साहिर का हिसाब
साहिर का हिसाब
मैं जावेद अख्तर तकरीबन 21 साल का हो गया हूंं, 27 रुपये लेके लखनऊ से भाग के मुम्बई कुछ बनने आया हूँ, अपनी मुफलिसी फाका परस्ती के दिनों से गूँजर रहा हूँ। सर छुपाने को एक बंद पड़े स्टूडियो का कंपाउंड है बिस्तर के नाम पे कंपाउंड के बीचो बीच पड़ी एक बेंच है खाने के नाम पे एक होटल में 30 रुपये एडवांस बचे है।
जितने दिन उससे दिन रात की भूख का गुज़ारा हो जाये। ऐसी फकीराना हालत में भी मस्त हूँ क्योंकि मेरे ऊपर सरपरस्ती मशूहूर शायर साहिर लुधियानवी की है। उनसे मेरा रिश्ता तीन तरीकों से है एक तो वो मेरे वालिद जाँ निसार अख्तर साहब (जिनसे मेरे रिश्ते बहुत खुशनुमा नही है )के दोस्त है,दूसरे मेरे मरहूम मामू मशहूर शायर मजाज़ लखनवी के बड़े अजीज दोस्त है और तीसरा सबसे अहम एक मुरीद एक शागिर्द और एक उस्ताद का, एक कलाकार और उसके सच्चे प्रशंसक का।
साहिर साहब इन दिनों 7 बंगले वर्सोवा में रहते हैं चन्नाय निवास।
मैं अक्सर शाम को उनके घर जाता, घंटो बैठता उनके पेग बनाता और वो मुझे अपनी लिखी नज़्म ग़ज़ले सुनाते और मैं उसमे कभी कभार कुछ कमियां निकालता जिसकी मेरी ज़ुर्रत नहीं होती अगर वो इतने बड़े इंसान ना होते और मुझ जैसे नौसिखिये को ये हक़ ना देते।
ख़ैर उस दिन मुझे सुबह अपने घर पे देखकर वो थोड़े हैरान हुए उन्होंने बैठाया अपने साथ ड्राइंग रूम में नाश्ता कराया। मैंने उनसे कहा साहब मेरे पास कोई काम नहीं कहीं कुछ काम मिल जाता। वो उठे और ये बुदबुदाते हुए, "फकीर क्या तुझे देगा फिर भी बात करूंगा।" बोल के बगल के अपने बेडरूम में चले गए। हर आदमी का एक जुदा अंदाज़ होता है।
साहिर साहब जब परेशान होते तो जेब से कंघी निकाल कर अपनी ज़ुल्फ़ें सँवारने लगते। उन्होंने मुझे आवाज़ दी "सुनो नौजवान वो मेज पे कुछ रखा है उठा लो, हमने भी यह दिन देखे हैं यह रख लो वापस कर देना।" मैंने देखा मेज पे किताब के नीचे 200 रुपये रखे थे आप उस आदमी की सेंसटिविटी देखिए वो चाहता तो मेरे हाथ में दे सकता था पर मेरी खुद्दारी को वो बचा रखना चाहता था। मुझसे वो नज़रें नहीं मिला रहे थे कि मेरी नज़रो में वो देने वाले और मैं लेने वाला न बन जाऊ, मुझे बुरा न लगे इसलिए वो चोर नज़रों से बाहर निकल गए।
खैर बात गयी वक़्त बदला मेरा काम चल पड़ा काफी पैसे शोहरत मिल गई मैं और सलीम साहब स्क्रिप्ट राइटर के तौर पे अपने मुक़ाम पा चुके थे, साहिर साहब के साथ कई सुपरहिट फिल्मों दीवार, त्रिशूल, काला पत्थर, सिलसिला आदि में साथ काम कर रहे थे वो गाने लिखते थे हम स्क्रिप्ट।
अक्सर सिटिंग होती, महफिलें जमती, जाम टकराते। मैं अक्सर कहता कि साहिर साहब आपके दो सौ रुपये मेरे पास है पर मैं लौटाऊंगा नहीं। वो झेंप जाते क्योंकि वो मुझे जताना नही चाहते थे, औरों को बताना नहीं चाहते थे मेरी मुफलसी की दास्ताँ।
"छोड़ो नौजवान, ले लूंगा कभी।" बोल के चुप हो जाते।
फिर एक दिन उनके दोस्त डॉक्टर कपूर का फ़ोन आया साहिर साहब नहीं रहे उनके घर वाले बॉडी ले गए हैं। आप पहुँचिए|
मैं जब घर पहुँचा तो उनके शरीर ऐंठ चुका था। मैंने कफन के अंदर से उनके हाथ निकाले सीधे किये एक आखरी बार उनके नौजवान ने अपने सरपरस्त गारजियन की उंगलियां थामी। ज़ेहन में ख्याल आया कि इसी हाथ ने न जाने कितने अफ़साने नज़्में, शेर, ग़ज़लों गानों को रचा है गढ़ा है। फिर मैं वही सो गया ज़मीन पर। सुबह उनकी बॉडी को कब्रिस्तान ले जाया गया उनको सुपुर्द- ए-खाक करने के बाद जैसे ही मैं अपनी कार में बैठा एक आदमी जिनका नाम अशफ़ाक़ था मेरे पास दौड़ते हुए आये और परेशान लहज़े में बोले "जावेद साहब मैं जल्दी में लोवर शर्ट पहन के आ गया क्या आपके पास 200 रुपये है ? कब्र जिसने बनाई है उसको देने हैं।"
मैंने जेब से 200 रुपये निकाले और आँसुओं को पोंछता हुआ चल दिया।
उस शख्सियत ने कुछ इस तरह मुझसे हिसाब चुकता किया की मेरी खुद्दारी भी रह गयी और उनकी वादा खिलाफी भी न हुई।
जब मैंने ये किस्सा जावेद साहब की जुबानी वीडियो में सुना मेरे रोंगटे खड़े हो गए और आज उस ज़ुबानी किस्से को अपने लफ़्ज़ों में कहानी बनाने की जुर्रत करते वक़्त फिर वो सिरहन और आँखों मे नमी महसूस कर रहा हूँ।