी जो कई सालों से ऐसे ही पुराने मकानों में रह रही थी। 50 साल की उम्र में अब कहीं और जाना उसके समझ के बाहर था। बीतते समय के साथ कई लोग इस सरकारी कॉलोनी में आये और गए, रह जाती थी तो बस निर्जरा, जो हर जाते लोगों से वापस आने की एक और विनती करते हुए उन्हें हमेशा के लिए अलविदा बोल देती।  

बाहर एक और नज़र देख कर निर्जरा वापस जाकर दीवान पर बैठ गयी। उसने अपने फ़ोन पे एक और निगाह डाली। अनंत का अभी भी कोई जवाब नहीं आया था। 


"मेरा बेटा काफी बिजी रहने लग गया है।" अपने दर्द को गर्व की झूठी परत में छुपा कर निर्जरा ने खुद को दिलासा दिया। 27 साल का हो चुका था अनंत पर अभी भी निर्जरा की नज़र में वो एक 5 साल का छोटा अन्नू था जो अपनी माँ के बिना एक पल भी नहीं रह सकता था। अनंत ने उसे कई बार समझाया था की वो अब बड़ा हो चुका है। कि अब वो अकेले रह सकता है। शायद यही वजह थी कि वो अपने शहर से दूर जाके रहना चाहता था। 

निर्जरा को आज भी वो याद ताज़ा थी जब अनंत ने कहा था कि "वो आएगा और यहीं दिल्ली में ही नौकरी करेगा।" थोड़ा टूटने सी लगी निर्जरा तब से। वैसे भी वो तीन साल से दूर थी अपने बेटे से। पर अपने बेटे की ख़ुशी के लिए मान गयी। "घबराओ मत मॉम," अनंत नें कहा था। "एक बार मैं अच्छे से यहाँ सेटल हो जाऊं, आप यहीं आ जाना।" थोड़ी खुश तो हुई थी निर्जरा। और इसी ख़ुशी के सहारे एक साल अकेले बिता दिए। जब भी बीमार पड़ती थी, कभी भी अनंत को नहीं बताती थी, ये सोचकर की वो घबराकर कहीं वापस न आ जाये। अगर ऐसा हुआ तो वो कभी अपने आप को माफ़ नहीं कर पायेगी। 


एक साल बाद जब निर्जरा को अपना तबादला दिल्ली करवाने का मौका मिला, तो वो ख़ुशी से फूली नहीं समायी। और उसने जब ये बात अनंत को बताई तो अनंत भी उतना ही खुश हुआ। 

"ये तो बहुत अच्छा हुआ मॉम की आप यहाँ आ रही हो।"

"है न!" निर्जरा ने कहा था। "अब दोनों माँ बेटे साथ रहेंगे हमेशा। तू भी घर के माहौल में रहेगा तो तेरी सेहत अच्छी रहेगी। फिर तू ये बहाने नहीं बना पायेगा की तुझे घर का खाना नहीं मिलता इसलिए बहार का खाता है।"

"वो सब तो ठीक है मॉम, पर मैं तो बैंगलोर जा रहा हूँ। मेरी नौकरी लग गयी है अच्छी सी वहां। आप बैंगलोर आ जाओ न।"

"बंगलोर का ट्रांसफर तो नहीं मिलेगा बेटा।"

"फिर तो रहने दो मॉम। एक बार यहाँ अच्छी सी तरक्की मिल जाये तो मैं वापस दिल्ली आ जाऊंगा। आप तब आ जाना यहाँ।"

चुप थी निर्जरा। कैसे बताती अनंत को कि दिल्ली का तबादला इतनी आसानी से नहीं मिलेगा दोबारा। "बिलकुल फ़िक्र मत कर अनंत," निर्जरा ने कहा। "तू आराम से जा। बाद का बाद में देख लेंगे।"


इस बात को 4 साल बीत चुके थे। न अनंत बैंगलोर गया, और न ही वापस आया। "बस बात नहीं बनी। आप अब नहीं आ सकते यहाँ?" अनंत ने पूछा था। निर्जरा के पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं था। पर अब भी निर्जरा के पास कोई दिलासा था तो वो ये की अनंत हर दूसरे महीने घर आता था 2 दिन के लिए। पर जैसे जैसे समय बीतता गया, अनंत का घर आना की काम होता गया। आलम ये था, कि दीवाली या दशहरा के अलावा वो अब तो घर आता भी नहीं था। जब भी निर्जरा अनंत से मिलने जाने की सोचती, अनंत अपनी बिज़नेस ट्रिप का बहाना बनाकर उसे बस एक या दो दिन के लिए आने को कहता। पर जो भी था, निर्जरा ने इसमें भी अपनी ख़ुशी ढूंढ ली थी। निर्जरा ने एक बात तो गाँठ बाँध ली थी। की कभी कुछ भी हो जाये, वो अनंत को अपने काम के लिए परेशान नहीं करेगी। और न कभी उसने किया, न कभी अनंत ने पूछा।


एक बार यूँ ही वायरल फीवर से जूझती निर्जरा के पास अनंत फ़ोन आया। निर्जरा ने उसे नहीं बताया था अपनी बीमारी में। उसे डर था की कहीं अनंत उसकी आवाज़ सुनकर ये पहचान न ले की उसकी तबियत ख़राब है। अगर ऐसा हुआ तो वो घबराकर वापस आ जायेगा। निर्जरा ने बड़ी मुश्किल से फ़ोन उठाया पर इसके पहले वो कुछ कहती, अनंत ने दूसरी तरफ से जवाब दिया। 

"माँ मुझे कुछ पैसे चाहिए। क्या आप मेरे अकाउंट में जमा करवा सकते हो?"

"सब ठीक है न बेटे?"

"हाँ। बस कल तक चाहिए, वो मैं मकान बदल रहा हूँ, और सिक्योरिटी के सात हज़ार मेरे पास नहीं हैं। इसलिए आपसे मांग रहा हूँ।"

बीमार हालत में भी निर्जरा ने उसी दिन अनंत के खाते में पैसे जमा करवाए। उसके बाद न तो अनंत ने पूरे दिन दोबारा फ़ोन किया, न माँ की आवाज़ से उसका दर्द समझने की कोशिश की। निर्जरा तब भी खुश थी। वो खुश थी क्योंकि उसका बेटा खुश था। 


ये सब बातें आज यूँ अचानक ही निर्जरा को याद आ रही थीं। उसने अपना फ़ोन उठाया और फेसबुक खोलकर पोस्ट देखने लगी। अनंत के ऑफ़िस से निकलने का समय हो चुका था। बस किसी भी पल उसका फ़ोन आने वाला होगा। कुछ और पल बीते और निर्जरा फेसबुक से भी बोर हो गयी। उसे अनंत से बात करनी थी। पिछले कुछ समय से अनंत परेशान चल रहा था। न उसने ढंग से कभी निर्जरा से इसके बारे में बात की, बस ज्यादा पूछे जाने पर झल्लाकर फ़ोन काट दिया करता था। 

घड़ी में 7 बज चुके थे। निर्जरा को अब ये बात सताने लगी थी की अनंत सही सलामत घर पहुंचा है या नहीं। निर्जरा ने इस बारे में सोचना शुरू किया ही था की उसका फ़ोन बजा। वो अनंत का फ़ोन था। निर्जरा ने एक ही रिंग में फ़ोन उठा लिया।  


एक चहचहाती हुई आवाज़ में उसने पूछा, "हाँ जी.. कैसी लगी तुम्हें घड़ी?"

अनंत कुछ देर शांत रहा फिर एक धीमी आवाज़ में कहा, "वाहियात। प्लीज ये सब मत भेजा करो मुझे।"

"क्यों? तुम्हें ऐसी ही घड़ी चाहिए थी न?"

"ब्रांड चाहिए मॉम! ये सब नकली होता है।"

"अच्छा। मुझे पता नहीं था।"

"पूछ लिया करो यार!" अनंत ने झल्लाते हुए कहाँ।

"अच्छा और बताओ कैसे हो?" निर्जरा ने बात पलटते हुए पूछा।

"ठीक हूँ, घर जा रहा हूँ, जल्दी सो जाऊंगा।"

"यहाँ कब आ रहे हो?"

"पता नहीं," अनंत ने बेमन जवाब दिया। "बता दूँगा, अभी कोई छुट्टी नहीं है।"

"तुम ठीक तो हो न?" निर्जरा ने पूछा। "कुछ महीनों से देख रही हूँ बेटे। काफी परेशान रहने लगे हो। कुछ है तो बताओ।"

"अरे कुछ होगा तो बताऊंगा। अभी रखता हूँ मॉम।"

"अरे एक चीज़ याद आयी..."

"अब क्या..."

"कॉलोनी में काफी जंगली गाय घूमने लगी हैं। एक ने तो दो या तीन पे हमला भी किया। एक तो यहाँ वैसे भी ज्यादा लोग रहते नहीं, वो तो अच्छा हुआ कि कोई गुज़र रहा था तो बचा लिया।"

"हम्म..."

"पता है अनंत, वो गाय अभी भी यहीं है।"

"हम्म... "

निर्जरा कहीं न कहीं भांप गयी थी की अनंत का बात करने का मन नहीं है। उसने तब भी एक आखिरी कोशिश करने की कोशिश की।

"बेटा सब ठीक है न?" पर मन ही मन वो कहना चाहती थी, "मुझसे बात करो बेटा ... अकेला महसूस करती हूँ काफी।"

"हद है यार कितनी बार पूछोगी आप?" अनंत ने चिल्लाकर कहा। "ठीक हूँ मैं, बस थका हूँ। आप भी कुछ देखो टीवी में इस घड़ी के अलावा। पास अभी मैं जा रहा हूँ। बाय।"

"चलो ठीक है, अपना ध्यान रखो।"

अनंत ने आगे बिना कुछ कहे फ़ोन रख दिया।

निर्जरा ने फ़ोन तो रखा, पर साथ में आँखों से आँसू भी निकल गए। निर्जरा दुखी थी। इसलिए नहीं कि वो अकेली थी, बल्कि इसलिए क्योंकि उसका बेटा एक अनजान शहर में अकेले था। होती भी क्यों न। माँ जो थी। निर्जरा ने फ़ोन रखा और वापस टीवी देखने लग गयी। उसने मन बना लिया था। वो बहुत जल्द दिल्ली जाने वाली थी। वो अब और अपने बेटे से दूर नहीं रह सकती थी।  


अगले दिन सुबह अनंत ने जब फ़ोन उठाया, तब वो शायद पंद्रहवी बार में उठाया था। रात की दारु अभी भी उसके सर पे भारी हो रही थी।

"हेलो?" अनंत ने नींद में जवाब दिया।

"मिस्टर अनंत?" एक अजनबी आवाज़ ने दूसरी ओर से पूछा। 

" हाँ, कौन?"

"मैं सरकारी अस्पताल से बोल रहा हूँ, क्या आप जल्द से जल्द यहाँ भोपाल आ सकते हैं?"

"क्यों क्या हुआ?"

"आपकी माताजी। उनपे कल हमला हुआ था जंगली गाय का। चूँकि वो उस समय वहां अकेली थीं और समय पर मदद नहीं पहुंच पायी...अनंत आपकी माताजी अब नहीं रहीं।" ...


कहानी जारी है....  


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