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प्यारे चाचू

प्यारे चाचू

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वह शाम रौनक के लिए बहुत भयानक थी, वह करीब 7 या 8 साल का था, जब उसने अपने चाचाजी को ऐसे हालत में देखा। उसने ऐसा मंजर पहले कभी नहीं देखा था। जो रौनक अपने प्यारे चाचू से कहानी सुने बिना सोता नहीं था वो आज अपने चाचू के पास चाहकर भी नहीं जा पा रहा था।

पूरा बदन भीगा हुआ, आँखे अधखुली, शर्ट पर की हुई उल्टी और एक अलग प्रकार की गंध की वजह से कोई उन्हें छू तो नहीं रहा था लेकिन आस पास खड़े परिवार के लोग नसीहत जरूर दे रहे थे, कोई कहता, इसको नींबू पानी पिलाओ तो कोई कहता इसको ठंडे पानी से नहला कर सुला दो।

खरी-खोटी सुनाने की तो कोई सीमा नहीं थी। रौनक को बिल्कुल अच्छा नहीं लग रहा था जब उसके चाचू को कोई भला बुरा कहता। वह भीड़ से हटकर एकांत खड़ा होकर अपने चाचू को गौर को देखने लगा, आधी बंद आँखों से शायद चाचू उसे ही ढूंढ़ रहे थे। रौनक और चाचू की नज़रें आपस में मिलते ही चाचू के चेहरे पे मुस्कान और रौनक के चेहरे पर मायूसी साफ दिखाई पड़ने लगी।

चाचू अपनी लड़खड़ाती आवाज में उसे अपने पास बुलाने लगे, उस लड़खड़ाते आवाज को सुनकर वो रोते-रोते अपने चाचा की तरफ बढ़ने लगा। इतने में रौनक की माँ ने रौनक को अपनी तरफ खींच लिया- "वहाँ कहा जा रहा है, तुझे भी ऐसा बनना है क्या, चल अंदर।"

ऐसा कहते हुए माँ ने रौनक को कमरे में बंद कर दिया। रौनक के आँसू थम नहीं रहे थे, उसके मन में अजीब अजीब तरीके के ख्याल आने लगे, उससे लगा उसके चाचा पागल हो गए हैं, अब कभी ठीक नहीं होंगे। उसे अपने चाचू को हमेशा के लिए खोने का डर सताने लगा। यह सब सोचते और रोते नींद लग गई उसे।

रोज की तरह सुबह बड़े आराम से उठ कर यहाँ वहाँ देखने लगा, अब तक उसे कल के सारे बीते लम्हे याद आ चुके थे। वो भागकर तुरंत बाहर आया, बाहर का दृश्य देखकर वह चौंक गया, बाहर तो सब अपने सामान्य कामों में व्यस्त थे, उसे लगा कि उसके चाचू यहाँ से कहीं चले गए और इन सबको कोई फर्क नहीं पड़ रहा, अचानक नीचे बैठकर चाचू चाचू करते हुए दहाड़ मार कर रोने लगा। इतने में पीछे से आवाज आई- "सोकर उठ गया मेरा बेटा।"

उनसे पीछे मुड़कर देखा तो उसके प्यारे चाचू खड़े थे। एकदम साफ सुथरे और इस बार उनकी आवाज भी नहीं लड़खड़ा रही थी। वो बहुत खुश हुआ और छलांग मार कर चाचा की गोद में जा गिरा और जोर जोर से कहने लगा- "मेरे चाचा ठीक हो गए, मेरे चाचा ठीक हो गए।"

रौनक की खुशी का कोई ठिकाना ना रहा।


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