रीत
रीत
उबलती धूप में किसी पेड़ की छांव ढूंढती वह एक सूखी झाड़ी के नीचे आकर बैठ गयी। थकी, पसीने से भीगी हुई उसकी चुनर हवा की राह देख रही थी। मानो वह अपने साथ, उसके प्रियतम का साथ और सावन की वर्षा लाने वाली हो। मीलों लम्बा सफर तय कर आज वह एक बेजान पड़ी मूर्ति की तरह चुपचाप ओट में बैठी थी। जैसे धूप उसका जेठ हो जिसे छूने से उसे पाप का भागी होना पड़ेगा। धूप से आँचल बचाती, खुद को छिपाती हुई, वह शीतल हवा को तरस रही थी। पानी की एक बूँद उसके लिए अभी अमृत के समान थी पर दूर दूर तक कहीं कोई तालाब या पोखर नही था। प्यास से चूर वो तड़प रही थी पर आसमान बिल्कुल साफ और नीली चादर ओढ़े उससे मुँह छिपा रहा था। मानो आसमान भी उससे पीछा छुड़ाना चाहता हो। उसके मन में कई सवाल गोते मार रहे थे। इन सवालों का बोझ इतना ज्यादा था कि वो तपती धूप में भी अपना छोटा सा नन्हा बिलखता बच्चा यूँ ही छोड़कर घर से बाहर निकल आई। अपने मन मे उठ रहे इन सवालों का जवाब उसे खूब ढूंढने पर भी न मिला और अब वो चुपचाप उस झाड़ी के नीचे चूर हो गयी थी। आखिर क्या कमी थी उसमें? एक स्त्री के सारे गुण थे उसमें। सुंदर, सुशील, सुडौल, सभ्य आचरण वाली, छः महीने का एक छोटा लड़का भी था उसका, काया श्वेत घुटनों से नीचे तक लंबे काले मोटे सर्प की तरह उसके केश, चेहरे के इर्द गिर्द घुमावदार रास्ता बना देते थे।जो उसकी खूबसूरती को और बढ़ा देते थे। हर तरफ से पूर्ण थी वह स्त्री। किन्तु फिर भी न जाने क्यों उसके पति ने उससे मुँह मोड़ लिया। एक परायी स्त्री को वह कैसे बर्दास्त कर पाती। आज वह अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही थी उस समाज में जहां औरतों का पति के बिना कोई महत्व नहीं है। क्या यही रीत है कि पति अपनी स्त्री के होते हुए भी किसी अन्य स्त्री को प्रेम स्नेह बाँटे?